यह ना पूछो यारों भीड़ में
तनहाई का आलम क्या था,
तालियों की गूंज में किसी अपने का
ना होने का एहसास कैसा था।
हर किसी को अपने कुंबे के
साथ देखकर हिरासा भी हुई,
तो क्या हुआ गर हमें अपनी
बद-बख़्ती का पहले से पता था।
गैरो ने भी मान लिया की हुनर
हमारा वाह-वाही का हक़दार हैं,
पर अपनो से कद़-ओ-किमत की
तकक्को रखना यह अहमक़ाना था।
बहोत तकलीफ होती हैं
हमें यह देखकर 'नाज़',
कि जब-जब हमसे किसी ने राब्ता किया,
उनके मतलब का कोई काम था।
- डॉ. नाज़िया शेख

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