साहित्य चक्र

05 June 2019

हर पल नयी हूंकार भर




चिंगारीयां समेट मन की, बुझती इस राख से
मशाल बनकर तू जलेगी, बस जरा विस्वास भर।

कर्तव्य की तू भूमि है ,कर्तव्य से जरा न डर
बयार बनकर तू बहेगी ,फिर से लम्बी श्वॉस भर।

दसों दिशा से चल रहीं, रूढ़ियों की आँधियां
किंतु तुम बुझने न दो, उम्मीद का  अपने दिया

तुझमें वो सामर्थ्य है, जो बदल इतिहास दे
शक्ति का परिचय है तू ,इस बात का एहसास दे

रात को मालूम नहीं है, सूर्य का तू तेज है
उम्मीद कि किरण है तू, स्वयं में ये आस भर।

  तू ही तेरा चरित्र है, व्यक्तित्व तेरा तू ही है
बेड़ियों को काट अपनी,आ नया आकाश भर ।

हर युग में तू है दे चुकी,परिक्षाएं अनन्त हैं
आज में ये खास है कि,आज सबका अंत है

उठा हथेली आज तू इंकलाब के लिए
सैकड़ों मस्तक झूकेंगें,आफताब के लिए

देश की गरिमा बढ़ा,नारी जनम की लाज रख
मन से मिटा डर के अंधेरे,हर पल नयी एक आस भर।

काट दे वो हाथ नारी, जो भी तुझ पर अब उठे
सोचना गिरने की तू, हर पल नयी हूंकार भर!

                                  कंचन तिवारी 'कशिश'



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