साहित्य चक्र

16 June 2019

“बाल श्रम और मैं”


“मैं खुश थीं
मेरा बच्चा जहां जन्मा
वहां खुली सांस लेने की पूरी आजादी थी
कोई दहशत की रातें न थी
कोई बुरे खबरों के जैसे हालात न थें
मैं खुश थीं
मेरा बच्चा अपनी नीदों में सपने बुन रहा हैं
चन्दा मामा को बुला
दूध –भात खा रहा हैं
ज्जबातों में उसके गुड्डे –गुड़ियों का खेल हैं
शक्तिमान बन आसमां में उड़ने का मन हैं
बारिश की बूंदें छप छपा रहा हैं
किन्तु!
कहीं कोई पीछे से उसे तांक रहा हैं
अपने सपनों को पूरा करने के लिए
कोई हवस मिटाने के लिए
तो कोई मजदूरी करवाने के लिए
तो कोई पैसों के लिए बेच देने का ऐलान कर रहा हैं
मैं इन बातों से अनजान
ममता का गीत गा रही हूं
और वह अपनी आंखों से दहशत फैला रहा हैं
तो कभी लालच दे रहा हैं
और मेरी ममता भी उस मासूमियत पर हंस रही हैं
तो कभी सपने देख रही हैं ..
मेरी ममता भी शायद गरीबी में कहीं दब गई हैं
आज मेरा बच्चा /बच्ची
मजदूरी कर रहा और मैं !
अज्ञानी की भांति गौरवान्वित हो रही हूं
आज आसमां का चांद भी टूटा हुआ हैं मुझे देख कर
और मैं ‘मैं’ हूं या वहीं मासूम बच्चा/बच्ची
इस पर खुद से सवाल कर निः शब्द हो खुश हूं ।।"

रेशमा त्रिपाठी


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