साहित्य चक्र

01 June 2020

बंद नहीं पैबंद



न केवल देश बंद 
बल्कि शहर गाँव गली सब बंद
आदमी का दिमाग मगर 
बन्द कमरे में कुछ ज्यादा ही खुला
जो देखता नही था प्रायः
या जमी थी जिस पर उपेक्षा की धूल
सब दिखने लगा, वह भी धुला-धुला
उसने देखा पोर्च में एक तरफ बैठे
बूढ़े पिता को
कैसे कमज़ोर लग रहे थे
ऐनक पर स्क्रेच पड़ गए थे
न जाने कब से ऐसा ही लगा रहे हैं...
उसने देखा माँ कितना कम बोलती है
आजकल डांटना तो छोड़ ही दिया
जब भी कोई बोलता है ध्यान से सुनती है
इस तरह जैसे अदालत का फैसला हो
न जाने कब से ऐसे ही सुन रही है...
उसने देखा पत्नी कितनी बार आती जाती है
इधर से उधर, रसोई से पूरा घर
इतने बरसों में जब भी कुछ भूला हूँ रख कर
इसीने ला कर दिया है
जो सबसे सरलता से मिल जाए
वो सामान तो ये खुद है
अपने गाने से ससुराल में सबका मन मोह लेने वाली
न जाने कब से ये गुनगुनाई भी नहीं...
और ये बच्चे ,मैंने एक बार कहा था 
जाओ कल खेलूंगा तुम्हारे साथ
एक बार और कहा,और फिर...
कल आया ही नहीं और ये इतने बड़े हो गए
न जाने कब से इन्हें यही कहता आया हूँ...
अब बंद में सोचता हूँ
सबको सबके हिस्से का समय दूँ
देखता हूँ अगर ये न होता
तो कितना कुछ बंद ही रह जाता
ये बंद नहीं है
रिश्तों के जीर्ण होते चादर में
ये एहसासों का पैबंद है।

                                            अनीता श्रीवास्तव


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