साहित्य चक्र

18 September 2020

खेल सृष्टि संग






कैसी कौतुहलता 
कैसी विवशता 
त्रासदी ये मानव की 
ना स्वयं पे इतना इठला 

जीने दो बेज़ुबानों को 
खिलने दो बागानों को 
किया धूमिल सौंदर्य सृष्टि का 
ए मानव अब तो संभल जा 

बेबस थी, लाचार थी 
सृष्टि अत्यंत आहत थी
ढंग जीवन शैली का रोज़ नया 
बना मानव के लिए ही विपदा 

सुन वेदना इस सन्नाटे की 
है इनमें गहन दर्द छिपा 
रोता सन्नाटा करे इशारे 
ना सृष्टि संग खेल रचा 


                                 विनीता पुंढीर 


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