साहित्य चक्र

30 January 2025

कविता- रूठ गया





कोई रूठ गया ऐसे कि मनाया ना गया, 
था ज़ख्म जरा गहरा कि दिखाया ना गया... 

वो जो समझे कि हूँ बेज़ार मोहब्बत से मैं,  
रिवायतों को हकीक़त भी बताया ना गया... 

रोया था मेरी शानो पर कोई जो कभी, 
था दाग कफन पर जो मिटाया ना गया...

जिंदा था कोई; चल रही थी कुछ साँसें अब भी,  
मेरी दीवारों से बेलों को हटाया ना गया...

बेशक थी मेरी जान जिसे रुख़सत है किया, 
मेरे हिस्से का हक्क भी मुझसे जताया ना गया...


                                       - स्वाति जोशी

प्रेम स्वीकारना



प्रेम कई बार हमें उलझा देता है, क्योंकि हमें पता नहीं होता है कि प्रेम को कैसे स्वीकार करना है। हम डरने लगते हैं और हमारा मस्तिष्क विभिन्न कल्पनाओं की उलझन में फंस जाता है। 





इससे बाहर निकलना हमारे लिए युद्ध से बाहर निकलने जैसा होता है, क्योंकि हमने कभी महसूस ही नहीं किया होता है कि हम कौन हैं। हम सभी प्रेम से बने होते हैं, मगर प्रेम का ‘प’ तक नहीं जाते हैं। 

प्रेम हमें खुद से जोड़ता है यानी खुद से प्रेम करना सीखता है। इसलिए प्रेम स्वीकार करने से पहले हमें खुद से प्रेम करना होता है। तभी हम दूसरों के प्रेम को स्वीकार कर पाते हैं।

                                                                - दीपक कोहली

कविता- ये पल ठहर जाए



एक नदी के किनारे
क्या खूबसूरत नज़ारे
हम तुम एक साथ 
लेकर हाथ में हाथ
देख रहे सूरज को उगते
एक नई उम्मीद को पलते
हवा की सरसराहट
आने वाले पल की ये आहट
चिड़ियों का चहचहाना
एक दूजे को देख हमारा मुस्कुराना
रंग बिरंगे फूलों की महक 
एक ही पल मानों जायेंगे बहक
अजब प्यार का ये अहसास
हर पल लग रहा है खास
काश! ये पल ठहर जाए
असीम प्रेम की 
अनुभूति से हमें भर जाए। 


                              - कला भारद्वाज

लघु कथा- कन्या भ्रूण हत्या


किसी शहर में सुरेश नाम का बहुत बड़ा व्यापारी रहता था। उसकी तीन बेटियां और एक बेटा था।  बेटा-  बेटी में  भेदभाव की भावना से ग्रसित था। बेटा-बेटी की शादी ब्याह कर चुका था। बहू को प्रसव पीड़ा प्रारंभ हुई तो सुरेश और उसका बेटा  नजदीक के अस्पताल में बहू को भर्ती कराया और खुशखबरी का बड़ी बेसब्री से इंतजार करने लगे। बार-बार निगाहें अस्पताल के दरवाजे तक जाती और रुक जाती और मन बार-बार अपने इष्ट का स्मरण करके यही प्रार्थना करता कि हे! प्रभु आज तो अच्छी खबर सुनने को मिल जाए। 





तभी अस्पताल का दरवाजा खुलता है और डॉक्टर बाहर आई और बोली बधाई हो नाती हुआ है। सबके चेहरे खुशी से खिल उठे सुरेश को खुशी के मारे कुछ समझ नहीं आया और उसने झट से अपने गले से एक सोने  की चेन निकाली और डॉक्टर को देते हुए बोला ये लो बधाई का इनाम डॉक्टर ने 2 मिनट तक सुरेश की तरफ देखा उसके बाद उसकी चेन उसको वापस कर दी। और विनम्रता पूर्वक हाथ जोड़ कर बिना कुछ बोले अपने रूम में चली जाती है। 

सुरेश को उस डॉक्टर पर बहुत गुस्सा आया और बोला घमंडी डॉक्टर ने मेरा बहुत बड़ा अपमान कर दिया पर कारण क्या था यह बात उसकी समझ में नहीं आई। इधर डॉक्टर सोच रही थी कि तीन आजन्मी बेटियों का हत्यारा उसके हाथ से चेन ले कर मुझे उसके पाप में शामिल नहीं होना है। सुरेश ने तीन बार बहू का अबॉर्शन उसी डॉक्टर से कराया था। इसीलिए उस डॉक्टर को सुरेश जैसे व्यक्ति से सख्त नफरत थी। सुरेश जैसे कुत्सित विचारधारा के लोगों के कारण ही आज भी कोख में बेटियों को मार दिया जाता है।


                                                                - सीमा त्रिपाठी 

जानिए मोबाइल और इंटरनेट के नहीं होने पर रचनाकारों के विचार



इंटरनेट और मोबाइल के बगैर दुनिया

अगर हमारे पास मोबाइल और इंटरनेट नहीं हो-तो हमारे कुछ जरूरी कार्यों की गति जरूर धीमी पड़ जाएगी पर हमारे संपर्क बढ़ जाएंगे ,व्यस्त लाईफ के बाद भी हम पुनः पहले सा समय निकालना, लोगों से मिलना मिलाना शुरू कर देंगे। नये अनुभव हमारे मस्तिष्क को ऊर्जा देंगें। 

चूंकि अभी हम मोबाइल और इंटरनेट में इतना डूबे रहते हैं कि खाना खाने का समय नहीं रहता या खाना फुर्सत से खा ही नहीं पाते। खाना खाते खाते भी कुछ काम याद आ जाते हैं बीच बीच में उन्हें भी करने लगते हैं। दूसरा मोबाईल और इंटरनेट नहीं होगा तो हम परिवार के प्रत्येक सदस्य को थोड़ा थोड़ा समय फिर भी दे पाएंगे। 

गृह कार्यों की कार्य योजनाएं उनसे डिस्कस कर सकेंगे। ये माना कि मोबाइल इंटरनेट आज आवश्यकता बन गये हैं परंतु! इसके बगैर भी जिंदगी सुखद है, भार मुक्त महसूस करते हैं लोग।


                                                                   - राणा भूपेंद्र सिंह


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मोबाइल के बिना जीवन मुश्किल 

आज मोबाइल और इंटरनेट जीवन का अभिन्न अंग बन गये हैं। जिनके बिना इंसान नीरस, निशक्त और बेबस नज़र आ रहा है। हाथ में मौजूद यह मोबाइल हर प्रकार की सूचनाएं प्रदान करने के अलावा अनेकों सोशल मीडिया पर जुड़ने का ज़रिया है। लेकिन अत्यधिक मोबाइल फ़ोन की लत से मानव जीवन प्रभावित भी हो रहा है। पूरे दिन मोबाइल पर व्यस्त रहने के कारण इंसान के पास अपने परिवार के लिये समय का अभाव है। वह हर प्रकार का मनोरंजन सिर्फ मोबाइल में खोज रहा है, लेकिन वास्तविक ज़िंदगी की सुखद अनुभूतियों से क्षीण हो गया है।

कुछ वर्ष पहले तक हम परम्परागत तरीके से जीवन यापन करते थे। लोगों का आपस में भावनात्मक जुड़ाव दिखता था। परिवार साथ बैठकर अनेक मुद्दों पर विचार विमर्श करता था। बच्चे शारीरिक विकास वाले खेल खेलते थे और किताबों से प्रेम करते थे। परन्तु मोबाइल और इंटरनेट की खोज ने संसार में व्यापक परिवर्तन ला दिया है।

मैं फिर से जीना चाहता हूँ वही ज़िंदगी। जब मेरा ध्यान मोबाइल पर ना होकर जीवन के उद्देश्यों की तरफ़ हो। मिलना चाहूँगा अपने सभी मित्रों और रिश्तेदारों से। व्यक्त करना चाहूँगा जीवन के अनुभवों को। खो जाना चाहता हूँ उन यादों में जिनसे बाहर निकलना शायद आज भी नामुमकिन है। आज के युग में यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी कि 'रोटी, कपड़ा और मकान' के बाद मोबाइल भी जीवन की आवश्यकता बन गया है।

                                                       - आनन्द कुमार


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अगर मेरे पास मोबाइल और इंटरनेट नहीं हो तो एक बार फिर मैं लौट जाता अपनी उस ज़िंदगी में जहां आकांक्षाएं,तनाव और बेसब्री कम होती और होता सुकून। बेशक आदतन थोड़ी सी तकलीफ़ ज़रूर होती तेज़ संचार के अभाव में लेकिन,एक बार अहसास होता रिश्ते, दोस्ती और भावनाओं के पल। 

फ़िक्र नहीं होती कि मेरे मौज के पलों पर कोई अनचाहा अतिक्रमण अकस्मात होगा,या कि दर्द से तत्काल राहत मिलेगी। खो जाता एक बार फिर अपनी किताबों की दुनिया में ! वो नन्हे सम्राट, चंदामामा,नंदन और बालहंस की दुनिया में ! 

बेशक ये इंटरनेट और मोबाइल की दुनिया तेज़ है पर मुझे शिकायत है इस बनावटी दुनिया से कि जहां सभी को कोई काम भी नहीं है लेकिन फुर्सत भी नहीं है। काश कि एक बार फिर वो दुनिया लौट आती। थोड़े धीमे हम ज़रूर हो जाते पर जिंदगी बावक्त जी लेते।

                                                                     -  कुणाल


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मैं एक छोटे से शेर के साथ लिखना चाहूंगा...

कि साहेब ! एक वक़्त था जब लोगों की खैरियत, 
छोटों की इबादत, घरों में संस्कार और बड़ों की बंदगी थी। 
और जब ये मोबाइल, व्हाट्सअप, फेसबुक 
और इन्टरनेट नहीं थे तो तब ज़िन्दगी थी।

आज हम पापा को सर झुकाकर प्रणाम नहीं करते बल्कि सुबह-सुबह नेट से गुड मॉर्निंग वाले मैसेज कॉपी करके पापा को सेंड कर देते हैं साथ में प्रणाम वाले इमोजी भी और पापा भी 'खुश रहो' वाले इमोजी भेज देते हैं। जब मम्मी गुस्सा होती हैं तो लाल इमोजी गुस्से वाली भेज देती हैं और हम रेड वाला दिल इमोजी भेज देते हैं और पापा जब गुस्सा होते हैं तो झापड़ वाले इमोजी भेज देते हैं, फिर हम भी इधर से आऊं आऊं रोने वाले इमोजी भेज देते हैं।

आजकल का प्यार मोबाइल में उलझ के कहि खो गया है। आज हम पोस्ट मैन चाचा को नहीं जानते जो कुछ सालों पहले घर आते थे चिट्ठियां लेकर तो घंटो बतियाते थे। आज हम मदर डे के दिन मम्मी के साथ वाली तस्वीर ढूंढ के डीपी लगा देते हैं तो वही फादर डे वाले के दिन पापा के साथ वाली।

अब हम दोस्तों के साथ गुल्ली डंडा, लुका-छिपी, क्रिकेट और कबड्डी खेलने के लिए गाँव में या फिर ग्राउंड में नहीं जाते बल्कि सारे फ्रेंड्स अब PUB-G खेलते हैं घरों में बैठकर। आज हम दोस्तों के दुःख को उसके साथ रह कर नहीं जानते बल्कि उसका सेड स्टेट्स देखकर पता लगाते हैं फिर इधर से हम भी सेड वाली इमोजी भेजकर दोस्त का दुःख शेयर कर लेते हैं।

अब हम दोस्तों के घर जाके अंकल का हाल चाल नहीं पूछते बल्कि व्हाट्सअप पर मैसेज कर के पता लगा लेते हैं। पहले हम दोस्तों के बगैर मां-बाप के बगैर दो दिन नहीं रह पाते और आज फ़ोन नहीं पास में रहता तो मानो जैसे ज़िन्दगी में अकेले ही आये थे और अकेले हैं भी ज़िन्दगी में। 


और अंत भी मैं एक शेर के साथ करना चाहूंगा-
अब बात करने की फुर्सत कहाँ किसी के पास,
नेट पर कभी ऑनलाइन दिख जाएँ तो समझ लेना सब खैरियत है।
बेशक इंटरनेट आने से हमारी सुविधाएं बढ़ी हैं, 
लेकिन अपनों से दूरियां भी बढ़ गयी है।


                                                              - विकास कुमार शुक्ल


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काश! अगर ऐसा होता

ऐसा असंभव है, पर मान लिया की यह संभव हो जाए। मेरे पास अगर मोबाइल और इंटरनेट नहीं रहे तो मैं उस समय को सुकाल (अच्छा समय) कहूंगा। मैं भ्रम से निकल हकीकत की दुनियां में प्रवेश करुँगा। 

अपने घर वालों के बीच बैठकर बातें करुंगा, घर के कार्यों में सहयोग करुंगा। अपने मित्रों के संग हंसी-मजाक करते हुए समय पास करूंगा। पुराने समय के अनुसार थांई-अथाई/चौपालों को समय देते हुए भी मन लगाकर अपने व्यवसाय को भी करुंगा। अगर ऐसा होता है तो मुझमें उपजा एकाकीपन व असामाजिकता दोनों से छुटकारा मिल जाएगा। ये मेरे जीवन के लिए सुखद रहेगा ।

                                                                   - व्यग्र पाण्डे

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मोबाइल और इंटर नेट के बिना मेरा जीवन


आज का समय मोबाइल फोन और इंटरनेट के बिना अधूरा है। मेरे पास जब भी समय होता है तो मोबाइल का उपयोग कर लेती हूं। अपने मनोरंजन के लिए। अगर जब इंटरनेट या मोबाइल ना हो तो मैं भी अपनी अच्छी यादों को तरो ताज़ा कर लेती हूं, जैसे किताबें पढ़ने के साथ गाने भी गाती हूं या फिर घूमने निकल जाती हूं। और चली जाती हूं प्रकृति की गोद में जहां मेरा बचपन बीता उन सहेलियों के साथ जिनके साथ बचपन बीता। 

अपने जन्मदाता माता-पिता की यादों में खो जाना फिर कभी उनकी यादों में रोना हंसना। भाई-बहनों को याद करना और फिर उनके साथ बिताए वो सारे पल याद करती हूं। अपने बच्चों को याद करना प्यार करना सब याद आता है। और सबसे प्यार रिश्ता तो हमारे पालतू का होता है, उसको खिलाना पिलाना घूमना उसको प्यार करना यही दिनचर्या होती है। 

जब इंटरनेट नहीं होता और कई बार होने के बावजूद भी सबको टाइम देना प्यार के कारण फोन करना सबको याद करना अपनी व्यस्त जिंदगी में मुझे मिल ही जाता है। मुझे तो पौधों से भी प्यार है, उनको पानी देना उनसे बातें करना, घर का ध्यान और इस भाग दौड़ वाली जिंदगी से समय निकाल के यह सब करना आदि मेरी दिनचर्या होती है।

                                                            - सुमन डोभाल काला



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इंटरनेट से दूर प्रेम की तलाश

मोबाइल और इंटरनेट, अगर मेरे पास नहीं हो तो सबसे पहले, मैं सुकून महसूस करूंगी। आज कल की भाग दौड़ वाली व्यस्त जिंदगी में जो थोड़ा वक्त अपने और अपनों के लिए मिलता है, वो भी ऑनलाइन प्रोजेक्ट, मीटिंग और रिपोर्ट बनाने में निकल जाता है। फिर सोशल मीडिया के मंच पर दिखावटी खुशियों को बांटने और समेटने में समय निकल जाता है। 

अतः मैं खुद के साथ वक्त बिताऊंगी। पुस्तकों में झांककर, स्वयं का प्रतिबिंब ढूंढूंगीं। डायरी उठाकर कलम से अपनी कल्पनाओं को शब्दों में उकेरूंगी। प्रकृति को स्पर्श कर, अपने पौधों से पूछूंगी तुम सब ठीक हो ना ?  दोस्तों से कहूंगी, चलो मिलते है फिर पुरानी गालियों में, जहां बातों का सिलसिला आज भी हमें याद करते हैं। अपनों में समाएं अपनेपन को तरासूंगी। और अंत में वक्त मिला तो नफ़रत के शहर से निकलूंगी प्रेम की तलाश में। 

                                                                       - सुतपा घोष


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दिमाग को आराम मिलेगा


अगर हमारे पास मोबाइल और इंटरनेट नहीं हो तो हम अच्छी-अच्छी किताबें पढ़ेंगे, और बाग-बगीचे की देखभाल करेंगे, खाली समय में हम कुछ फूलों की क्यारियां बनाकर उनमें पानी देंगे। ताकि वह अच्छे से फूल सकें।

कुछ समय अपने बच्चों के साथ एक साथ बैठकर चर्चा करेंगे। कोई कहानी, कविता, गीत, सुनाकर बच्चों का और खुद को भी व्यस्त रखेंगे। हमें मोबाइल की आदत ने इतना आदी बना दिया कि उससे कुछ पल के लिए दूरी रहेगी। जिससे हमारे दिमाग को आराम मिलेगा। कुछ समय परिवार के साथ बैठकर थोड़ी हंसी ठिठोले लगाऊंगी।

                                                               - रामदेवी करौठिया


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खुद की तलाश करूंगी

अगर मेरे पास मोबाइल और इंटरनेट नहीं हो, तो मैं समय को किताबें पढ़ने, प्रकृति के साथ और लिखने में लगाऊंगी। परिवार और दोस्तों के साथ संवाद को प्राथमिकता दूंगी। योग, ध्यान और शारीरिक गतिविधियों से खुद को स्वस्थ रखूंगी। अपने कौशल को निखारने के लिए नए शौक अपनाऊंगी, जैसे चित्रकारी या हस्तशिल्प आदि। समाजसेवा के माध्यम से दूसरों की मदद करने की कोशिश करूंगी। तकनीक के बिना मैं अपने अंदर की शांति और रचनात्मकता को खोजने का प्रयास करूंगी। इस समय को आत्मचिंतन और खुद को बेहतर बनाने में उपयोग करूंगी।


                                                             - डॉ. सारिका ठाकुर


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नज़र का टीका लगा दूंगी

सिर्फ और सिर्फ मनपसंद किताबें पढूंगी और मन भर जाएगा तो कुछ देर बाहर की सैर करूंगी और वो काम भी निपटा लूंगी, जो मोबाइल की वजह से कहीं अँधेरे में छिपा दिए, कुछ पौधे जिनको मैंने भुला दिया। उनको भी खाद पानी लगा दूंगी, बच्चे जो अलग-अलग कमरे में होते है, उनको पास बिठाकर मुस्कुराते हुए नजर वाला टीका लगा दूंगी।


                                                                - सीमा मौर्या


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मोबाइल फोन ‌से दूर

वर्तमान समय में मोबाइल फोन हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन गया है। परंतु हम यह सोचे की मोबाइल फोन यदि हमारे जीवन में ना हो तो हमारी दिनचर्या कैसी होगी? निश्चित ही वर्तमान से भिन्न होगी। यदि मैं मोबाइल फोन व इंटरनेट का उपयोग ना करूं तो दिन में 4 घंटे बचा सकती हूं और रात्रि में जल्दी सो सकती हूं और सुबह जल्दी उठ सकती हूं ।अपने भाव और कल्पनाओं को लखनी के माध्यम से एक रूपरेखा प्रदान कर सकती हूं। कुछ अधिक समय मै अपने परिवार तथा बच्चों के साथ बिताती। थोड़ा समय अपने घर के बगीचे को भी देती।
                
                                                                 -  अनुरोध त्रिपाठी 

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28 January 2025

कहानी- कुड़ी



 "चलो रे सब ! दिनेश कुड़ी लाया है !!" अचानक मेरे कानों में आवाज गूंजी। मेरे चचेरे भाई की आवाज थी यह।उन दिनों मैं इंटर की पढ़ाई कर रहा था। कभी-कभी अपने गांव आता था। ऐसे ही उस दिन मैं गांव में ही था।मेरे गांव के बच्चे और लड़के किसी के घर मेहमान आने पर भी देखने के लिए जमा हो जाते हैं, यहां तो दिनेश चचा ने कुड़ी(लड़की) लाया था तो भला बच्चों में कौतूहल क्यों न हो। मैं भी दौड़कर दिनेश चचा के घर की ओर भागा।





   दिनेश चचा के आंगन में गांव के लोगों की भीड़ भरी थी। किसी तरह भीड़ चीरकर आगे निकला तो देखा बीच आंगन में एक खाट पर लंबे बालों में दिनेश चचा बैठे थे। उन दिनों टीम इंडिया में नई-नई महेंद्र सिंह धौनी की एंट्री हुई थी सो हमारे झारखण्ड में लंबे बाल रखने का एक ट्रेंड चल पड़ा था। इससे मैं भी अछूता नहीं था। दिनेश चचा के ठीक बगल में खाट पर एक सुंदर, छरहरी काया वाली पटियाला सूट पहनी पंजाबी कुड़ी भी थी। दोनों की जोड़ी बहुत शानदार लग रही थी। गांव-मुहल्ले के सम्मानित लोग और दिनेश चचा के घर के बड़े लोग उन दोनों को घेरकर गांव-समाज की पारंपरिक पंचायती शुरू कर चुके थे।

   दरअसल कुछ महीने पहले ही दिनेश चचा काम की तलाश में पंजाब गये थे। वहीं पर उस कुड़ी से नज़रें मिलीं। फिर दोनों करीब आए। कुड़ी का नाम गुरमीत कौर था। उसके बाद तो उनका प्यार इस क़दर परवान चढ़ा कि एक दिन कुड़ी ने पंजाब की लहलहाती गेहूं और सरसों के माहौल को छोड़कर दिनेश का हाथ थामकर झारखण्ड की खूबसूरत पहाड़ी वादियों के आगोश में आने का फैसला किया। आज़ वही ख़ास दिन था।

  खैर ! पंचायती खत्म हुई। दिनेश चचा और गुरमीत कौर को एक साथ जीवन बिताने की मंजूरी मिली। दिनेश चचा के घर वालों की शर्त थी कि बेशक वो अपने हिस्से में अपनी बीवी के साथ रहकर आगे की ज़िंदगी जिए लेकिन स्वर्णकार समाज में उसे एंट्री नहीं दिया जाएगा। प्रेमी जोड़े ने घरवालों और गांव वालों की इस शर्त को सहर्ष मंजूर कर लिया।

  धीरे-धीरे वक्त बीतने लगा। कुड़ी कुछ ही दिनों में गांव के बच्चे,बूढ़े,औरत, युवक-युवतियां सबके दिल में बस गई। वो सबके साथ घुल-मिल कर रहती। कभी-कभी गांव के बच्चों के साथ जींस-टी शर्ट पहन कर क्रिकेट खेलने चली जाती तो कभी गांव की गलियों में गिल्ली-डंडा भी खेलती थी। हमारे गांव के परिवेश में यह सब थोड़ा सा अजूबा ज़रूर था लेकिन हमारा गांव शिक्षा के लिहाज़ से इतने आगे की सोच रखता है कि हर नई चीज़ को स्वीकार करने में ज्यादा समय नहीं लगाता है। 





इसलिए कुड़ी को भी गांव में किसी भी तरह से कोई दिक्कत नहीं हुई। चूंकि मेरे गांव के लोग परस्पर सहयोग के लिए भी एक मजबूत सामाजिक ढांचे के रूप में व्यवस्थित है इसलिए बीतते वक्त के साथ कुड़ी को गांव के सरकारी स्कूल में अनुबंध पर सिलाई सिखाने के काम में भी लगा दिया। दिनेश चचा इधर-उधर काम करने जाते और कुड़ी सिलाई सिखाने के साथ ही घर पर लोगों के कपड़े भी सिलाई करने लगी जिसके बदले उसे कुछ पैसे भी मिल जाते थे। दोनों की ही जिंदगी ट्रैक पर चलने लगी।

   अचानक एक दिन गांव में ख़बर फैली कि कुछ पंजाबी लोग पुलिस लेकर गांव आए हैं। यह खबर मिलते ही पूरा गांव दिनेश चचा के घर की ओर भागा। कुड़ी के पापा पंजाब से कुछ लोग और पुलिस को लेकर आए थे। कुड़ी यहां से जाना नहीं चाह रही थी पर जबरदस्ती उनके पापा उसे यहां से लेकर जाने लगे। दिनेश चचा की आंखें भर आईं और साथ ही गांव के सभी लोगों में मायूसी सी छा गई। लेकिन अगले ही पल कुड़ी ने आत्मविश्वास से भरकर जो कहा उसे सुनकर सबके चेहरे खिल उठे। उसने सबकी ओर देखकर मुस्कुराते हुए कहा- "डोंट वरी यार ! पंछी हूं ! मुझे कैद कैसे रख पाएंगे ये ? फ़िर से उड़कर आ जाऊंगी !"

  सचमुच कुछ ही दिनों बाद एक सुबह कुड़ी वापस भी आ गई। एक बार फिर दिनेश चचा की ज़िंदगी में बहार और गांव के लोगों के चेहरे पर ख़ुशी लौट आई थी। एक बार फिर दोनों खुशी-खुशी साथ रहने लगे। लेकिन अचानक एक दिन उनकी जिंदगी में हलचल मच गई। पारिवारिक कलह की वजह से दोनों का घर में जीना मुहाल हो गया। लेकिन दोनों ने ही हिम्मत नहीं हारी। इतने दिनों से रहते हुए इलाके में उनकी सब लोगों से अच्छी पहचान हो गई थी सो बगल के गांव में एक आदमी की जमीन पर उन्हें घर बनाकर रहने की इजाजत मिल गई। कुड़ी और दिनेश चचा ने मिलकर जल्दी ही ईंट और मिट्टी का एक छोटा सा घर तैयार कर डाला। अब उस पर एस्बेस्टस की छत भी डाल दी गई। दोनों उसी में रहने लगे।एक बार फिर से दोनों की ज़िंदगी पटरी पर लौट आई थी। 

हालांकि अबतक उन्हें कोई बच्चा नहीं हुआ था लेकिन दोनों की लाइफस्टाइल में सुधार आने लगा था। दिनेश चचा मजदूरी का काम छोड़कर अब एक नेटवर्क मार्केटिंग का काम करने लगे थे। कुड़ी भी इस काम में उसका हाथ बंटाती थी। अब तो दिनेश चचा ने एक स्प्लेंडर बाइक भी ले ली थी। मुझे उनकी जोड़ी और उनके मिलन की कहानी इतनी ज्यादा अच्छी लगती थी कि मैं हमेशा ईश्वर से प्रार्थना करता था कि इनकी जोड़ी को किसी की नज़र ना लगे। ये लोग दिन-दूनी रात चौगुनी तरक्की करें। सिर्फ़ इन्हें ही नहीं बल्कि हर अच्छी जोड़ी को देखकर मैं बहुत गहराई से सोचता हूं। मुझे यह भी लगता है कि इन मामलों में मेरी तरह से नहीं सोचता होगा।






   लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। पांच साल बाद एक दिन अचानक पता चला कि कुड़ी कहीं ग़ायब है। वो चार-पांच दिन से लापता है। वास्तव में हुआ क्या है ये किसी को मालूम नहीं था। कोई कहता कि कुड़ी को उसके पापा ले गए हैं, कोई कहता किसी ने उसे मार दिया है तो कोई कहता कुड़ी किसी के साथ भाग गई है। मेरा मन विचलित हो उठा। मेरा दिल बिल्कुल इस बात को नहीं मान सकता था कि जिस लड़की ने दिनेश चचा के लिए इतना संघर्ष किया वो किसी और के साथ हरगिज़ नहीं भाग सकती। अब तक मैं भी ग्रैजुएशन की पढ़ाई पूरी कर सरकारी स्कूल में पारा शिक्षक की नौकरी करने लगा था। मैं पैदल उसी गांव से होकर अपने स्कूल जाता था जहां उन लोगों ने घर बनाया था। 

कभी-कभी दिनेश चचा को अकेले घर घुसते या घर से निकलते देखता तो मन व्यथित हो उठता। मन ही मन सोचता कि या खुदा ! सबकुछ ठीक कर देना। इनकी प्रेम-कहानी का इस तरह से खात्मा नहीं कर सकते आप। मुझे पूरी उम्मीद थी कि ज़रूर शाय़द कुड़ी पंजाब ही गई है और एक दिन फिर से उड़कर आ जाएगी। इसी बीच अचानक एक दिन मैं गांव के ही किसी आदमी के साथ बाइक से गांव लौट रहा था। रास्ते में देखा कुछ लोग किसी आदमी का अंतिम संस्कार कर नदी से लौट रहे हैं। मैंने बाइक वाले से पूछा कि कौन मर गया। उस आदमी ने बताया कि दिनेश मर गया। 

मैं अंदर से कांपकर मायूस हो गया। रूंधी हुई आवाज़ में पूछा कि उसे क्या हुआ था। उस आदमी ने बताया कि उसे कोई बीमारी थी इलाज के दौरान मर गया। मैं मन ही मन नियति को कोसने लगा कि कैसा तेरा खेल है ? कहां तो मैं सोचता था कि एक बार फिर से चमत्कार होगा और कुड़ी फिर से लौट आएगी। उसके बाद सबकुछ ठीक हो जाएगा। लेकिन यहां तो उम्मीदों पर पूर्ण विराम लग चुका था। एक हसीन प्रेम कहानी का दर्दनाक अंत हो चुका था। आजतक किसी को पता नहीं कि कुड़ी का क्या हुआ ?

 
                                                       - कुणाल


24 January 2025

मेरा सब्जीवाला



मेरा सब्जी वाला
सचमुच बहुत अच्छा आदमी है
वह रोज सवेरे मुझे हंस कर
जयश्री राम कहता है
मेरा दिन अच्छा जाए ऐसी
शुभेच्छा भी देता है
इसके बाद मेरी भावताल की
झिकझिक शुरू होती है
कभी उसकी मटर सड़ी होती है
तो कभी टमाटर गले होते हैं
उसकी अन्य चीजों का भी
कोई ठिकाना नहीं होता
पर वह मुझसे अपने संसार की बातें करता है
और मृदुता से जान लेता है कि
मेरा भी सब ठीक चल रहा है
अपने चेहरेमोहरे के लिए या
अपनी सुघड़ता के लिए 
वह मुझे अच्छा लगता है ऐसा नहीं है
वह मुझे अच्छा लगता है क्योंकि
भावताल की जंग में
मैं उसे हमेशा हरा सकता हूं
और मेरी प्रत्येक प्रभात
विजय की मुस्कराहट के साथ शुरू होती है।


                                                 - वीरेंद्र बहादुर सिंह 


22 January 2025

कविता- कच्चे मकान





क्या रखा है तपते मैदानों में
घूम कर देखो कभी सुनसान वीरानों में
करवटें लेते रहते हो पक्की हवेलियों में
रह कर देखो कभी कच्चे मकानों में

कण कण गर्मी से झुलस रहा
घूमने आ जाओ कभी पहाड़ों में
गर्मी में तो लगता स्वर्ग जैसा यहां
बहुत आनंद आता यहां जाड़ों में

गर्मी में जब हर तरफ बरसती है आग
घने जंगल देते यहां शीतल ठंडी हवा
पहाड़ों पर मिलता है अजीब सा सकूँ
कल कल बहती नदियां झरने लगती जैसे कोई दवा

पेड़ों से गिरते पत्ते खड़ खड़ करते आवाज
कुदरत मानो बजा रही कोई अद्भुत साज
भीनी भीनी आती उपवन से फूलों की खुशबू
देखने को मिलता प्रकृति का अलग ही अंदाज़

कच्चे घर में जहां होता था विश्वास और प्यार भरा
वहीं पक्के घरों में रहता है इंसान डरा डरा
रहना चाहते हैं एक दूसरे से दूर
सूख रहा रिश्तों का पेड़ जो रहता था कभी हरा भरा।


                                     - रवींद्र कुमार शर्मा

कविता- युवा शक्ति की प्रेरणा






विश्व पटल पर आपसे, बढ़ा देश का मान।
युवा विवेकानंद है, भारत का अभिमान॥

युवा विवेकानन्द नें, दी अद्भुत पहचान।
युवा शक्ति की प्रेरणा, करे विश्व गुणगान॥

जाकर देश विदेश में, दिया यही संदेश।
धर्म, कर्म अध्यात्म का, मेरा भारत देश॥

अखिल विश्व में है किया, हिन्दी का उत्कर्ष।
हिंदी भाषा श्रेष्ठ है, है गौरव, है हर्ष॥

श्रेष्ठ हमारी सभ्यता, है संस्कृति महान।
श्रेष्ठ हमारे आचरण, श्रेष्ठ हमारा ज्ञान॥

लक्ष्य प्राप्ति हित अनवरत, करो सदा संघर्ष।
युवा शक्ति हो संघटित, ख़ूब करे उत्कर्ष॥

आलोकित पथ को करे, भाव भरे अनमोल।
नमन विवेकानंद को, करे सभी दिल खोल॥

परम हंस से सीखकर, बने विवेकानंद।
पाकर सौरभ प्रेरणा, खिले हृदय मकरंद॥


                                    - डॉ सत्यवान सौरभ


कविता- मॉं थीं



माँ थीं गुनगुनाती मधुर खनक से, 
हवा से लौ को बचाती,जब जातीं अंगन से  
हम आज वो दृश्य देखने को तरसते-2
माँ थीं, रोशनी थी, थी झोपड़ी भवन से।

पुराना पीपल गांव में अब नहीं है, 
दुआर खटिया खलिहान नहीं है। 
दुपहरी तपती पर नीम नहीं है, 
छिटपुट पेड़ पर बगीचा नहीं है। 

बांस के सूप, बहुत याद आते,
घरिया चकली जाता ही थे धन से। 
पुरानी यादों को समेटती जतन से।
माँ थीं गुनगुनाती मधुर खनक से ।
हवा से लौ को बचाती जब जातीं अंगन से।

रजनी प्रहर करती आवाज प्रहार, 
कभी झींगुर कभी रेऊवा का धार। 
सुनसान इलाका सिआरों की चीख, 
कुत्तों का भोंकना सर्पों का बिख ।

रात रानी चाँदनी थी सर पर-2
था बच्चा-बच्चा मासूम मन से। 
खेलते थे खूब फैलाये सन से,
माँ थी गुनगुनाती मधुर खनक से।
हवा से लौ को बचाती जब जातीं अंगन से।

तीज कजरी पर गाना सुनाती, 
पहन नई साडी माँ त्यौहार मनाती। 
दादू का खाना दलान में लगता,
हम बच्चों को ओसारा था जंचता।

परिवार में थे सब एकजुट मिलकर, 
ना कोई शिकायत ना कोई भरम से।
रहते थे सब साथ प्रेम धरम से,
माँ थीं गुनगुनाती मधुर खनक से। 
हवा से लौ को बचाती जब जातीं अंगन से।


                                     - प्रतिभा पाण्डेय "प्रति"


कविता- माँ बाप





जीवन में हर रिश्ता बन है जाता।
माँ बाप कोई और नहीं बन पाता।

माँ बाप होते हैं भगवान् का रूप।
उनसे ही बनता हमारा स्वरूप।

माँ बाप के त्याग व समर्पण को भुलाया नहीं जाता।
कोई इन्हें ठुकराता तो कोई इन्हें गले है लगाता।

माँ बाप आज सिसकियां है भरते।
अपने ही घर में खुलकर जी नहीं सकते।

जब होते हैं बच्चे छोटे तो माँ बाप लगते बड़े प्यारे।
जब बच्चे हुए बड़े तो माँ बाप फिरते
बेसहारे।

पोता पोती से प्यार भी खूब जताते।
पर खुलकर उनसे बात भी नहीं कर पाते।

यूँ तो पोता पोती होते इन्हें बड़े प्यारे।
क्या करे अब बदल गई दुनियाँ और इसके नजारे।

आज श्रवण कुमार बड़ी मुश्किल से है मिलता।
जिन माँ बाप को है मिलता उनका बुढ़ापा सुख में है बीतता।


- विनोद वर्मा



कविता- टूट गये



जब इश्क़ के सारे वादे टूट गये,
विश्वास के कच्चे धागे टूट गये!


जान ही बची थी जिस्म में सिर्फ़,
हम याद में उनकी आधे टूट गये!

आरज़ू दिल की हो ना पाई पूरी,
उससे पहले सब इरादे टूट गये!

कैसे जीतता बादशाह शतरंज में,
देखते-देखते सब पियादे टूट गये!

जो ख़्वाब पीछे बचा रखे थे,
वो सब जिंदगी में आगे टूट गये!

एक चाँद था जुगनुओं के साथ,
फिर धीरे-धीरे सब तारे टूट गये!

किस्सा हक़ीक़त बन ना पाया,
नींद खुली ख़्वाब सारे टूट गये!


- आनन्द कुमार