आज का युग विज्ञान का युग है। इक्कीसवीं सदी के साथ भारत भी ज्ञान, विज्ञान,धर्म, दर्शन, खोज अनुसंधान और शिक्षा के क्षेत्र में उत्तरोत्तर वृद्धि करते हुए, दुनियां के तमाम विकासशील देशों के साथ कंधे से कंधा मिलाये खड़ा हुआ है। शिक्षा के बढ़ते मान दण्ड और शिक्षित मानव समुदाय के चलते कुछ प्राचीन परम्पराओं,मान्यताएं और रूढ़ियॉ अपनी अप्रामाणिकता के कारण स्वत: ही अस्तित्वहीन होती जा रही हैं।
आज का मानव किसी भी बात को मानने से पहले हर दृष्टिकोण से अवलोकन,मनन और चिंतन कर उसकी सत्यता और वैज्ञानिक प्रमाण प्राप्त करने की चाह रखता है। प्रमाणिकता के साथ उसकी कसौटी पर खरी उतरने वाली बात पर ही विश्वास करता है। किन्तु कभी कभी हमारे सामने कुछ ऐसी घटनाएं घट जातीं हैं,जिन्हें हम अपनी आंखों से देखकर भी सहजता पूर्वक विश्वास नहीं कर पाते हैं।
ऐसी ही एक घटना का मैं,मेरा परिवार और मेरा पूरा मौहल्ला साक्षी बना। यह घटना महज कोई संयोग थी या कोई चमत्कार यह निर्णायक नहीं है ,किन्तु इस घटना से आप सभी को अवगत कराते हुए मुझे आत्मिक संतुष्टि अवश्य मिलेगी ,साथ ही मेरा विश्वास और भी प्रगाढ़ होगा।
यही कोई तीन दशक पुरानी बात है जब मेरे पिताजी सिंचाई विभाग में सेवारत रहते परिवार के साथ नगर सेवढ़ा जिला दतिया .म.प्र. में ही अपने निर्माणाधीन मकान में निवासरत थे। पिताजी,माताजी,दीदी,भैया और मैं, कुल पांच सदस्य थे परिवार में। दीदी की शादी बहुत पहले ही हमारे पैट्रिक ग्राम घमूरी जिला भिंड में रहते ही हो गई थी और वो अपनी ससुराल में रहतीं थीं ।
अतः अब नगर सेवढ़ा के इस मकान में रहने वाले हम चार सदस्य ही थे। पिताजी(बाबूजी) की नौकरी और गांव की थोड़ी सी पुस्तैनी जमीन ही आय का साधन थी। सीमित आय में भी परिवार का निर्वहन और हम भाईयों की शिक्षा के खर्च के बाद बचे पैसों से पिताजी क्रम क्रम से घर का निर्माण कराया करते थे। हमारा मकान जिस स्थान पर बनवाया जा रहा था उस स्थान पर उस समय बहुत कम मकान बने हुए थे। आसपास पड़ी खाली जगह में कंटीली झाड़ियां पथरीले खंडहर अधिक थे।
समय असमय जहरीले जीव जन्तु और सांपों का निकलना हो जाया करता था । माताजी स्वभाव से ही धार्मिक और कोमल हृदय कहीं हैं, किसी भी जीव को न मारने देखतीं,विशेषकर सांप को तो कभी नहीं। वे सांपों को देव रूप बताकर तर्क-वितर्क करतीं और हमेशा ही उनकी रक्षा करतीं हुईं घर से दूर निकलवा देखतीं। बाबूजी नाराज होते हुए कहते - ये तो भगतिन हैं ,इन्हें तो सब में भगवान दिखते हैं। "मां कहतीं" ऐसी बात नहीं है ,पर कईबार स्वप्न में मुझे मातारानी(जगदम्बा"दुर्गा माई) ने दर्शन दिए हैं।
न जाने मुझे क्यों लगता है जैसे यहीं कहीं उनका साक्षात वास हो। " और बाबूजी" उनकी बात को अंधविश्वास मानकर आई गई कर जाते,मकान निर्माण से बचें पत्थरों के खण्डों को बाबूजी ने घर के लिये पुते कच्चे आंगन में ही एक और रखवा दिए थे।
ये खण्डे लगभग पांच वर्ष तक एक ही जगह एक ही स्थान पर ज्यों के त्यों रखें रहे। पुनः निर्माण कार्य को आगे बढ़ाने के लिये मजदूरों से उन खण्डों को उस स्थान से हटवाया जा रहा था कि उन पत्थरों के बीच एक काला सर्प दिखा जो लगभग पांच छह फीट लंबा था। उसे देखते ही मजदूर भय के कारण दूर जाकर खड़े हैं गये और काम करने से मना कर दिया।
बाबूजी ने मजदूरों के हाथों में लाठियां थमाते हुए कहा कि इस सर्प को हटा दो न हटे तो मार दो। मारने की बात सुनकर माताजी मेरे पास आईं चूंकि मैं सो रहा था मुझे जगाते हुए बोलीं "महाराज आये हैं" मैंने उनीदे लहजे में पूछा -"कौन महाराज..?" तो उन्होंने पूरी बात बता दी और कहा ये मजदूर कहीं उसे मार न दें। तुम जाकर उसे (सर्प को) बाहर निकाल दो। मैं उस स्थान पर पहुंचा तो कोई भी मुझे उन पत्थरों तक नहीं जाने दे रहा था।
न जाने कौन-सी शक्ति के कारण मुझे में जिद और विश्वास पैदा हो गया था, मैंने आगे बढ़ते हुए कहा कि मुझे कुछ नहीं होगा। मैं पत्थर निकालता हूं तुम लोग उठाकर ले जाना। और मैंने एक एक कर पत्थर के खण्डे निकाल दिये। चार छह खण्डे ही बचे हैं कि सांप अचानक गुस्से से भर आया और फन फैलाकर उन खण्डों पर ऊपर आकर बैठ गया। सारे प्रयास असफल नजर आ रहे थे, वह न तो भाग रहा था न हि किसी को उन खण्डों तक पहुंचने दे रहा था।
सब तमाशा देख रहे थे। तभी माताजी कटोरी में दूध लेकर आईं ,वे निडर हो सांप के पास गईं और दूध की कटोरी सामने रख दी हाथ जोड़कर प्रणाम किया जैसे विनती कर रहीं हों। सांप ने दूध पिया और हट गया पर ! सांप के आने जाने का सिलसिला करीब चालीस मिनिट अनवरत चलता रहा, तब जाकर शेष बचे खण्डों को हटाया गया। अब उस स्थान पर सिर्फ एक पत्थर का छोटा सा टुकड़ा जो लगभग तीन से चार इंच का था बस वही पड़ा हुआ दिखाई दे रहा था। मैं उसे भी उठाने बड़ा तो सांप पुन: उस पत्थर फन फैलाकर बैठ गया मानो जैसे कोई संकेत दे रहा था।
माता जी ने कहा कि अब क्या है क्यों परेशान कररहे हो। तो उस सर्प ने उस पत्थर की एक परिक्रमा की और अपने आप दरवाजे से निकलकर झाड़ियों में चला गया। माताजी ने जब उस छोटे से पत्थर को उठाया तो उसके पृष्ठ भाग पर सिंघ सवार मां दुर्गा की बनी हुई मूर्ति देखकर परिवार जन ,मजदूर, मौहल्ले वाले सब हतप्रद रह गये। माताजी कभी अपने हाथों में उस मूर्ति को देखतीं ,कभी उस सर्प के क्रिया कलाप को याद करतीं हुईं यह समझने का प्रयास करतीं कि यह कोई सामान्य घटना है,या चमत्कार हैं। पर जो भी हो आस्था और विश्वास पर ही मानव टिका है बाकी सब नश्वर है।
- राणा भूपेंद्र सिंह
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