साहित्य चक्र

24 April 2025

कविता- मानवता बेहाल



घर के पीछे आम हो, और द्वार पर नीम
एक वैद्य बन जायगा, दूजा बने हकीम।

पीपल की ममता मिले,औ बरगद की छांव
सपने आएं सगुन के, सुख से सोए गांव।

पेड़ लगा कर कीजिए, धरती का सिंगार
पल-पल देती रहेगी, ममता लाड़ दुलार।

सागर है पहचानता, वन के मन का मोह
हरकारे ये मेघ के , धोते तप्त विछोह।

कुआं चाहिए गांव को, ताल तलैया बाग
जिंदा रहता प्राण में ,है इनसे अनुराग।

पंछी प्यासे न रहें , भूखे रहें न ढोर
कसी जीव से जीव तक, मानवता की डोर।

अगर आदमी चाह ले, मरु को कर दे बाग
धौरे गाने लगेगें , हरियाली का राग।

मत बनने दो प्रगति को, कांधे का बैताल
पूंजीवादी दौड़ में , मानवता बेहाल।

नदियों को बांधो नहीं, काटो नहीं पहाड़।
जीवन के होने लगे, गड़बड़ सभी जुगाड़।

बैठा हुआ मुड़ेर पर, सगुन न बांचे काग
आंगन के मन टीसता, गौरइया का राग।

- ममता शर्मा "अंचल"


No comments:

Post a Comment