कभी देखना
मेरी नज़र से
उन अँधेरे-बंद
कमरों को
जहाँ तुम
मुझे कैद करते हो
मेरे स्तनों को
रौंदते हो
मेरी योनि को
चीरते हो
और
अपनी मर्दानगी का
दम्भ भरते हो।
कभी करना
महसूस
उन घावों को
जो मैंने
अपने अधिकार माँगने
और तुम्हारे न दिए जाने
के संघर्ष में बने
वो घाव जब निर्वस्त्र
होकर तुम्हारे जाँघों
के नीचे दबते हैं
तो बहुत चीखते हैं
चिंघाड़ते है
और फिर नासूड़
बन जाते हैं।
कभी सूँघना
मेरी जिस्म को
जो फूल होता है
तुम्हारे मर्दन से पहले
जब तुम्हारी
क्रूर भुजाओं में
मसला जाता है
तो सड़े हुए
पानी की तरह ही
बदबू देता है
कभी घुसना
मेरे वस्त्रों में
ब्लाउज़ और पेटीकोट में
तुम्हारी नसें फट जाएँगी
वहाँ सिर्फ कुछ अंग नहीं
शर्म,सम्मान और पीड़ा
सब छिपा रहता है
जिसे तुम रोज़
कभी रात,कभी दिन
तो कभी
भारी दोपहर
उघेड़ दिया करते हो
कभी बनो
तुम भी किसी दिन
स्त्री,नारी,महिला
और सहो
पुरुष,समाज,दुनिया के
खोखली आदर्श
थोड़ा घुटो
थोड़ा तड़पो
थोड़ा सिसको
और थोड़ा
रोज़ ही मारो
और फिर
कोशिश करना
दाँत निपोर कर
कहने कि
वो
"बस औरत ही तो है"।
।।सलिल सरोज।।
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