साहित्य चक्र

27 April 2025

ग़ज़ल- चलता जीवन



गुस्से में भी अपनापन है,
अब समझा में अपनापन है।

अस्र , नहीं पड़ता सपनों का,
चंदन तो आखिर चंदन है।

रुकने की गलती मत करना,
चलते रहना ही जीवन है।

तारीफों में कसर न छोड़ी,
सबका अपना-अपना फ़न है।

खुलकर बरसे चाहे गरजे,
होने को वैसे सावन है।

कब जाएगा सोचा कैसे,
मनमौजी होता पाहुन है।

माना मुझमें भी कमियाँ है,
उजला पर किसका दामन है।

- रामस्वरूप मूंदड़ा, बूँदी


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