साहित्य चक्र

01 June 2020

नयनों में आंसू लेकर बैठे


बैठे बैठे प्रवासियों ने सोचा था दिन बहुरेंगे,
फैल रही महामारी के पांव कहीं तो ठहरेंगे।
घर पर भेजा था जो पैसा वापस मंगा के खा लिया,
आगम का हर श्रोत रुका कर्ज कहां से उतरेंगे।।

सरकारों की नाकामी से, 65 दिन से अटके हैं,
शहरों की गलियों में सब 65 दिन से भटके हैं।
जा पाते भूंख मिटाते, गांव पहुंच कर अपने,
सरकारी हीला हवाली से 65 दिन से लटके हैं।।

रोज कमाकर खाने वाले, माह में वेतन पाने वाले,
ढूंढ रहे हैं भोजन आज, माॅल में पिज्जा खाने वाले।
हफ्ते दश दिन देखते-देखते 65 दिन भी बीत गये,
नयनों में आंसू लेकर बैठे, खुशियों से नैन मिलाने वाले।।

लोकतंत्र का राजा कातिल बनकर बैठा है,
सुविधा देने वाला ही शातिर बन कर बैठा है।
मजबूरी में भूंखे प्यासे घर वापस आने वालों से,
केंद्र राज्य दोनों का राजा कट्टी लेकर बैठा है।।

                                              प्रदीप कुमार तिवारी


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