साहित्य चक्र

15 June 2020

मरने कभी न दीजिए



मन  का  आइना,  दोहा  मन  की  पीर ।
कभी हाथ का दीप हैं, कभी बने शमशीर ।।

बहता तो दोनो जगह, नदी,नयन में नीर ।
एक बुझाता प्यास को,एक बहाता पीर ।।

दर्द सिंधु - सा हो गया, गहन  और  गंभीर ।
तब गीतों में बूँद - भर, छलका उसका नीर ।।

कष्ट  चुनौती  मानिये, कहते  पीर, फकीर ।
मरने कभी न दीजिए, निज आँखों का नीर ।।

दोहा - गीत के फेर में,  उलझें  राँझा-हीर ।
अर्थ  प्रेम  का  बाँचने, आओं पुनः कबीर ।।

हमने   नापी  उम्र-भर, शब्दों  की  जागीर ।
ढाई आखर लिख हुए, जग में अमर कबीर ।।

पीड़ा जब मन में बसी, तन-मन हुए अधीर ।
रोम - रोम गाने लगा, बनकर  दास कबीर ।।

                                 गोपाल कौशल

No comments:

Post a Comment