साहित्य चक्र

13 June 2020

औरत ही है रोकर भी तुम्हें हँसाये


कितना कुछ कह ना पाई
वो कितना कुछ छुपाये है
औरत ही तो है ना साहब
हर रिश्ता दिल से निभाये है।

माँ बनकर ममता में ढल गई
जैसा चाहा वो वैसे पल गई
फिर बिटिया बन क्यूँ खल गई
समाज ये कैसी रीत चलाये है।

सजा काटती हैं जंजीरों में
घर की सुख शान्ति माँगती है
मंदिर मस्जिद पीर फकीरों में
सबकी खुशियों संग मुस्कुराये है।

परिवार को खुश रखती अपने
सारे आँसू और दर्द छुपाकर
उसकी अमीरी का कोई जवाब नहीं 
हँस हँस के खुशियां लुटाये है।

सारे घर के हर दर्द की दवा है
रब के लबों से निकली दुआ है
तन्हा रोती महफिलों में हँसती
कितना सितम जमाना ढाये है।

तुम खुश होते हो उसपर अपना
गुस्सा और भड़ास निकालकर
देखो अपनी खुशनसीबी का आलम
औरत ही है रोकर भी तुम्हें हँसाये है।

                                                     आरती त्रिपाठी


No comments:

Post a Comment