साहित्य चक्र

29 December 2019

पल पल करता है मन मेरा



शरद चांदनी की रातों में, ढूंढूं अजब ठिकाने को,
याद में उसकी खोया रहता, कौन सुने अफ़साने को,
पलपल करता है मन मेरा, उनसे मिलने  जाने को,
कुछ बातें सुनने को उनकी, कुछ अपनी बतलाने को।।

झर झर झरने सी झरती क्यों,
आँखों से अश्रु की धारा 
कम्पित अधरों की खामोशी, 
बूझ सका न क्यों हरकारा,
भाव भंगिमा के बलबूते, आतुर थी समझाने को,
चुप्पी को ही अच्छा समझा, देख किसी अनजाने को,
पलपल करता है मन मेरा, उनसे मिलने  जाने को,
कुछ बातें सुनने को उनकी, कुछ अपनी बतलाने को।।

मधुमास में मधुकरी सी,
मधुवन में गुंजार करे,
फूलों कलियों की रंगत से,
नित नित नव श्रृंगार करे,
जब छलके यौवन मदमाता, फिर होश कहाँ दीवाने को,
गुन गुन करते आए भँवरे, प्रीत की रीत सिखाने को,
पलपल करता है मन मेरा, उनसे मिलने  जाने को,
कुछ बातें सुनने को उनकी, कुछ अपनी बतलाने को।।

विपुल केश राशि रजनी सी,
मुख पर जब भी आती है,
रूप सलोने की कान्ति,
चपला सी चमकती जाती है,
फरफर उड़ता आँचल उसका, मन मेरा ललचाने को,
लाख कोशिशें करता रहता, मैं भी उसको पाने को,
पलपल करता है मन मेरा, उनसे मिलने  जाने को,
कुछ बातें सुनने को उनकी, कुछ अपनी बतलाने को।।



उठती पलकें नज़र नशीली,
झुकती पलकों से शरमाये,
हिरणी सी जब चाल चले तो,
कमर लचीली बल बल खाए,
रूप निहारूँ बैठे बैठे, और सांसे हैं थम जाने को,
जादूगरी सी करती रहती, लगातार भरमाने को,
पलपल करता है मन मेरा, उनसे मिलने  जाने को,
कुछ बातें सुनने को उनकी, कुछ अपनी बतलाने को।।

ललना की छलनी छाया को,
लिपटा लूँ अपनी बाहों में,
बस मदहोशी का आलम हो,
क्यों प्यासा भटकूँ राहों में,
प्रणय चेतना अगन लगाती, जो कहती जल जाने को,
मयखाने में मैं क्यों जाऊँ, अपनी प्यास बुझाने को,
पलपल करता है मन मेरा, उनसे मिलने  जाने को,
कुछ बातें सुनने को उनकी, कुछ अपनी बतलाने को।।


विजय कुमार पुरी, सम्पादक
सृजनसरिता

एक स्त्री है वो

दुष्टों के लिए काली का रूप है वो,
घर की लक्ष्मी, बच्चों की ममता की एक मूरत है वो
हर दुख़ हरण कर घर की सुख़ शांति है वो,
एक स्त्री है वो।।

खेल का मैदान हो या आसमान की उड़ान हो,
कंधे से कंधा मिलाकर चलती है वो,
अपने हक के लिए लड़ती है वो,
कम नहीं है किसि से ,
सबका भला कर दुष्टों का सर्विनाश करती है वो,
एक स्त्री है वो।।

फूल सी कोमलता, मां की ममता ,प्रेम भरी मूरत है वो,
हर कठिनाई में साहस है वो,शक्ति पूर्ण देवी है वो,
इस सृष्टि की आगाज है वो,
मन की शांति, ज़ग की एक अनमोल रचना है वो,
एक स्त्री है वो।।

                                                   निहारिका चौधरी


*नया साल-2020*



जिंदगी की दौड़ में एक साल और चला गया
कुछ खोया कुछ पाया लो फिर से नया साल आ गया


जिंदगी के कई मसले रह गए बोझिल लो
फिर से देखो इतराते यह नया साल आ गया

आशा है खुशियों से भरा यह साल जगमगाए
प्रकाश अच्छी फैलाकर यह साल नया आए

प्रेमसमर्पण नारी के प्रति सम्मान सबके मन में आए
सबके जिंदगी को रोशन करने देखो नया साल आ गया

अन्याय,अनाचार,अहंकार,छल,कपट सब चला जाए
बस प्रेम का प्रकाश फैलाए यह नया साल बस आए

हर तरफ खुशियों के कमल खिल जाए
इस बार कुछ यूं यह नया साल आए

                                           निक्की शर्मा 'रश्मि'


जाग भी जाओ



हे मानुस! तूँ सभी जीव में ज्ञानी है - विज्ञानी है।
जैव - जगत  में  नहीं  दूसरा कोई तेरा सानी है।
सकल जगत की इच्छाओं का तूँ राजा है, रानी है।
सच्चाई   से   दूर   भागना बस तेरी नादानी है।।


मैं  मुर्गा   बन  गला फाड़कर तुझे जगाने आता हूँ।
सूरज की किरणों में शामिल होकर धूप खिलाता हूँ।
फूलों की   पंखुड़ियों  से भौरों को मुक्त कराता हूँ।
और हवा में खुशबू बनकर इधर उधर बिखराता हूँ।।

चिड़ियों के कलरव में घुलकर मीठा गान सुनाता हूँ।
वसुधा के तन से शबनम की धवल वितान उठाता हूँ।
अम्बर  में   बिखरे    तारों को सोने हेतु पठाता हूँ।
दूर क्षितिज के पूर्व छोर से लाली बन मुस्काता हूँ।।

कभी    तीव्र  आँधी बनकर तेरा सर्वस्व उड़ता हूँ।
मेघ - गर्जना बिजली बनकर बहुधा तुझे डराता हूँ।
नारी   के   पावन  रूपों में नरता तुझे सिखाता हूँ।
कवि के छंदों में नवरस बन सही-गलत दिखलाता हूँ।।

तुझे जगाने हेतु जगत में लाखों जतन किये मैंने।
शारद का धर रूप श्वान बिल्ली बन रटन किये मैंने।
किन्तु तुम्हारी नींद निगोड़ी सागर से भी गहरी है।
संदेशों  को  बार - बार   झुठलाने वाली बहरी है।।

जाग न पाये लेकिन सोचो समय चक्र तो घूमेगा।
जगने वाला आगे बढ़कर उचित फलों को चूमेगा।
इसीलिए संकेतों को मत भूल कभी इंकार करो।
समय चक्र के साथ चलो शाश्वत विधान स्वीकार करो।।

                                               डॉ अवधेश कुमार अवध


"आग "


भूरे की ख़ुशी का कोई ठिकाना ना था. वो  तो  रहता ही ऐसे  मौके  की तलाश  में  था  कब कहीं  दंगा फ़साद हो  और  कब उसके पौ बारह हों. आज  शहर  में हो  रहे  दंगों को देखकर  वो  बहुत  ख़ुश था, चलो  फिर कहीं हाथ  आजमाने का मौका तो  मिलेगा..  तभी  मोबाइल  की घंटी  बज  उठी  दूसरी  तरफ  की आवाज़  सुन  भूरे के  चेहरे की  चमक  बढ़  जाती है एकाएक  बोल उठा " क्या साहब बस  पाँच  हजार? ठीक  है  साहब  काम हो  जाऐगा. अगले  दिन  पता  चला मीना चौक पे  भरी  बस  में  आग  लगा दी  गयी .. कुछ  लोग  निकल कर  जान  बचाने  में  सफल  हो  गए कुछ आधी  जली  हालत  में  पाए  गए  और  दो  व्यक्ति  जलकर  खत्म  हो  गए. उस  रात  भूरे  अपने  घर  नही  पहुँचा  इस  डर से  कहीं  किसी ने  मुझे  पहचान  तो नही  लिया. अगली  सुबह  भूरे  जब  अपने  घर  पहुँचा  तो घर के बाहर  भीड़  लगी  देखकर  सकपका  गया  अंदर  गया तो औरते  दहाड़े मार-मार कर रो रहीं थीं और बीच में  सफ़ेद कपड़े से  ढका उसके  बेटे का  शव  पड़ा था. चारों तरफ  अंदर-बाहर सिर्फ एक ही चर्चा थी नाश हो  मर गए  इन  दंगाइयों का  जिन्होंने  बस  को  आग  लगाई, जब  अपना  कोई  जलेगा  तब  पता  चलेगा?  भूरे  को  तो  जैसे  साँप सूंघ गया हो.. कुछ  समझ ही नही आ रहा था.. पाँच हजार की  ख़ुशी मनाए या  बेटे की  मृत्यु  का  शोक?



                                                      अंजलि गोयल 'अंजू ' 

नया वर्ष

एक नया वर्ष
नए वर्ष में नए युग का
संचार होगा ।

नाम होगा वो भी बेनाम होगा ।
और सब शत्रुओं का
संहार भी होगा ।


दौड़ेगी रणचंडी
साथ लेकर कटार तो
महादेव का सिर पर
हाथ भी होगा।

बीत गया जो वक्त छोड़कर
फिर से उसका आगाज होगा।

रुलाते थे जो
इश्क के लिए दिन-रात हमें
मोहब्बत पर हमारी
उनको भी नाज होगा।

छोड़ गया जो हर रिश्ता
मुख मोड़ कर
उनका ह्रदय भी
मिलने के लिए बेकरार होगा।

आएगा नया युग
दौड़ेगे हम पांव में धूल लिए।

हर मंजिल पर
हमारा पाँव होगा।


                                          राजीव डोगरा


*बस अभी जगा हूँ*



*बस अभी जगा हूँ , सपनो के भवर जाल से,*
*कदम अभी चले है,जो फॅसे थे मकड़जाल में,*

*मन की जकड़न ने भी अभी अंगड़ाई ली है।*
*पैरो की बेड़ियों ने भी अभी पैरो को रिहाई दी है।।*

*ह्रदय की धड़कन ने भी तोड़े है अब भय के जाले,*
*मंजिल मिले ना मिले अब कदम नही रुकने वाले,*

*माना राह के काँटो ने पैरो को कई बार छला है।*
*ठोकर खाते पैरो ने खुद को पत्थर सा बुना है।।*

*सम्मान पाने के लिये झूठ से समझौते किये थे मैंने,*
*अब सच्चाई से जियूँगा ये वादा खुद से किया है मैंने,*


                                नीरज त्यागी

नूतन वर्ष

स्वागतम्
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कुदरत ने रंग दिखाया |
प्यारा नूतन वर्ष आया ||

फैल गयी घर-घर में, 
स्नेह-मुहब्बत की लहर |
छाई उमंग हर गाँव-शहर ||

महक रहे सरसों जैसे मन |
चहक रहे जन-जन के तन ||

नये साल में अच्छाई का 
हम सब मिलके प्रण करें |
निबलों-विकलों के दु:ख हरें ||

मजबूत बने विश्वास हमारा |
मिले खुशिओं भरा पिटारा ||

राष्ट्र हमारा नित करे विकास 
निश्चय हर दिन हो त्यौहार |
मधुर रहे आपसी व्यवहार ||

आओ सब साथी गले मिलें |
मिलकर मंजिल की ओर चलें ||

स्वागतम् नूतन वर्ष तुम्हारा, 
सुख-शांति सद् भावना |
लेकर हर घर में आना ||

                                  - मुकेश कुमार ऋषि वर्मा 


विदाई



           कन्यादान हुआ जब पूरा
                      आया समय विदाई का
         खुशी-खुशी सब काम किया था
                     सारी रस्म अदाई का
         अश्रुपूरित भीगे नयनों से
                     बिटिया ने जब पूछ लिया
         क्या मैं अशं नहीं आपका
                      जो मुझे छोड़ दिया
          मैं हूँ आंगन की फुलवारी
                      पापा ने सदा कहा मुझे
          पलभर भी मेरे रोने को
                       कभी नहीं सहा तुमने
          इस घर के कोने में अब
                       मेरा कोई स्थान नहीं
          मेरे फूट फूट कर रोने का
                       जैसे पापा को भान नहीं
          अंतिम बार घर की देहरी
                        क्यों मुझसे पुजवाते हो
           आकर इन लोगों को पापा
                       आप नहीं धमकाते हो
           चाचा , ताऊ नहीं रोकते
                       भैया से भी आस नहीं
           क्या गुनाह कर दिया बेटी होने का
                       क्यों आता कोई पास नहीं
            प्यारी बिटिया की बाते सुनकर
                      पिता नहीं रह सका खड़ा 
            झरने लगे नयनों से अश्रु
                      बहदवास सा दौड़ पड़ा
           मां को लगा कोई गोद से
                      सब कुछ जैसे छिन चला
           फुलवारी से फुल सभी
                      चुपके से कोई बिन चला
            बिटिया के जाने पर
                       जैसे घर भी बेसुध हो रहा
             कभी न रोने वाला बाप
                       आज फूट फूट कर रो रहा

                                                        - चंचल महावर


प्यारे मत भूलना मां-बाप को



मत भूलना मां-बाप को, इन्होंने यह जग दिखाया ।
मत दूखाना इनके दिल को, इन्होंने आज योग्य बनाया ।।

लेना नित दिन शुभाशीष इनकी, प्रगति पथ न रुकेगा ।
देना प्यार सच्चे दिल से, खुशियों से सदा अंगना महकेगा ।।

मंदिर में पत्थर मूर्ती के आगे सिर झुकाते हो ।
आजकल पत्थर दिल बनकर मां-बाप को ठुकराते हो ।।

फिर गीत रामायण, और गीता को गाते हो ।
गंगा यमुना नहाने में, भी लाखों लगाते हो ।।


यज्ञ हवन अर पूजा पाठ, लाख यत्न तुम करते हो ।
दिल दुखाके आसूंओ से, मां-बाप की आंख भरते हो ।।

इन धन दौलत से, तुम सब कुछ खरीद कर ला सकोगे ।
पर धन दौलत से मां-बाप अपने न दुबारा ना पाओगे ।।

मां-बाप को खुदा-भगवान, मानकर सेवा तुम करलो ।
इनके अनगिनत आशीर्वादों से, दुआओं की झोली भरलो ।।

मां-बाप को भूलकर भी, ना कभी ठुकराइये ।
"रावत" इनके अनमोल आशीर्वाद दुआएं पाइये ।।


                                      - सूबेदार रावत गर्ग उण्डू 


मैं स्त्री

मैं (स्त्री) क्या हूँ


मैं काली दुर्गा सीता हूँ , मैं ही रामायण गीता हूँ I
मैं वीरो की भी गाथा हूँ , मैं ही भारत माता हूI
अश्वमेध का यज्ञ हूँ मै , यथा तथा सर्वज्ञ हूँ मैं I
संपूर्ण जगत की जननी हूँ , मैं तनया भार्या भगिनी हूँ I
मर्यादा और सम्मान हूँ मैं, दो परिवारों का अभिमान हूँ मैं I
मैं रानी लक्ष्मीबाई हूँ , वीरों को जानती माई हूँ I
मैं दुष्टों की संघारक हूँ , मैं पाल्यों की भी पालक हूँ I
मैं ही पहली अध्यापक हूँ , मैं सीमित भी हु व्यापक हूँ I
गंगा की बहती धारा हूँ , मैं रूप प्रकृति का प्यारा हूँ I
मैं सारे तीरथ धाम हूँ  , मैं सूर्य हूँ मै शाम हूँ I
मैं अलखनंद की ज्वाला हूँ , मैं हिम की पर्वतमाला हूँ I
मैं आदि अन्त आरम्भ हूँ , हर पृष्ठ का प्रारंभ हूँ I
मैं देवनागरी भाषा हूँ , मैं ग्रंथों की परिभाषा हूँ I
मैं लय ताल संगीत हूँ , मैं रति प्रेम के गीत हूँ I
इतिहासों का गुणगान हूँ मैं , खुद में विस्तृत नाम हूँ मैं I
मैं बिना बंधी से वेणी हूँ , मैं स्वमिर्भर एक गृहणी हूँ i
मैं ना अबला बेचारी हूँ , मैं एक अनेक पे भारी हूँ I
मैं काली दुर्गा सीता हूँ , मैं ही रामायण गीता हूँ I
मैं वीरो की भी गाथा हूँ , मैं ही भारत माता हूँ I
मैं ही भारत माता हूँ II

                                आंशिकी त्रिपाठी 'अंशी'

देवी मां तुम आ जाना



नन्ही बेटी कहती है
उम्र से ज्यादा सहती है
करके मासूमों का शिकार
दरिंदे नहीं ले रहे डकार
उसकी लाज बचा जाना
देवी मां तुम आ जाना


वह रोती है बिलखती है
फिर खुद को ही चुप करती है
सामाजिक बंधन से वो तो
रोज ही तिल तिल मरती है
उसका दर्द मिटा जाना
देवी मां तुम आ जाना


तुम तो शिव की शिवानी माता
जग की जननी जग की दाता
पालन पोषण करने वाली
जीवन हमको देने वाली
रक्षा का भी भार उठा जाना
देवी मां तुम आ जाना


रक्तबीज का रक्त पिया था
महिषासुर का शीश लिया था
भक्तों को तुम तारने वाली
तुम ही भवानी तुम ही काली
कलयुग में भी खौफ बता जाना
देवी मां तुम आ जाना

                                             ✍️नीलेश मालवीय "नीलकंठ"

मजदूर



भोर से ही काम मे रत हो रहे मजदूर ।
साँझ को थक हार घर को लौटते मजदूर ।
ध्येय है पैसा कमाना ,पेट की है मांग ।
बेइमानी ना करें पर ,सत्य निष्ठा लांघ ।।

बोझ कांधो पर चढ़ा है ,पालते परिवार ।
फावड़ा ले हाथ करता ,कर्म हेतु प्रहार।
बांध नदियों पर बनाते ,श्रम करें भरपूर ।
तोड़ते हैं पत्थरों को ,रात दिन मजदूर ।।

चीथड़े तन पर लपेटे ,कर्म में तल्लीन ।
जूझते मजबूरियों से ,लोग कहते दीन ।
है बना उनका बसेरा ,ये खुला आकाश ।
एक दिन किस्मत खुलेगी ,मन भरा विश्वास ।।

                                               रीना गोयल


माँ ही धर्म है।

माँ सबसे अनमोल है। 
माँ के प्यार का ना कोई तोल है।

माँ सहनशीलता की मूर्ती है। 
माँ ज्ञान का भंडार है। 

माँ ही मेरी किताब है और 
माँ ही मेरा ज्ञान है। 
माँ ही धर्म है। 
माँ ही मेरा आवाम है। 

माँ ही मेरा संगीत है। 
माँ ही मेरी आवाज़ है। 
माँ बिना ये जिंदगी बेआवाज़ है। 

माँ बिना ये संसार मुझे सूना सा लगता है। 
माँ मुझे तेरी गोद में सोना बहुत अच्छा लगता है। 

                                               मनन तिवारी

ठुमरी की रौनक




ह्रदय की मधुर अनुभूतियों को भावनाओं से सराबोर करके दीपचंदी की दलखाती लय में जो गीत गाए जाते हैं, उन्हें हम ठुमरी कहते हैं। 19वीं शताब्दी में ठुमरी गायक-गायिकाओं को समाज में सम्मान नहीं मिलता था।  वे लोग निम्नकोटि के कहे जाते थे।  धीरे-धीरे समय बदला और अच्छे-अच्छे गायक भी ठुमरी शैली को अपनाने लगे। उत्तर प्रदेश के लखनऊ और बनारस के कुशल गायकों ने ही इस गायकी का प्रचार किया।  इसमें प्रेयसी की व्याकुलता या विरह वेदना का वर्णनं ही अधिक पाया जाता है। पुराने गायक गाते समय चेहरे के हाव-भाव का स्थान स्वरों की मंजुल मुरकियों ने ले लिया है। ठुमरियाँ मिश्र रागों में गाई जाती हैं व मधुर लगती हैं।  लोक और शास्त्रीय संगीत के कई प्रकार के मिश्रण करके इसे उपशास्त्रीय संगीत के वर्ग में रखा जाता है।  वाजिद अली शाह ने एक ठुमरी रची थी ,जो श्रोताओं के मन को बहुत प्रिय थी , जिसमें नवाब के अपने राज्य से बिछड़ने का दर्द छिपा था -

"बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय ,
चार कहार मिल, मोरी डोलिया उठाए,
मोरे अपना बेगाना छूटो ही जाय ,
अंगना तो परबत भाए ,देहली भई बिदेस ,
जे बाबुल घर आपनो , मैं चली पिया के देस। "


अर्थात -हे पिता, मैं अनिच्छा से अपने घर से जा रही हूँ। चार आदमी मेरी पालकी उठाने के लिए एकत्र हो गए हैं तथा अब मेरे प्रियजन अजनबी हो जाएँगे।  जैसे ही , मैं अपने पिता का घर छोड़कर अपने पति के देश जाऊँगी ,मेरे घर का प्रवेश मार्ग ही मेरे लिए दुर्गम हो जाएगा।

ठुमरी के मुख्यतः तीन अंग हैं - पूर्वी ,पहाड़ी और पंजाबी। पूर्वी अंग की ठुमरी में बोलबनाव का काम प्रमुख होता है।  विभिन्न भावों की अभिव्यक्ति एक ही शब्द के माध्यम से अनेक बिदरियों के आधार पर की जाती है।  पूर्वी शैली उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग ,ब्रज ,बिहार ,मध्य प्रदेश ,गुजरात ,राजस्थान तथा महाराष्ट्र आदि प्रदेशों में प्रचलित है। पहाड़ी शैली लखनऊ ,मुरादाबाद,सहारनपुर,मेरठ और दिल्ली में प्रचलित रही है। इसमें कोमलता और लोच काम दिखाई देती है। पंजाबी अंग अपेक्षाकृत नई है। इसका सम्बन्ध पंजाब के बरकत अली खान ,बड़े ग़ुलाम अली तथा नज़ाकत-सलामत अली से माना जाता है। पंजाबी अंग की ठुमरी में बोलबनाव के साथ-साथ छोटी-छोटी तानों ,बोल-तानों ,खटके ,मुरकी तथा जमजमा आदि का प्रयोग भी प्रचुरता एवं कुशलता के साथ किया जाता है।

वर्तमान समय में ठुमरी इतनी प्रचलित हो गई है कि ख्याल की गंभीर आलापचारी और बोलतान आदि को छोड़कर या कम करके उसमें भी ठुमरी के ढंग का द्रुत और मध्य ले का काम किया जाने लगा है। परिणामस्वरूप ख्याल और ठुमरी दोनों का रूप अपने शुद्ध अवस्था को बनाए रखने में समर्थ सा प्रतीत होने लगा है।

सलिल सरोज
कार्यकारी अधिकारी

22 December 2019

काजल और कैंसर का अज़ीब रिश्ता..!

नमस्कार मित्रों आज हम आपको एक ऐसे शख्स से मिलाएंगे, जिनका पूरा परिवार पूरी जिंदगी कैंसर से लड़ता रहा है। आखिर इनके परिवार के साथ ऐसा क्या हुआ, जो हमेशा कैंसर से लड़ता रहा ? क्या कैंसर का इनके परिवार के साथ कोई रिश्ता था ? या फिर यह एक विंडबना थी ? 




एक पंजाबी मिडिल क्लास परिवार जो देश की राजधानी दिल्ली में सन्- 1975 में आया। जब पूरे देश में आपातकाल जैसी स्थिति बनी हुई थी। हर कोई देश की चिंता में डूबा हुआ था। मगर धीरे-धीरे देश के हालात अच्छे हो रहे थे। हाँ सभी देशवासियों को संघर्ष करना पड़ रहा था। संघर्ष ही जिंदगी की सबसे बड़ी सफलता है। आज जिस पंजाबी परिवार की दास्तां हम आपको बताने जा रहे हैं, वह एक सरकारी अधिकारी की दास्तां है। यह दास्तां है, उस बाप की जिसने अपने आंखों के सामने अपनी धर्म पत्नी, बेटी और बेटे को कैंसर से लड़ते और जुझते देखा हो। जरा अंदाजा लगाइए उस व्यक्ति की आत्मा पर क्या बीत रही होगी ? कल्पना करना उतना ही कठिन है, जितना रेगिस्तान में पानी खोज निकाल कर पीना।



यह दास्तां मुझे उस बाप की उस बेटी ने साझा की है, जो खुद कैंसर से आज तक लड़ रही है। जिनका नाम कालज पल्ली है। काजल हमें बताती है, कि उन्होंने दिल्ली में केंद्रीय विद्यालय से इंटरमीडिएड की पढ़ाई पूरी करने के बाद 1995 में बी कॉम की पढ़ाई पूरी कर इंजीनियरिंग की। इस दौरान 2-3 महीने काजल ने शेयर मार्केट में नौकरी भी की। एक दिन कॉलेज में सीनियर छात्रों से मुलाकात के दौरान काजल गिर गई। काजल बताती है- अक्सर उसके पेट में दर्द रहता था और खाना नहीं खाया जाता था। यह बात काजल ने अपने परिवार वालों से छुपाई। इसलिए छुपाई कही परिवार वाले इस गलत ना समझ लें। घर वाले मुझसे क्या बोलेंगे ? आप जानते हैं, हमारे समाज में आज भी कई बच्चे अपनी बात अपने परिवार वालों को नहीं बता पाते हैं। जिसके पीछे कई कारण हो सकते हैं। हमारे समाज को इन कारणों को दूर करने की जरूरत है। जिससे कई सारी चीजों पर रोक लगाई जा सकती है। 




काजल बताती है- एक दिन मम्मी के साथ कहीं बाहर गई थी, तो मैं अचानक जमीन पर गिर गई और बेहोश हो गई। जिसके बाद मम्मी मुझे दिल्ली के सरोज नगर के एक अस्पताल में ले गई। जहां डॉक्टरों ने बिना टेस्ट किए ही मेरी मम्मी को अकेले में ले जाकर बता दिया, और जल्द से जल्द सर्जरी की बात बोल दी। अस्पताल जाते समय हम डीटीसी बस से गए, मगर घर आते समय मम्मी ने ऑटो कर लिया। मुझे कुछ-कुछ समझ में आने लगा, पर अभी तक मम्मी ने मुझे नहीं बताया था। घर पहुंचते ही सभी लोग आपस में एक-दूसरे को देखकर रोने लगें। जब मुझे पता चला, तो मैं तीन दिनों तक खमोश थी। मगर मैंने सोच लिया, अगर मरना ही है, तो कुछ करके ही मंरूगी। बहुत रोई…! बहुत रोई..! अपने आप को समझाने में लगी- आपने आप से बोलने लगी- लड़ना है, लड़ूगी मगर हार नहीं मानूंगी। जब मैंने काजल के मुंह से ये शब्द सुने तो मेरे हाथों से कलम अपने आप ही गिर गई और मैं स्तम्भ हो बैठा..! 


आगे काजल बताती है कि 30 नवम्बर 1995 को उसकी पहली कैंसर सर्जरी हुई। काजल को पेट में कैंसर था, जो खतरनाक कैंसरों की श्रेणी में आता हैं। सन् 1995 में किसी परिवार के सदस्य को कैंसर होना और उससे लड़ाना वाकई में जिंदगी का सबसे खतरनाक मोड़ ही होगा। कैंसर जैसे बीमारी का इलाज कराना एक माध्यम वर्ग परिवार के लिए कितना मुश्किल होगा, यह आप सोच भी नहीं सकते है। 1995 में कैंसर का इलाज आज के मुकाबले बहुत ही महंगा और कठिन था। 


जब आप किसी बीमारी से लड़ रहे हो, तो आपको क्या करना चाहिए ? काजल बताती है- लोगों से ज्यादा बात ना करें, ज्यादा सोचें नहीं, अपनी समस्या डॉक्टर को खुलकर बताएं, चिंता ना करें, परिवार का मनोबल बढ़ाएं, हंसी-मजाक करें आदि।


आगे काजल बताती है- मार्च 1996 में उन्होंने कैंसर की सर्जरी से उभरकर नौकरी शुरु की। धीरे-धीरे उनका जीवन सामान्य होने लगा। परिवार के हालात भी बेहतर होने लगें। परंतु इस दौरान काजल का छोटा भाई नशे व बुरी लतों की शिकार बन गया। जिसे आप पूरे परिवार का ध्यान काजल के कैंसर की ओर होना भी कह सकते है। परिवार की आर्थिक स्थिति के चलते पिता भी अब शराब पीने लग गए। हां…! धीरे-धीरे सब सामान्य हो रहा था। सन् 1997 पूरे परिवार के लिए सामान्य रहा। जब 1998 में मेरा दोबारा टेस्ट किया गया, तो पता चला मुझे एक और कैंसर हो गया है। यह सुनते ही मेरा पूरा परिवार उम्मीदों से टूट गया। 


मेरी तबियत धीरे-धीरे खराब होने लगी। इतनी खराब हो गई कि सभी लोग मेरी मौत की प्रार्थना करने लगें। हे ईश्वर इसे मौत दे दें। मैं कई महीनों तक व्हीलचेयर में रही। इतना ही नहीं मेरे जीवन का बहुत लंबा समय कोमा में बीता। मगर मैंने कभी हार नहीं मानी और लड़ती रही। मेरे परिवार में हम 5 लोग थे- पापा, मम्मी, भाई, बहन और मैं। काजल कहती है- जीवन सर्फ ‘आज’ है। जो तुम्हारे पास आज है, वह कल नहीं होगा। इसलिए आज को सही और बेहतर तरीके से जिएं। 


सन्-2000 में पूरा विश्व एक नई सदी में प्रवेश कर चुका था। समय धीरे-धीरे बदल रहा था। मेरी तबियत में भी कछुवें की गति से सुधार हो रहा था। तभी दुर्गा प्रसाद नाम के व्यक्ति ने मुझे से शादी करने का फैसला किया। मगर मेरे परिवार वालों ने उससे मना कर दिया और बोला आप पागल तो नहीं है। आप जानते हो क्या कर रहे हैं ? मगर उसने मेरे परिवार वालों से बोल मुझे इससे ही शादी करनी है। मेरे परिवार वालों ने दुर्गा प्रसाद जी को विचार विमर्श करने के लिए बोला था। दुर्गा प्रसाद जी ने अपना फैसला सुनाते हुए अक्टूबर-2000 में मेरे से शादी कर ली। मेरे पति ने जब मेरे से शादी की ना कोई देहज लिया ना ही कोई पैसा। दुर्गा प्रसाद जी ने एक ही बात बोली- यह लड़की मुझे कभी धोखा व छोड़कर नहीं जा सकती है।


आगे काजल बताती है- साल 2001 में मेरी माँ को कैंसर हो गया। जिसने मुझे कैंसर से लड़ते देखा। जो मजबूती से मेरे साथ खड़ी थी। अब वह खुद ही कैंसर की पीड़ित बन गई। मेरी माँ 2001 से मार्च 2004 तक कैंसर से लड़ती रही। जिसके बाद उसने दम तोड़ दिया। हमें पापा, भाई, बहन व मुझे छोड़कर चल गई। जो मेरे परिवार के लिए सबसे बड़ा झटका था। इस पीड़ा से मेरा परिवार भरा भी नहीं था, कि पता चला-2005 में मेरे भाई को भी कैंसर हो गया। हां मैं आपको बताना चाहती हूं, मुझे, मेरी माँ, मेरे भाई तीनों को अलग-अलग कैंसर था। यानि यह को पारिवारिक बीमारी भी नहीं थी।





हां..! मुझे याद हैं मेरी नानी, मामा, मौसा को भी कैंसर हुआ था। जब मेरे परिवार यानि मेरे पिता को पता चला कि भाई को कैंसर है, तो मेरे पापा पूरी तरह से टूट गए। 2005 में ही मेरे पापा सरकारी नौकरी से रिटायर हुए। जिससे परिवार की आर्थिक स्थित और बिगड़ गई। पापा ने भाई के लिए घर से लेकर सब कुछ बेच दिया। 2005 से लेकर 2013 तक मेरा भाई कैंसर से लड़ता-जूझता रहा। 2013 में भाई ने हार मान ली और हमें छोड़कर मम्मी के पास चला गया। जो माँ, भाई मेरे परिवार के साथ मेरी मौत की प्रार्थना करते थे, आज मैंने उनको मौत के मुंह में समाते देखा। जिस माँ ने मेरा हौसला बढ़ाया, जिस भाई ने मेरे लिए आंसू बहाएं, आज वहीं लोग मेरे साथ नहीं हैं। जिंदगी सिर्फ आज है, जिंदगी सिर्फ आज है। यहां कोई किसी के लिए जीता-मरता नहीं, बल्कि सिर्फ दुख को कम कर सकता है। मैं आप सभी से यहीं कहना चाहूंगी- आप सभी अपने पैरों पर खड़े हो, जिंदगी कब पासा पलट ले किसी को नहीं पता।    
  

आपको बता दें- वर्तमान में काजल का 13 साल का एक बेटा है। जो सामान्य, हेल्दी और स्वस्थ है। काजल की छोटी बहन की भी शादी हो गई है। जिसका भी अपना परिवार है। हां वो बदकिस्मत बाप भी जिंदा है, जिसने अपनी पत्नी और बेटे को मौत के मुंह में जाते देखा है। इस पूरे साक्षात्कार के दौरान मैंने जिंदगी का एक नया अनुभव महसूस किया, जो शायद ही आपको कोई शिक्षा प्रदान कर सकती है। 


हां..! इस साक्षात्कार के कुछ अंश मैं आप लोगों तक पहुंचे में कामयाब रहा। मैं अपनी कलम और काजल जी के हौसलें को सलाम करना चाहता हूं, जिन्होंने मुझे बार-बार इस अंश को आप लोग तक पहुंचने में मदद की। अगर काजल जी का हौंसला मेरे कलम के साथ नहीं होती, तो शायद ही मेरा साहस इस अंश को लिख पाता। 


                                                        संपादक-  दीपक कोहली