साहित्य चक्र

22 January 2025

कविता- मॉं थीं



माँ थीं गुनगुनाती मधुर खनक से, 
हवा से लौ को बचाती,जब जातीं अंगन से  
हम आज वो दृश्य देखने को तरसते-2
माँ थीं, रोशनी थी, थी झोपड़ी भवन से।

पुराना पीपल गांव में अब नहीं है, 
दुआर खटिया खलिहान नहीं है। 
दुपहरी तपती पर नीम नहीं है, 
छिटपुट पेड़ पर बगीचा नहीं है। 

बांस के सूप, बहुत याद आते,
घरिया चकली जाता ही थे धन से। 
पुरानी यादों को समेटती जतन से।
माँ थीं गुनगुनाती मधुर खनक से ।
हवा से लौ को बचाती जब जातीं अंगन से।

रजनी प्रहर करती आवाज प्रहार, 
कभी झींगुर कभी रेऊवा का धार। 
सुनसान इलाका सिआरों की चीख, 
कुत्तों का भोंकना सर्पों का बिख ।

रात रानी चाँदनी थी सर पर-2
था बच्चा-बच्चा मासूम मन से। 
खेलते थे खूब फैलाये सन से,
माँ थी गुनगुनाती मधुर खनक से।
हवा से लौ को बचाती जब जातीं अंगन से।

तीज कजरी पर गाना सुनाती, 
पहन नई साडी माँ त्यौहार मनाती। 
दादू का खाना दलान में लगता,
हम बच्चों को ओसारा था जंचता।

परिवार में थे सब एकजुट मिलकर, 
ना कोई शिकायत ना कोई भरम से।
रहते थे सब साथ प्रेम धरम से,
माँ थीं गुनगुनाती मधुर खनक से। 
हवा से लौ को बचाती जब जातीं अंगन से।


                                     - प्रतिभा पाण्डेय "प्रति"


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