साहित्य चक्र

23 September 2025

आज की प्रमुख रचनाएँ- 23 सितंबर 2025






दादाजी का वह पुराना जैकिट और चश्मा
मुझे आज भी याद है वह दादाजी की काले रंग की पुरानी जैकिट,
जिसे वे विद्यालय के उत्सवों,
सामाजिक कार्यक्रमों व त्योहारों पर पहना करते थे।
यह सिलसिला कई वर्षों तक बदस्तूर जारी रहा,
पता नहीं क्या कारण रहा कि उन्होंने नई जैकिट ही नहीं खरीदी।
शायद उन्हें नई जैकिट की जरूरत महसूस ही नहीं हुई होगी,
या फिर वे जैकिट जैसी वस्तु पर फिजूल खर्च नहीं करना चाहते थे।
उनकी आँखों की शोभा बढ़ाता
वह पुराना गोल कांच का चश्मा जिसकी डंडी भले टूट गई थी,
फिर भी उन्होंने कई वर्षों तक उस पुराने चश्मे की डंडी को नहीं बदला।
चश्मे की डंडी टूट भी गई तो उस पर धागा बांधकर काम चलाया,
उस पर चश्मे ने भी दादाजी पर अपना प्रेम दर्शाते हुए
पूरी तल्लीनता से कई वर्षों तक उनका साथ निभाया।
दादाजी द्वारा कई वर्षों तक नई जैकिट
न खरीदना और पुराने चश्मे से ही काम चलाना,
मुझे नहीं पता कि उसके पीछे उनका कौनसा तर्क छिपा था।
जहां आज के समय में चीजें व
रिश्ते किसी के जीवन में ज्यादा समय टिकते ही नहीं है,
शायद दादाजी जैसे पुराने लोग ही थे
जो हर रिश्ते और चीज से जुड़कर रहना जानते थे।
अब वे दादाजी जैसे पुराने लोग धीरे धीरे
हमारे बीच से अलविदा लेते जा रहे हैं,
पर जाते जाते हम सबको जीवन में एक गहरी सीख दिए जा रहे हैं।


- भुवनेश मालव


*****

काश मैं लड़का होती!

काश मैं लड़का होती!
बाइक लेकर घूमने की आज़ादी
बाहर जाने पर जवाब
देने की ज़िम्मेदारी न होती।
सड़क पर घूमने पर
लोग ये न कहते,
"अरे, ये तो मिश्रा जी की बेटी है।"

पतली हो या मोटी, या
शादी कैसे होगी, इसका
ताना न सुनना पड़ता।
काश मैं लड़का होती!
"अरे, खाना बनाना नहीं आता,
लड़की है, शादी कैसे होगी,
"ये सुनने का सिरदर्द न होता।

काश मैं लड़का होती!
बाहर जाने से पहले
हज़ार दफ़ा देखने की
चिंता न होती कि ठीक है,
कहीं से कुछ दिख तो नहीं रहा।
काश मैं लड़का होती,
खुलकर जीने की चाहत पूरी होती।

गर्लफ्रेंड-बॉयफ्रेंड होने पर
समाज में बेइज़्ज़ती और
गली की आंटियों की
पंचायत की चिंता न होती।

काश मैं लड़का होती!
रात में बाहर रहने की इजाज़त
न लेनी पड़ती।
रेप होने का डर न होता।

चाहे जो हो जाए,
भले ही नौकरी करती हो,
"खाना तो बनाना आना ही चाहिए,"
ये सुनने का सिरदर्द न होता।
काश मैं लड़का होती!
काश मैं लड़का होती!


- वैभवी मिश्रा


*****


कंचन–चंदन

जो क्षय से मुक्त सदा, वह तन कैसा?
जो हिया से रहित, वह जग कैसा?
जो बाँध ले मन को मर्यादा में,
उससे उत्तम बंधन कैसा?

जो विलास में व्यतीत हो, वह जन्म कैसा?
जो अहंकार का प्रतीक हो, वह धन कैसा?
मन रम गया हो पीताम्बर में, उससे उत्तम चिंतन कैसा?

ध्येय न्याय न हो, तो रण कैसा?
असत्य का आलिंगन करे, वह जन कैसा?
कांति कंचन की धूमिल कर दे,
उससे उत्तम चंदन कैसा!


- शिवांशी पाण्डेय


*****


"बचपन और हम"

एक ऐसा दौर जहाँ हँसी-खुशियों सी और हम, हम से थे।
एक ऐसा लम्हा जो जीते-जी जीना पाए।
एक ऐसा वक़्त जो वक़्त भुला दे… और समय रुकवा दे।
एक ऐसा किस्सा जो हर ग़म भुला दे…
और एक रौशनी ऐसी जो अंधकार भुला दे…
बचपन सुकून सा और हम चंचल से…
बचपन चाँद की शीतल रौशनी सा और हम चकोर पक्षी से…
बचपन एक शांति था, बचपन एक लम्हा था, बचपन एक प्रेम था।
बचपन एक किस्सा था और बचपन एक बचपन था।
ना आज की माया और ना आज का दुःख था…
ना आज की फ़ितरत और ना आज की किस्मत थी…
ना आज से हम और ना आज से तुम थे…
थे तो बस हम और हमारे खिलौने…
ना होता था दुःख का बोझ और ना होती थी माया की माया…
वो एक लम्हा था जो डूब गया समय में…
वो एक लम्हा था जो डूब गया समय में…
वो एक बचपन था जो बीत गया बचपन में…


- मानव. वी. बारड


*****


इससे
ज्यादा पागल
हो पाउँगा।
इतना
आवारा बादल
न हो पाउँगा।
मैं
नहीं देख पाउँगा
दो आदमियों के
काम के समय से
दो घंटे अधिक
काम करना
मगर परिणाम
शून्य गुणे शून्य
बराबर शून्य?
कारण
अठारह घंटे
काम मतलब
स्वयं के साथ ज्यादती
और शोषण,
नियमानुसार
एक आदमी
का केवल आठ घंटे काम
विधि सम्मत है,
इस प्रकार
आठ घंटे के
अतिरिक्त दस घंटे
काम करना
एक आदमी की दिहाड़ी
और दूसरे आदमी कीआँखों
में दिहाड़ी की
चमक के दो घंटे
छीनना किसी अपराध से
कम नहीं है।
रोजगार छीनना
संज्ञेय अपराध है,
राष्ट्र की नींव को दरकाना है,
विकास पर ब्रेक लगाना है,
कायर और नपुंसक
इतिहास पर रोते हैं।
पराक्रमी, पुरुषार्थी
अतीत का रोना छोड़कर
वर्तमान को दृढता से मज़बूत
करते हैं
और
नापते हैं वो डग
जो बन जाती है
अनुकरणीय लीक...
जिस पर चलते हैं सब
जाति,मजहब से मुक्त होकर
त्यागकर समस्त संकीर्णतायें
निरपेक्ष भाव से....
मगर
तुम
मज़बूत नहीं,
मजबूर
में अपना
अस्तित्व सुरक्षित देखते हो,
पर याद रखना मजबूर
जब मर्यादाएं लाँघता है...
तब उठती ऊँची ऊँची ज्वार भाटाएँ
दरकने लगती हैं
केवल अपने अस्तित्व की
रक्षा करती चहरदिवारियां...
ईमारतें करने लगती खून की उल्टियां
याद रखना
सड़कों का नंगानाच
बहुत खतरनाक
होता है...


- राधेश विकास


*****


तीस लाख का चैक चमका
साहित्यिक मंच के बीच,
तालियाँ गड़गड़ाईं,
कैमरों की फ्लैश से चमका
एक लेखक का नाम।

बधाई हो!
कवि ने रच दिया वह उपन्यास
जिसने सैकड़ों प्रतियाँ रोज़
पाठकों की अलमारियों में जगह पाई।
यह गौरव है,
यह इतिहास है,
यह हिंदी का वह उत्सव है
जिसकी प्रतीक्षा सदियों से थी।

पर,
इतिहास हमेशा सीधा नहीं होता।
प्रश्न पंक्तिबद्ध खड़े हैं,
आँखों में धधकती संशय की लपट लिए-
क्या यह बिक्री सचमुच पाठक की भूख है?
या किसी और भूख का विस्तार?

नई वाली हिंदी
अपने कोमल वस्त्र पहनकर
पुरानी हिंदी की देह पर चढ़ती है,
और कहती है-
"मैं हूँ आधुनिक!
मैं हूँ विश्व-स्तरीय!
मैं ही हूँ वह खिड़की
जिससे बाज़ार की हवा आती है।"

किन्तु,
यह खिड़की कभी
’दीवार में एक खिड़की रहती थी’ से अलग नहीं,
फिर भी अलग है।
क्योंकि वहाँ शब्द थे आत्मा के,
यहाँ शब्द हैं मुद्रा के।

रॉयल्टी का चैक
एक तमाशे की तरह लहराया गया,
मानो कहा जा रहा हो-
देखो! लेखक भी करोड़ों का खेल खेल सकते हैं।
मगर प्रश्न है-
बाकी कवि, बाकी गद्यकार,
बाकी वे सैकड़ों चेहरे
जिनकी पांडुलिपियाँ धूल खाती हैं,
उन्हें किसने पूछा?
कितनी रॉयल्टी उनके हिस्से आई?

यह व्यावसायिक स्टंट
केवल एक शोभायात्रा नहीं,
यह है सांस्कृतिक षड्यंत्र,
जहाँ एक सादगीपूर्ण लेखक की छवि
प्रकाशक की प्रचार-योजना की मूर्ति बन जाती है।

पाठक चाहिए सबको-
पर पाठक कहाँ हैं?
पाठक की दुनिया भी संकट में है।
पढ़ने की आदत
लुगदी साहित्य की आग में जल रही है,
जहाँ ’नई वाली हिंदी’
सिर्फ़ ’नई वाली फिल्म’ की तरह
अंग्रेज़ी लहजे में हिंदी का मुखौटा पहनती है।

क्या यह साहित्य है
या ग्लोबलाइजेशन का नया ब्रांड ?
जहाँ लेखक का नाम
विज्ञापन की तरह चमकता है,
पर शब्दों का दर्द
धीरे–धीरे अदृश्य हो जाता है।

रहीम ने गंग को छप्पय पर
छत्तीस लाख दिए थे,
क्योंकि कविता ने सम्राट को झुकाया था।
आज तीस लाख का चैक
कविता नहीं,
मार्केटिंग की रणनीति को झुकाता है।

कबीर-तुलसी को मदद मिली थी
मानवीय करुणा से,
आज लेखक को मदद मिलती है
किसी राजनीतिक मंच से।

कविता पूछती है-
क्या साहित्य वही है
जो बिक सके?
क्या वह शब्द,
जो आँसुओं को चीरकर निकलते हैं,
अब केवल आँकड़ों की तालिका में दर्ज होंगे?

सच यह भी है-
विनोद कुमार शुक्ल अनुपम हैं,
उनकी सादगी से लिपटी भाषा
एक गाँव की मिट्टी सी महकती है।
उन्हें मिला धन,
एक व्यक्तिगत सम्मान है।
पर यह भी सच है-
उनकी रचना को बाज़ार का उत्सव बनाकर
अन्य लेखकों की उपेक्षा
हिंदी की आत्मा पर प्रहार है।

नई वाली हिंदी!
तू कब तक नकल करती रहेगी
नई वाली फिल्मों की,
नई वाली अर्थव्यवस्था की,
नई वाली भूख की?
क्या तू कभी
पाठकों और लेखकों के बीच
साझी संस्कृति की आवाज़ बनेगी?

हमें चाहिए
नया अभियान,
जहाँ प्रकाशक लाभ नहीं,
संस्कृति का प्रसार सोचें,
जहाँ लेखक ईर्ष्या नहीं,
आपसी सम्मान बाँटें,
जहाँ पाठक किताब को
सजावट नहीं,
साँस की तरह अपनाएँ।

साहित्य का संकट
स्टंट से नहीं टलेगा।
हमें फिर से खड़ा करना होगा
पढ़ने का लोकतंत्र।
और नई वाली हिंदी को कहना होगा-
तू चमकदार आवरण नहीं,
साधारण शब्दों की गहराई बन।


- गोलेन्द्र पटेल


*****


मेरा बचपन

समय था बहुत पुराना
वह भी क्या था ज़माना
जब सबके घर में थे झांकते
बेरोकटोक था आना जाना

पट्टी पर गाज़ण थे चढ़ाते
नाल की कलम से थे लिखते जाते
केले के पत्तों को जलाकर बनती थी स्याही
कलम से हाथ मुंह काले करके थे घर आते

किताबें नई नहीं थी होती
पुरानी से काम थे चलाते
हर साल नहीं बदलते थे किताबें
बड़े भाई बहिन की किताब से थे पढ़ जाते

सैल से निकालते थे कांटा
पट्टी पर लाइनें उसी से थे लगाते
मशक देते थे उसी से अध्यापक
कान भी खींचते थे डंडे भी थे बरसाते

जूते नहीं होते थे
नंगे पांव स्कूल थे जाते
अरमानों से भरी काग़ज़ की किश्ती
बरसात के पानी में खूब थे चलाते

पैसा नहीं होता था जेब में
फिर भी कागज़ के जहाज थे उड़ाते
गुल्ली डंडा बहुत थे खेलते
गुल्ली को बहुत दूर थे गिराते

आजकल के बच्चे टैब हैं चलाते
पर हम लकड़ी की पट्टी पर थे लिखते जाते
स्लेट के ऊपर स्लेटी से थे लिखते
गलत को झट थूक से थे मिटाते

अब वह बचपन न जाने कहाँ खो गया
पीठ पर भारी बस्ता जमाने को क्या हो गया
नौनिहाल करे तो क्या करे
होम वर्क करते करते ही सो गया


- रवींद्र कुमार शर्मा


*****


“प्यार से भरे होते”

खलबली, हलचल, हाहाकार,
बेशर्मी, बेहया, भव्याचार,
कुकृत्य, चोरी, भ्रष्टाचार,
बेबस, असहाय, लाचार,
आपदा, विपत्ति, अनाचार,
दुर्घटना, आगजनी, अत्याचार,
निंदा, चुगली, कुविचार,
गोली, चाकू, बम वौछार,
खून, हमला और प्रहार,
झगड़ा, फसाद, ललकार ,
धन, जमीन, नार,
रंजिश, इर्ष्या, खार,
अल्पवृष्टि, अतिवृष्टि, बाढ़,
तूफ़ान, चक्रवात, भूकंप बार-बार,
ये चंद शब्द आजकल पा रहे व्यवहार,
अति पड़ी है इनसे हर पत्रिका, अखबार,
विपरीत शब्द इनके अगर प्रयोग में होते,
सुख चैन न अपना, न औरों का खोते,
हर घर, गली और मोहल्ला प्यार से भरे होते।


- धरम चंद धीमान


*****


बारिश की बूँद

जाती बारिश की सहमी बूंदें
बरस रहीं देखो थम-थम कर
जाने वाले का अंतस बदला
रफ्तार थमी है आज सहमकर।

बूँदों की ताकत सब जाने
बारिश की शक्ति पहचानें
देश-विदेश सब जल में डूबे
क्या जाने,क्या-क्या पहचानें।

विकल हो गयी सारी दुनिया
इस बारिश ने सबको तड़पाया
कई गाँव,शहर,उजड़े,बिखरे
जलमग्न हुए सब खूब सताया।

उफनी सब नदियाँ,सागर उछले
जगत लीलने को तैयार
कई पर्वत की साँसें डोली
आया भूभृत कर सीमा पार।

धरती काँपी, हिल उठा व्योम
देखा बारिश का रौद्र रूप
अब जाने की बेला आयी
बदला अब तो रूप अनूप।

सब आते हैं सब जाते हैं
प्रकृति ने सबको बांधा है
गर्जन-तर्जन की भी सीमा है
सुख पूरा तो दुःख आधा है।

सहमो ऐ बारिश की बूँदे!
अपने कर्मों पर लज्जित हो
फिर एक वर्ष बाद तुम आना
संस्कारों से सज्जित हो।

कभी विनाश की बात ना करना
अपना स्वरूप विकराल न करना
सुंदरता की परिभाषा
ऐ बूँद! सदा तुम सुंदर रहना।


- अनिल कुमार मिश्र


*****


हिंदी का गुणगान

हिंदी का मैं गान करता हूँ
हिंदी का मैं सम्मान करता हूँ।
कभी मीरा को सुनता हूँ
कभी कबीर को सुनाता हूँ।
कभी जायसी के रहस्य में खो जाता हूँ
कभी केशव के काव्य प्रेत से टकराता हूँ।
कभी नानक की गुरुबानी बोलता हूँ
कभी चंदबरदाई की वीरगाथा गाता हूँ।
कभी तुलसीदास की तरह
राम नाम का गुणगान करता हूँ।
कभी सूरदास की तरह
कृष्ण की हठकेलिया सुनाता हूँ।
कवि हूँ हर हाव में, हर भाव में
हिंदी का गुणगान करता हूँ।


- डॉ. राजीव डोगरा



*****


मोहब्बत की राह में दुश्वारियों, सदियों से रही हैं।

मुझे उससे मुहब्बत है, उसे भी इश्क़ हुआ है ।
आंखों आंखों में दिल की बात ये चमकती है ।

नज़रों से नजर जो मिलती, ख्वाब संवर जाता है
धुंआ, धुंआ सा है, या जुल्फें,जैसे शाम ढलती है।

हर पल हर घड़ी तेरे आने का ग़ुमाँ होता है,मुझे।
जाने कैसे ये फिज़ा है, तुझे साथ लेके चलती है,

मोहब्बत की राह में दुश्वारियों, सदियों से रही हैं।
दुख सुख की सभी माला, दुआओं से ही संवरती है

बहुत शातिर हैं,निगाहें ज़माने की सुन ले मुश्ताक़।
इश्क और मुश्क की खुशबू जब बिखरने लगती है।


- डॉ. मुश्ताक़ अहमद शाह सहज़



*****


वक़्त के साथ

वक़्त के साथ हर याद छोड़ गया हर निशान,
धुंधली सी रह गई बस वो पुरानी पहचान।

वो जमाना जब करते थे मस्तियाँ बेहिसाब,
अब सब खत्म हुआ, खो गया वो ख्वाब।

कहाँ चली गईं वो सुनहरी यादें,
क्यों रह गईं बस खामोश फ़साने।

अब तो बस याद है-
काम, काम और काम,
क्यों हो गए इतने बड़े?
आ गईं ज़िम्मेदारियाँ तमाम।

संघर्षों के साथ पूरी करने लगे ख्वाहिशें,
और बढ़ने लगे ऊँचाई की राहों में।

इसी जद्दोजहद में बीते हसीं पल,
और वक़्त उड़ गया-
पता ही न चला कहाँ निकल।

रह गईं पीछे बस यादें धुंधली,
दिल में बसी कुछ बातें अधूरी।


- गरिमा लखनवी


*****


आह! नीलापन...
जब अपराजिता का रोपण किया गया
तो मन में ये सवाल था,,,,
जब नाम इतना मोहक है
तो पुष्प कैसे खिलेंगे?
पर जिसने भी..
इसका 'नामकरण' किया ।
ठीक ही तो नाम दिया है।
कभी पराजित नहीं होना,
जब तक जीना,
ऐसे ही जीना,
निपट बंकिम,
छबीले, हंसमुख और
झिलमिलाते हुए,
गहरे नीलेपन के साथ,
जैसे सारा आसमान और समुद्र ,
सिमट आए हों एक 'बीतेभर' फूल में।
क्षणभर के लिए जीना,
पर तुम 'अपराजिता' की तरह जीना।


- वीरदत्त गुर्जर


*****


मैं बाज़ हूं...
मेरी उड़ान को ना रोक
समुद्र और तूफान...
मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते
मैं हौसला रखता हूं
तूफानों से टकराने का...
पहाड़ों से ऊंचे उड़ने का...
मैं बाज़ हूं...
तू मत काट मेरे पंखों को...
उड़ान के बगैर मेरा जीना,
मुझे कायर घोषित करता है।


- दीपक कोहली


*****


रंगमंच

मैं पढ़ूं गजल तो जमाना वाह वाह करता है,
कोई बजाता है ताली तो कोई सोचता है
तो कोई करता है टिप्पणी,
अलग-अलग प्रसंग हैं यहां तमाम के,
अनोखा रंगमंच है यह जिंदगी,
किरदार में रह कर लोग अभिनय शानदार करते हैं,
कोई करता हैं प्रेम तो दगा हजार करता है
मीठी-मीठी बातों से सौदा हजार करता है,
कोई झेलता है घाव तो कोई घाव हजार करता है,
मिन्नतों के साथ कोई मन्नत हजार करता है,
मैं दुख पढ़ता हूं अपना और जमाना हंसहंस कर बात करता है,
चुपके चुपके वह बातों में अपनी शिकायत करता है,
कोई कहता है खुद का किस्सा अनोखा
और कोई दुख की भरमार करता है,
अलग-अलग प्रसंग हैं यहां तमाम के,
अनोखा रंगमंच है यह जिंदगी,
किरदार में रह कर लोग अभिनय शानदार करते हैं,
कोई पहुंचता है सीधे और कोई मार्ग हजार करता है,
धीरे-धीरे सपनों के कोई सौदा हजार करता है,
कोई रखता है धीरज तो कोई आक्रोश हजार करता है,
धीरे-धीरे सफलता का कोई सफर हजार करता है,
मैं कहता हूं सत्य और जमाना मुंह से वाह वाह करता है,
पीठ पीछे क्या पता तानों की बौछार करता है,
भाईचारा यानी क्या! जिसमें राजा बने
रंक के महल में रंक राज करता है।


- वीरेंद्र बहादुर सिंह


*****


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