साहित्य चक्र

01 June 2020

प्रेम नहीं कोई खेल



ये प्रेम नहीं कोई खेल प्रिये,
यह तो मर्यांदित बन्धन हैं।
तुम हृदय में कुंठा मत पालों ,
मैं तुलसी जैंसी पावन हूं।।

वृंदावन की मिट्टी हूॅं 
हर जन्म तुम्हें ही पुंजूगीं।
तौलों मत मुझको अरबी डॉलर से
मैं तो तेरे ही रूह में बसती हूं।।

राधा का सा प्रेम लिए
मां सबरी सी राह को तकती हूं।
तुम मुझमें अप्सरा पर ढूंढों
मैं तुझमें ही बसते विष को पीती हूं।।

तुम सदा समझते हो मुझको,
मैं इक विदूषी नारी हूं।
पर नहीं प्रिये, मैं कोई विदूषी
मैं तो तेरे ही मन की श्रद्धा हूं।।

तुम कलुषित करों न अपना तन,
मत पाखंडी कहलाओं।
बैठों तुम प्रियवर ! व्यासपीठ पर,
मैं जिह्वा से तेरे मां वीणा बन निकलूंगी ।।

ये प्रेम नहीं कोई खेल प्रिये

                                             रेशमा त्रिपाठी


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