साहित्य चक्र

13 September 2020

निंदिया




कभी कच्ची, कभी पक्की 
कभी स्वप्नों को बुनती 
कभी राहों को ताकती 
कैसे बेसुध आ जाती निंदिया 

पीड़ा से व्यथित मन की 
मीलों दूर है निंदिया 
विरह-वेदना ने घेरा जीवन 
कैसे भाए उसको निंदिया 

बेहाल है क्षुधा से जो 
स्वाद ना लगे उसे निंदिया 
परिपूर्ण सुख-सुविधाओं से जो 
दवा लेकर बुलाए निंदिया 

संतोष मन में जिसके 
घेर चले उसे निंदिया 
सुहानी लगती नन्हें शिशु की 
मीठी मासूम सी निंदिया 

जीवन के अनूठे रंगों से 
भरपूर सराबोर है निंदिया 
खड़ा जो जीवन के अंतिम द्वारे 
स्वयं पुकारती उसे गहरी निंदिया 


                                     विनीता पुंढीर 


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