साहित्य चक्र

15 January 2025

शहरी कुत्ते...


कल मैं किसी काम से बीवी और छोटे बेटे के साथ रांची आया था। मंझले मामा परिवार के साथ रांची में ही रहते हैं सो रात को उनके यहीं ठहर गया था। भोर को पौ फटते ही मैं बिस्तर छोड़ दिया। वॉशरूम से फ्रेश होकर वापस आया तब भी बाहर पूरी तरह से रोशनी नहीं आई थी। साढ़े पांच बज चुके थे लेकिन जैसा कि राजधानी रांची के लोगों की आदत है, बदस्तूर घर के सभी लोग अभी तक घोर निद्रा में सो ही रहे थे। मैंने मन बना लिया कि आज़ रांची की सड़कों पर जॉगिंग करूंगा। 




मैं तैयार होकर जल्दी से निकल गया। अबतक बाहर रोशनी साफ़ हो चुकी थी। मैं गलियों से निकल कर मुख्य सड़क की ओर जा रहा था। अचानक मेरी नज़र एक घर के दरवाजे के बाहर फेंकी हुई चार-पांच रोटियों पर गई। मैं एक नज़र देखकर आगे बढ़ गया। सरपट चाल से चलते हुए चांदनी चौक,हटिया मुख्य चौक होते हुए तुपुदाना रोड के पेट्रोल पंप तक गया। वापसी के वक्त चांदनी चौक में बिना चीनी की एक कुल्हड़ वाली चाय की चुस्की भी ली। 

हालांकि मुझे डायबिटीज की शिकायत नहीं है, फिर भी एक बार गांव के एक डॉक्टर द्वारा किट से चेकअप के बाद हल्की सी डायबिटीज की बात सुनने के बाद मैं परहेज़ करने लग गया था, इसलिए फीकी चाय भी अब अच्छी ही लगती है। हालांकि बाद में जमशेदपुर में जहां मैं रहता हूं वहां कई बार लैब में ब्लड सुगर चेक कराया जिसमें सबकुछ नॉर्मल निकला। खैर ! चाय पीकर वापस मैं मामा के डेरे की ओर गलियों में पहुंच गया। सहसा मेरी नज़र फिर से उन फेंकी हुई रोटियों पर पड़ी। 

मैं सोचने लगा कि आस-पास आवारा कुत्ते तो बहुत हैं गली में, लेकिन अबतक जितनी रोटियां जाते वक्त पड़ी हुई थीं,अब भी उतनी ही हैं। थोड़ी देर सोचने के बाद मैं इग्नोर कर आगे बढ़ गया कि हो सकता है उन रोटियों पर किसी भी कुत्ते की नज़र नहीं पड़ी हो अबतक। मामा के घर पहुंचने के बाद नहा-धोकर तैयार होकर हमलोग तकरीबन दस बजे घर के लिए निकल पड़े। अचानक उस गली में फिर मेरी नज़र फिर से जमीन पर पड़ी हुई चार-पांच रोटियों पर पड़ी। इस बार मैं अचंभित हो उठा। हालांकि इतनी बकवास और फ़ालतू सी बात मैंने बीवी के साथ भी शेयर नहीं किया। 

लेकिन मन ही मन कई सारे प्रश्न उमड़ रहे थे। सुबह छह बजे मैंने वो रोटियां देखीं थीं, अबतक कैसे किसी भी कुत्ते या अन्य जानवरों ने उसे नहीं देखा होगा। और देखा होगा तो खाया क्यों नहीं !! जबकि मैंने तो उन रोटियों को सुबह छह बजे देखा लेकिन संभव है कि उस घर के मालिक ने वो रोटियां रात को ही फेंकी थीं। गांव में तो एक रोटी मिलने पर पच्चीस कुत्तों में महासंग्राम छिड़ जाता है। लेकिन यहां तो साले आवारा कुत्ते भी एडवांस निकले। रोटियों में उन्हें कोई रुचि नहीं। फिर मेरा मन उन आवारा कुत्तों की दुनिया में खो चला।

मैं हास्यात्मक अंदाज में सोचने लगा कि क्या वाकई शहर के आवारा कुत्ते भी एडवांस और पढ़े-लिखे होते हैं ? शायद हां ! इसीलिए तो वो इतनी भीड़ भरी सड़कों पर भी आसानी से आर-पार होते रहते हैं और उनका एक्सीडेंट भी नहीं होता। जबकि मेरे गांव और आस-पास के देहाती और अनपढ़ कुत्ते हाइवे पार करते हुए अक्सर जान से हाथ धो बैठते हैं। 

गांव के कुत्ते एक रोटी या सादे भात की खातिर तृतीय विश्वयुद्ध छेड़ देते हैं लेकिन यहां देखो ! इतनी सारी रोटियां पड़ी हुई हैं मगर किसी भी कुत्ते ने पूछा तक नहीं उन रोटियों को ! संभवतः रांची के कुत्ते आपस में बात करते होंगे "चल रे मंगरा ! हुआं पांच गो रोटी गिरल हऊ।"

तब अगले कुत्ते उस पर हंसते होंगे और कोई एक कुत्ता उसका उपहास करते हुए ज़रूर बोलता होगा "इ सोमरा पगला गेलऊ लागत हय ! साला एकदमे भुखमरिया है का बे ! बिहाने-बिहान सूखल रोटी खाबे तोंय ?

फिर कोई और कुत्ता भी हंसते हुए बोलता होगा "अबे सोमरा ! तनी देर बाद एकदम ताजा-ताजा गर्मागर्म कचौड़ी, जलेबी,समोसा मिलतऊ ! आउत तनिक बाद चिकन लॉलीपॉप आर मोमोज भी ! साला एखनि सूखल रोटी खाबे तो अकेले खाबे जा तोंय"

ये सब सोच-सोच कर मैं मुस्कुरा उठा। तबतक हमलोग चांदनी चौक पहुंच कर ऑटो में बैठ चुके थे। रास्ते भर शहर के पढ़े-लिखे, समझदार और एडवांस कुत्तों की वो ख्याली वार्तालाप को बार-बार सोचकर ही हंसी छूट जाती रही।


                                                                           - कुणाल


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