कैसी कौतुहलता
कैसी विवशता
त्रासदी ये मानव की
ना स्वयं पे इतना इठला
जीने दो बेज़ुबानों को
खिलने दो बागानों को
किया धूमिल सौंदर्य सृष्टि का
ए मानव अब तो संभल जा
बेबस थी, लाचार थी
सृष्टि अत्यंत आहत थी
ढंग जीवन शैली का रोज़ नया
बना मानव के लिए ही विपदा
सुन वेदना इस सन्नाटे की
है इनमें गहन दर्द छिपा
रोता सन्नाटा करे इशारे
ना सृष्टि संग खेल रचा
विनीता पुंढीर
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