साहित्य चक्र

19 April 2025

कविता- प्रणय






जिंदगी के उस अगम्य दौर में,
भीड़ में थी जब अकेली कोर में,
तब तुम्हीं बहार बन आए प्रभु
मग्न हुई उसी प्रेम की डोर में।

प्राणय के वो पल मुझसे कभी,
छीन ना ले कोई अब मेरी खुशी,
मग्न हो मद में तुम्हारे प्रेम में,
मैं चली उस ओर जहाँ नदियाँ चली।

ऐ समंदर मैं तुझमें समा जाऊँ,
प्रेम का ये गीत तुम्हें सुना पाऊँ,
फिर ना कोई हार कर पथ में रुके,
हौसले बुलंद कर आगे बढ़े।

वक्त या बेवक्त में जो साथ हो,
कह सकूँ जिसको वो मन की बात हो
दूर तक दिखता नहीं है छोर तो,
क्यों कदम बढ़ते उसी की ओर वो।

चित में सवाल उठे थे तार- तार
मोह में फंसी क्यों मैं बार- बार?
हुजूम में हूँ मैं अकेली जार – जार,
जिसे अपना कह सकूँ मैं आप-आप।

सृष्टि को रचा नहीं प्रभु एक सार
क्यों करते हो उम्मीद मुझसे बार-बार
हालात से गई हूँ मैं जब हार- हार
कैसे बने विचार मेरे एक सार।

ऐ पथिक काँटे हैं पथ में दूर तक,
ये कदम छोटे मगर चलना सतत्
हैं हैरान हर किसी की हार पर,
पर कदम चले बुलंदी राह पर।


                                                            - अमिता सेठिया


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