मन का आइना, दोहा मन की पीर ।
कभी हाथ का दीप हैं, कभी बने शमशीर ।।
बहता तो दोनो जगह, नदी,नयन में नीर ।
एक बुझाता प्यास को,एक बहाता पीर ।।
दर्द सिंधु - सा हो गया, गहन और गंभीर ।
तब गीतों में बूँद - भर, छलका उसका नीर ।।
कष्ट चुनौती मानिये, कहते पीर, फकीर ।
मरने कभी न दीजिए, निज आँखों का नीर ।।
दोहा - गीत के फेर में, उलझें राँझा-हीर ।
अर्थ प्रेम का बाँचने, आओं पुनः कबीर ।।
हमने नापी उम्र-भर, शब्दों की जागीर ।
ढाई आखर लिख हुए, जग में अमर कबीर ।।
पीड़ा जब मन में बसी, तन-मन हुए अधीर ।
रोम - रोम गाने लगा, बनकर दास कबीर ।।
गोपाल कौशल
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