साहित्य चक्र

15 April 2025

कविता- क्लाइमेट चेंज




पता है तुम्हें?
धरती क्लाइमेट चेंज से 
गुजर रही है
पूरा ग्लोब उबलने लगा है 
तेरी माटी का मौसम भी
बदलने लगा है 

जानती हो ? 
मृतिका के इस जंगल से 
कितने दरख़्त गायब हैं
कितनी खुशबुएं नदारद हैं 
लताएं गुम हैं कितनी 
कितनी हवाएं हताहत हैं ? 

कि किसी छुअन पर 
रोम अब सिहरते नहीं
बात - बिन बात 
नयन अब विहंसते नहीं
अब नहीं होती चितवन बांकी 
कि होंठ अब कंपते नहीं 

कि रेत के इस गांव में 
पोर-पोर फिसल मैंने
नापे हैं कितने उठान
उतरे हैं कितने ढलान

कि हथेली-हथेली
थमा हूं कितनी ही बार 
मोम के नरम पहाड़ों पर
ऊंचा-नीचा यह भूगोल 
संभलने लगा है
तेरे पहाड़ों का मोम
अब पिघलने लगा है
 
कि मिट्टी के तेरे जंगल में
आंख पर प्रेम बांधकर  
उंगलियों के बल रेंगते हुए
छू देता था मैं
नन्हा सा गोल तितली घर

(यह जानते हुए भी 
कि फूलों की नाभि से 
तितली को उड़ाने का पाप 
कविता में भी लगता है)

थोड़ा नीचे फिसल कर
ढूंढ लेता था मैं वो... 
'रेशम की थैली'
मेरी उंगलियों का निशाना 
अब चूकने लगा है 
उस थैली का रेशम 
अब सूखने लगा है 

मुंह के बल रेंगते हुए 
दोराहे के आसपास 
कहीं मिलती थी 
कच्चे आम सी महक 
उस महक का तिलिस्म 
उघड़ने लगा है 
तेरी माटी का जंगल 
अब उजड़ने लगा है

इससे पहले कि
सब ख़त्म हो जाए 
आ कि पेड़ उगाएं 
और बचा लें धरती को 

आ कि...'प्रेम' उगाएं 
बचा लें तेरी माटी को!


                                 - प्रेम शर्मा


No comments:

Post a Comment