साहित्य चक्र

27 April 2025

कविता- घर




बड़ी दूर निकल आया
मैं घर बनाकर घर को ही
घर के हवाले छोड़ आया
बड़ी दूर निकल आयाl

घर के आंगन की मिट्टी में
हरी हरी जो घास उगी थी
कहीँ कहीँ उसमें थोड़े से
रंग बिरंगे फूल खिले थे
अपने ही हाथों से मैं
उन फूलों को तोड़ आया
बड़ी दूर निकल आया
मैं घर बनाकर घर को ही
घर के हवाले छोड़ आयाl

चह चहाती चिड़ियाँ आतीं
सुबह सुबह जो शोर मचाती
मुझको गहरी नींद से जगातीं
थोड़ा बहुत दाना चुगकर
पानी पीकर जो उड़ जातीं
मैं उस पानी के वर्तन को
उल्टा रख कर छोड़ आया
बड़ी दूर निकल आया
मैं घर बनाकर घर को ही
घर के हवाले छोड़ आयाl

पैरों की जब आहट होती
गेट की कुंडी ठन ठन करती
किट्टु कैरी दौड़ी जाती
कोई तो मेहमान है आया
मैं उस गेट की कुंडी को
ताले चाबी से जोड़ आया
बड़ी दूर निकल आया
मैं घर बनाकर घर को ही
घर के हवाले छोड़ आयाl

- जीवन जेके, बिलासपुर


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