तैरती इस में अरमानों की कश्ती,
उछलते हैं जो भूल अपनी हस्ती।
पहुँच जाते कुछ पार संघर्ष कर,
उभर नहीं पाते कुछ जीवन भर।
अरमानों का है ये खेल अनोखा,
बफादारी कम ज्यादा है धोखा।
समझ न आये डगर के ये वक्र,
चलता काल कैसे ये सब चक्र।
हो जाते अरमान कई समय की भेंट,
पछतावा रहता नहीं खुलता ये भेद।
किस्मत का ही खेल सब लगता,
कौन उग जाता और कौन है दबता।
अरमानों की फसल के अजब हैं किस्से,
आई कौन सी कश्ती किस के हिस्से।
तैरना है या डूबना है ये वक्त की बात,
मुठ्ठी किसकी भरेगी कौन होगा खाली हाथ।
जो होना है हो कर रहेगा,
न जाने कल जीवन सरिता का रुख क्या रहेगा।
क्यूँ करें कोई गिला या शिकवा,
जब अपनें हाथों में है ही नहीं कुछ यहाँ।
चले चलो, क्यूंकि जीवन सरिता कल-कल बहती,
पल-पल नव पथ चली रहती।
- धर्म चंद धीमान

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