साहित्य चक्र

25 May 2019

जाने की है तमन्ना


शहर में हम ढूंढ रहे, एक नया आशियाँ।
वो गाँव अब मन का नही,जिस गाँव ने बड़ा किया।।

होती थी जहाँ बैठकें, पीपल की छाँव में।
गाती थी गीत औरतें हर एक काम में।।

चाचा का मन में खौफ़ था, पापा की डाट थी।
हर एक के मन में बसी, बस एक बात थी।।

कि नाम अपने गाँव का, रौशन करेंगे हम।
होकर बड़े इस गाँव का, काया करेंगे कल्प।।

पर क्या करें अब भा रहा है, शहर वो मुझे।
अपनी तरफ बुला रहा है,शहर वो मुझे।।

सपनों में पँख मैं लगा दूँ, कह रहा है वो।
तुमको गगन में मैं उड़ा दूँ, कह रहा है वो।

वो कह रहा है आओ, मैं शोहरत तुम्हे दूँगा।
सम्मान दूँगा साथ में दौलत  तुम्हे दूँगा।।

पर मन मेरा अब मुझसे ही, यह प्रश्न कर रहा।
कि गाँव जैसा है सुकून,  शहर में कहाँ।।

तुमको कहाँ मिलेगी, वह छाँव नीम की।
पेड़ के नीचे की, वह नींद खाट की।।

जाने की है तमन्ना, तो जाओ शहर में।
जब ऊब जाना, लौट आना इसी चमन में।।

                                            रवि 'विद्यार्थी'


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