साहित्य चक्र

15 June 2019

पत्थर के शहर

ग्लोबल वार्मिंग 

मानव कुछ नहीं समझ रहा है,
काट  हरे भरे पेड़ काट रहा है।
पत्थर के शहर बना रहा है,
जीना  अपना दूभर कर रहा है।
जब गर्मी बढ़ती है तो कहते है,
हाय पेड़ क्यों नहीं लगाए,
पानी क्यों  नहीं बचाया,
धरती का पारा बढ़ रहा है।
मानव उसमे झुलस रहा है,
फिर भी हम पेड़ न लगाएंगे,
ईंट पत्थरों का घर बनायेंगे।
फिर क्यो हम भगवान को कोसते हैं,
भगवान कुछ नहीं कर रहा है।
जो कर रहे हैं हम कर रहे हैं,
कहीं बाढ़ तो कहीं सुनामी आयेगी,
प्रकृति से खिलवाड़ किया तो वो हमें सतायेगी।
एसी जरूरी है, पेड़ नहीं,
गाड़ी जरूरी है, हवा नहीं।
सबको दोष दे देंगे,
अपना दोष दिखाई नहीं देगा।


                                गरिमा


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