साहित्य चक्र

01 June 2020

गरीबी थी पुरानी ,

मर चुकी माँ जाग जाए,खींचता है शाल को।
शब्द भी रोने लगे हैं देखकर इस हाल को ।

जाग जा मुन्ने जरा अब,आने को है घर तेरा,
आज सुबहा ही तो माँ ने था जगाया लाल को।

बेशर्म सत्ता है कहती - 'अर्शे से बीमार थी' ,
हाँ! गरीबी थी पुरानी, छोड़िए पड़ताल को ।

बीस घण्टे के सफर में एक बोतल बिसलरी, 
आठ बिस्किट के सहारे,रोकना था काल को।

एड़ियां रगड़ी हैं मैंने ,लाश कहती चीख कर,
हाँ! मेरी हत्या हुई है ,बांच लो इस खाल को।

मार दो गोली,है बेहतर, बेबसी की मौत से ,
माँ चली,दो कोस लेकर,लाल के कंकाल को ।

सुन हुकूमत ! नीचता का चरम है ये बेरुखी, 
थू है तुझपे, खा गया तू ,देश के टकसाल को।

एक भाषण ओर देगा,त्याग और बलिदान पर,
दो मरे या सौ मरें, दर्द क्या घड़ियाल को ।

           
                                         भीवा कबीर



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