साहित्य चक्र

28 June 2020

गीतिका



चाहें जितना बचाओ जितना लगा लो नारे।
हर कदम यहाँ पर बेटी ही छली जाती है।

न हो ग़र नारी तो कैसे सृष्टि की हो रचना।
ये बात किसी को भी समझ नहीं आती है!

चाहें बेटी बचाओ या पढ़ाओ का हो नारा।
इल्ज़ाम सब जहाँ के नारी पे मढ़ी जाती है।

कैसे कहूं की न्याय हो रहा है इस जहाँ में।
क़ानून की भी जेब तो पैसे से भरी जाती है।

बेटे बेटी में नहीं है भेद भाव कहते हो तुम!
कोख़ में भी भ्रूण कन्या ही तो मारी जाती है!

परचम लहरा रही है हर क्षेत्र में अब बेटी।
युगों युगों से नारी अबला ही कही जाती है!

मिटा देती है ख़ुद का वज़ूद भी वो अपना।
फ़ना करने ख़ुद को समंदर में नदी जाती है!

चेहरा बदल बैठे हैं हर मोड़ पे दुःशासन!
मासूम बेटियों की अस्मत लूटि जाती है।

संस्कार सभ्यता की लिए साथ में धरोहर!
हर रूप में ये नारी रिश्ता निभा जाती है।

@ मणि बेन द्विवेदी


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