मंजिल हूँ कि राह हूँ मैं
हँसी हूँ कि आह हूँ मैं
या स्व: घूरती निगाह हूँ मैं
बेटी हूँ या गुनाह हूँ मैं
बंद हो कन्यापूजन पाखंड
पहले निर्धारित हो मृत्युदंड
यहां खुलेआम अस्मतें लुटतीं हैं
कानून की पट्टी तक ना हिलती है
राजनीति पक्ष- विपक्ष घूमती है
पीड़ित आत्मा रो के कहती है..
जब खुलेआम अस्मतें लुटतीं हैं
क्यूँ सरेआम सजा ना मिलती हैं
जब दरिंदे बेख़ौफ़ घूमते हैं
सब कानून किस खौफ़ में सोते हैं..?
आकांक्षा सक्सेना
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