साहित्य चक्र

22 January 2025

कहानी- प्रेम मन

प्रेम एक ऐसी अद्भुत संजीवनी है जिसके लिए सृष्टि का हर प्राणी तरसता है फिर चाहे वह पशु हो, पक्षी हो या मनुष्य। प्रेम की सकारात्मक शक्ति पेड़-पौधों को भी नवजीवन देती है। वे अधिक हरे-भरे हो जाते हैं अगर प्रेम से उन्हें सींचा जाए। हर कोई चाहता है कि मैं किसी से प्रेम करूं और कोई मुझे प्रेम करें। यह प्राणों की गहरी प्यास है। सबके भीतर जलती है इसकी लौ लेकिन सभी लोग प्यासे के प्यासे रह जाते हैं।





प्रेम का पौधा अपने हृदय की भूमि में उगाना पड़ता है। न यह उधार मिलता है ना चोरी से। हर व्यक्ति में प्रेम सिर्फ एक बीज रूप होता है उसे बोना पड़ता है। उसकी देखभाल कर बढ़ने की बाट जोहनी पड़ती है। अगर यह सब नहीं किया तो प्रेम शुप्त अवस्था में छिपा रह जाएगा।आजकल फ़िल्में, कविताएं, उपन्यास प्रेम के चर्चो से भरे पड़े हैं मगर प्रेम की वह गहराई को गई है जो भावना के समुद्र को अपने सीने में समा ले।

प्रेम भगवान का दिया हुआ सबसे खूबसूरत तोहफा है। प्रेम एक विश्वास का नाम है। प्रेम एक विशाल समुद्र है जिसका कोई अंत नहीं है। प्रेम को परिभाषा के सीमित दायरे में नहीं बांधा जा सकता। प्यार सागर से गहरा है, पर्वत से ऊंचा है, तूफान से तेज चलने वाला है तो एक ठंडी हवा का झोंका भी है। आग से ज्यादा गर्म है तो हिम से भी ठंडा है। काजल के समान काला है तो दूध से ज्यादा सफेद भी। पूनम की रात का उजाला है तो अमावस की रात से ज्यादा अंधकारमय भी है। प्रेम फूलों की सेज है तो कांटों से भरा रास्ता भी है। कहने का अर्थ है कि प्रेम के दो पहलू है एक सकारात्मक और एक नकारात्मक। प्रेम को स्पर्श नहीं किया जा सकता केवल इसे महसूस किया जा सकता है। 


प्रेम मन की निर्मल भावना से किया जाने वाला वह भाव है जिसमें ऊंच-नीच, जाति बंधन, धर्म, रीति-रिवाज या परंपराओं का लेस मात्र भी स्थान नहीं होता है। प्रेम दिल की गहराई से किया जाने वाला वह एहसास है जिसमें एक दूजे के लिए सम्मान, विश्वास, आपसी समझ होती है। एक दूसरे के लिए फना होने का जज्बा होता है। प्रेम में सच्चाई और पवित्रता होनी चाहिए। अगर प्रेम में सच्चाई, विश्वास या सम्मान नहीं है तो यह प्रेम का नकारात्मक अर्थ होगा। फिर वह प्रेम, प्रेम नहीं रहेगा तब तो इस शब्द के मायने ही बदल जाएंगे।

 अगर हम किसी को बार-बार देखना चाहते हैं। उसके बारे में सोचते हैं। उसकी मदद करना चाहते हैं या ना चाहते हुए भी किसी का अक्स हमारी आंखों के सामने आ जाता है या कोई हमारे जीवन का हिस्सा बन जाता है तो समझ लीजिए यह प्यार ही है या कहीं ना कहीं इसमें प्रेम का भाव समाहित है। हमारे मन में किसी के प्रति अच्छे विचार हैं या उसे हम आदर्श समझते हैं तो वह भी प्रेम का ही एक रूप है। 

प्रेम के अनेक रूप होते हैं। एक मां का अपनी संतान से, बहिन का अपने भाई से, एक पत्नी का अपने पति से, एक दोस्त का दोस्त से या एक गुरु का शिष्य से प्रेम होता है। इतना जरूर है कि हर रिश्ते में प्रेम के अर्थ कुछ हद तक बदल जाते हैं पर इसका मूल भाव एक ही रहता है।





संसार का कोई भी जीव प्रेम के बिना नहीं रह सकता। यह शाश्वत सत्य है। व्यक्ति बचपन से लेकर अंत तक प्रेम के बंधन में बंधा रहता है। प्रेम आदि से अंत तक चलने वाला प्रवाह है।  प्रेम किसी से भी किया जा सकता है पर उसमे पवित्रता जरूरी है। उसमें सच्चाई होनी चाहिए। प्रेम पवित्रता और सच्चाई के पहियों से ही अपने रास्ते पर चल सकता है। इन्हीं पंखों के सहारे आसमान में विचरण कर सकता है। 

अगर प्रेम में ये दोनों तत्व मौजूद नहीं है तो फिर उस प्रेम का कोई वजूद नहीं होता। प्रेम के विषय में बहुत सी किताबों या फिल्मों में देखा जा सकता है। इस विषय पर बहुत किताबें लिखी गई है। पर कोई भी शिक्षा संस्थान प्रेम का विज्ञान और प्रेम की कला नहीं सिखाता। इसे तो जीवन की पाठशाला में खट्टे-मीठे अनुभवों से गुजर कर ही सीखना पड़ता है।

प्रेम की शुरुआत हमेशा स्वयं से होती है। अगर आप स्वयं से प्रेम नहीं कर सकते तो दूसरों से भी प्रेम नहीं कर पाओगे। इसलिए प्रेम करने के लिए अपने आप से बेहतर कोई नहीं है। अपने आप से प्यार करोगे तभी प्रेम की शुरुआत होगी। इस जीवन यात्रा को पूर्ण करने के लिए प्रेम पहली और अनिवार्य शर्त है।


                                                     - मेवा राम गुर्जर, पीलवा (जयपुर)


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