मेरी कविताएँ उन आँखों की नमी हैं,
जो बरसना तो चाहती थीं, पर बरस न सकीं।
वे उन होंठों की थरथराहट हैं,
जो कुछ कहना तो चाहती थीं, पर कह न सकीं।
वे दर्द हैं, जो किसी अंधेरी कोठरी में
सिसक-सिसक कर दम तोड़ते रहे,
वे वेदनाएँ हैं, जो चुप्पी की चादर ओढ़े
अंतःकरण में जलती रहीं।
मेरी कविताएँ उन स्त्रियों की पुकार हैं,
जो प्रभु के चरणों तक पहुँचना तो चाहती थीं,
पर जिनकी प्रार्थनाएँ शब्दों में बँध न सकीं।
वे अधूरी विनतियाँ हैं,
जो कंठ में ही घुटकर रह गईं।
ये हर वह आह हैं, जो कभी स्वर न पा सकी,
हर वह सपना हैं, जो आँखों में बुझ गया।
वो चाहतें, जो चातक की तरह बरसो आस लगाये रहीं ,
वे मौन का विद्रोह हैं, पीड़ा की भाषा हैं,
उनके अनकहे शब्दों का प्रकाश हैं।
अब ये कविताएँ उनके मन की प्रतिध्वनि बनकर
हवा में गूँजेंगी,
उनके मौन को एक नई आवाज़ देंगी,
और संसार को सुनाएँगी,
उनकी अनकही कहानी।
- डॉ. प्रतिभा गर्ग
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