भूल भुलैया में भटक गया मैं, कभी इधर गया कभी उधर गया मैं, मुआ तमंचा छुपाने के चक्कर में शर्ट भी उतार कर फेंक दिया था। फिर भी अपना कमरा ढूंढ नहीं पाया। मकान मालिक का नाम भी भूल गया था।
हुआ यूं कि, इस बार काफी विलम्ब से साइड की ओर गया था। मैं क्या करूं उस गांव में उल्टा घुसा था। लेंड़े के कमरे में पहले रहता था, अब टेंम्भरे के कमरे में जाना था। वहां दो - चार दिन रुकने के बाद घर लौट आया था, मुआ काम ही ऐसा था।
हां तो हम नीचे धोती का तहमक लगाया हुआ था। ऊपर बनियान, बनियान के ऊपर फुल शर्ट पहन रखा था। पता नहीं जिंदगी में कभी भी तमंचा का इस्तेमाल नहीं किया था मैंने! वैसे गांव मेरा तमंचा का शौकीन था, तमंचा वालों का सम्मान भी बहुत होता था।
मेरे पास ट्रेन में बैठने के बाद मिला था तमंचा, पता नहीं कब, क्यों आया था यह मेरे पास, क्या पता बस में किसी ने दिया यह भी मालूम नहीं। मुझे रोना आ रहा था, फिर भी रो नहीं पा रहा था। तमंचा जो मेरे क्षेत्र का गुरूर, मेरे क्षेत्र की पहचान हुआ करता है; खुशी या गम के बीच मुझे झुला रहा था, मैं न हंस पा रहा था न रो पा रहा था। बड़ी अजीब स्थिति थी मेरी!
नीचे तहमक की मुर्री ढीली पड़ गई थी। मुआ 'मरता क्या ना करता' तमंचा अब गिरा तब गिरा की स्थिति पैदा हो गई थी। मैंने मुर्री कसकर पकड़ ली थी। तमंचा मेरे लिए मुसीबत बन गया था। पता नहीं यह मेरे गांव की पहचान क्यों बना बैठा है?
भारी डर थी कि, यह जरा भी किसी की जानकारी में आया तो मुसीबत खड़ी हो जाएगी। यह चलता है कि, नहीं चलता है, फिर चलता है तो कैसे चलाया जाता है यह भी मुझे पता नहीं है। सबसे बड़ा सवाल यह मेरे पास आया कैसे?
पसीना - पसीना हो गया था। तमंचा आफत गले पड़ी थी। किसी को पता चला तो मोबाइल का जमाना है मैं जान नहीं पाऊंगा पुलिस आकर मुझे ले जाएगी, यहां मेरी जमानत कौन लेगा? मैं भारी असहाय अपने-आपको मान रहा था।
मुर्री ढीली हो गई थी कसकर पकड़ रखा था, अब उसे कैसे कसूं! इस मुसीबत तमंचे को कैसे, कहां छुपाऊं! पसीना से तरबतर शर्ट की बटन जाने कैसे खोल दिया था मैंने! तुरकरे के घर से होकर बार बार निकलना मेरे लिए बहुत शर्मिंदगी की बात थी।
मुझे पूरब, पश्चिम लग रहा था, उत्तर, दक्षिण लग रहा था। क्या पता भुलना चारा लांघ गया था या मैं खुद क्या हो गया था। एक बुजुर्ग से पूछा, क्योंकि वर्तमान कमरा के मालिक का नाम एकदम से भूल गया था; बार बार दिमाग पर जोर लगा रहा था, दिमाग होता तो काम करता वह तो नोटों के साथ गैस लेने चला गया था।
मुआ तमंचा छुपाने के चक्कर में मेरी तो हालत खस्ता हो रही थी। मैं उसे कसकर पकड़ लिया था, कभी उसकी नाल, कभी उसकी मूठ बाहर निकलने के लिए जिद कर रहे थे।
मैंने उस बुजुर्ग से पूछा, बताना भूल गया आपसे, मैंने दिमाग को दबाकर, जोर लगाकर पूछा, 'दादा जी, मेरा कमरा कहां है बता दो मैं, मकान मालिक का नाम भूल गया हूं, पुराने मकान मालिक लेंडे जी थे, वहीं पहुंच जाऊं ऐसा कर दो!'
बुड्ढा भड़क गया शायद उसका लेंडे का छत्तीस का आंकड़ा था। उसने अपनी बुढ़िया को बुलाया कहा, "इनको कमरा दिखा दो!"
यह तमंचा अब बार बार निकलना चाहता था, कभी इधर कभी उधर झांकने लगा था। अब मैं तहमक को इकट्ठा करके तमंचा की नाल सहित कसकर पकड़ लिया था; ऐसा पकड़कर कर रखा था कि, मेरा हाथ भी दर्द करने लगा था।
इससे पहले कि, वह बुढ़िया मुझे कमरा दिखाती तब तक मैं भागने के जुगाड़ लगा रहा था। इधर यह तमंचा आड़े आ रहा था।
मैंने कहा, "मुझे मेरे कैंप का रास्ता बता दो! कैंप ही पहुंचा दो!"
वह लोग तो कमरा देने के मूड में थे। एक शायद उनका विरोधी रहा होगा, उसने मुझे कैंप का रास्ता इशारा से बताया। मैं उधर चला कि, बुढ़िया ने मेरा हाथ पकड़ लिया था। अब तो तमंचा है मेरे पास पोल खुल जाएगी! इस एहसास से ही मैं रुआसा हो गया था; रो भी नहीं सकता था।
मेरा शर्ट उतर चुका था। शाम हो गई थी यह गनीमत थी वरना तमंचा राम के कारण जेल निश्चित थी। जेल की कल्पना से ही मैं पसीने से लथपथ हो गया था। पसीने से भीगा मैं उस दिशा की ओर भागा, जिस दिशा में कैंप बताया गया था।
वहां उस रास्ते में काली गिट्टी बिछी थी। कैंप के रास्ते में पहले तो गिट्टी बिछी नहीं थी। अब मरता क्या न करता लेंडे जी का मकान वहीं कहीं होगा। यह सोच रहा था कि, लेंडे जी की घरवाली वहां से निकली। मैंने पूछा, "मैं जिस कमरे में रहता था, वह कमरा किधर है!"
उसने कहा, "यही तो है, आपका कमरा जहां तुम रहते थे; अब वहां, उधर रहते हो!" सारे कमरों का नक्शा ही बदल गया था। मैं कुछ भी समझ नहीं पा रहा था।
मैं कैंप का रास्ता फिर से पूछा, शाम गहरा चुकी थी। किसी ने जोर से कहा, "यही तो है, कैंप का रास्ता!"
मेरा तमंचा गिरते - गिरते बचा था। मैं पकड़ मजबूत करने ही वाला था कि, मेरी नींद खुल गई!
मैं अपने बिस्तर पर हूं, बड़ी देर तक में विस्वास हुआ! वरना यह तमंचा तो मुसीबत बन गया था। शर्ट भी उतर गया था। तहमक भी ढीला हो गया था।
बिना किसी से बताए मैं नित्य क्रिया करने चल दिया था। वह स्वप्न मैं भुला नहीं पा रहा था।
इस भूल - भुलैया के चक्कर में पड़कर अपना सबकुछ भूलकर भटकता रहा। इस तमंचे के चक्कर में जिसे कभी याद भी नहीं किया था, कितना परेशान हुआ। बाप - पुरुषों की इज्जत जाते - जाते बची वरना जेल जाना होता तो, तो सबकुछ लुटा चुका होता।
नींद नहीं टूटती तो अब तक की जो मेरी हालत होती उसका मैं वर्णन नहीं कर पाता! शुक्र है कि मैं जाग गया; बच गया वरना अब तक तो मेरा क्या हाल होता मैं भी नहीं जानता।
- डॉ. सतीश "बब्बा"

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