बात उस समय की है जब मेरी उम्र दस-ग्यारह वर्ष की रही होगी और मैं छठी या सातवीं कक्षा का विद्यार्थी था। बरसात के दिनों में पाठशालाओं में जुलाई महीने की पहली तारीख से लेकर अगस्त महीने की इकत्तीस तारीख तक दो महीनों की छुट्टियाँ रहती थी। इन महीनों में बरसात का मौसम होता है। स्कूल से छुट्टी का मतलब पूरी मस्ती और आज़ादी। और अगर यह छुट्टियाँ दो महीनों की हो तो फिर तो मस्ती की कोई सीमा नहीं रहती।
रात को अपनी मर्ज़ी से सोना, सुबह अपनी मर्ज़ी से जागना। हाँ ,पढ़ने के लिए मां-बाप, दादा-दादी या अन्य परिवार जन जरूर टीका-टिप्पणी करते। बरसात का मौसम मतलब पानी ही पानी। घर से बाहर निकलते ही पानी से भीगना, खेलना और मस्ती करना शुरू हो जाता था। हमें भी उस बर्ष बरसात की छुट्टियाँ हुई थी।
हर दिन बारिश में नहाना, पानी को रोक कर बाँध बनाना, बहते हुए पानी के साथ तरह-तरह के खेल जैसे कागज़ की किश्तियाँ चलाना, आम की गुठली के अंदर से कोआ (आम की गुठली के बीच का नरम भाग) निकाल कर उससे पनचक्की बनाना और उस पनचक्की पर कद्दू (एक सब्जी का नाम) की बेल जो कि अंदर से खोखली होती है और प्लास्टिक की बनी पाईप की तरह होती है और उससे अपने बनाये छोटे से बाँध से पानी गिराना और उसे घूमते हुए देखकर खूब हल्ला-गुल्ला करना।
गाँव में पशु पालन भी होता है। गाय, भैंस, भेड़ और बकरियों के लिए घर वालों की खूब डांट-डपट के बाद घास को उठाकर लाना। पूरा दिन ऐसे ही कामों में गुजर जाता और पढ़ने का काम तो सिर्फ तब ही कुछ देर के लिए होता जब मां-बाप से पिटाई की नौबत आ जाती।
बरसात के मौसम में नदी, नाले और तालाब सब पानी से सराबोर हो जाते हैं और नहाने और तैराकी करने का खुला आमंत्रण देते हुए प्रतीत होते हैं। मेरे गाँव से थोड़ी ही दूर एक खड्ड बहती है। ऐसे तो इसमें बर्षभर हल्का- फुल्का पानी रहता था, लेकिन बरसात के मौसम में इसमें खूब पानी हो जाता था।
गाँव के सभी लड़के अपनी-अपनी टोलियाँ बनाकर घरवालों से चोरी-छिपे उस खड्ड में नहाने को निकल जाते फिर घंटों वहां नहाने का मज़ा लेते और तब तक घर वापिस नहीं आते जब तक घर वालों का सन्देश उन तक नहीं पहुँच जाता या फिर घरवाले खुद उनको ढूंढते हुए खड्ड तक नहीं पहुँच जाते। फिर गाँव में उन लड़कों के नाम का खूब बखान हर घर में होता कि लाख समझाने के बाद भी खड्ड में नहाने चले गये।
फिर पहले घटी कई घटनाओं की कहानियां सुनाई जाती कि कैसे कौन-कौन लड़के उस खड्ड में नहाते हुए डूब गये थे और मौत का शिकार हो गये थे। मैं भी नहाने के लिए बहुत लालायित रहता था लेकिन मेरी मां इतनी सख्त थी कि मैं गाँव में भी खेलने निकलता था तो कई बार घर से आवाज़ पड़ जाती थी।
ऐसी स्थिति में खड्ड तक नहाने जाना मतलब अपने ही पाँव पर कुल्हाड़ी मारने के समान था। छोटी से छोटी गलती पर पिटाई होना आम बात थी। ऐसे में यदि कहीं गलती से भी खड्ड की ओर कदम बढ़ जाते तो फिर बच पाना नामुमकिन था। डर के मारे मैं बारिश में भीग कर ही नहाने का आनंद ले लिया करता था।
हालाँकि मेरे हम उम्र लड़के मुझे चिड़ाते भी बहुत थे कि तू डरता ही बहुत है। हम भी तो चुपचाप निकल लेते हैं और हमने तो तैरना भी सीख लिया है। अंदर ही अंदर बहुत मन कचोटता लेकिन मां की पिटाई और सख्त हिदायत को अनदेखा करने का साहस नहीं जुटा पाता था। हाँ मौके की तलाश में जरूर रहता था कि कोई तो ऐसा दिन हो कि मां घर पर नहीं हो और मैं भी खड्ड के अलौकिक स्नान का आनंद प्राप्त करूं।
सब्र का फल मीठा होता है ऐसा मैंने सुना था और समझ में तब आया जब एक दिन मेरी दादी मां बीमार हो गई और मेरे पिता जी घर में नहीं थे। दादी मां की हालत बहुत ज्यादा खराब हो गई थी। मां ने फैसला किया कि वो दादी मां को अपने आप ही पांच किलोमीटर दूर अस्पताल में डाक्टर को दिखाने ले जाएँगी।
मां की इस बात को सुनकर मेरा मन बाग-बाग हो रहा था। मुझे लग रहा था जैसे कोई वर्षों पुरानी मन्नत पूरी होने जा रही थी। मां जैसे ही दादी को लेकर घर से निकली मुझे बहुत सी हिदायतें दी गई। मैं भी हाँ में हाँ मिलाता गया। जैसे ही वे दोनों आँख से ओझल हुईं मैं अपनी टोली संग भागता हुआ खड्ड के पास पहुँच गया। नहाने का सिलसिला चल पड़ा। सभी लड़के तैर रहे थे लेकिन मुझे तैरना नहीं आता था।
सब मुझे डरते हुए नहाते देखकर मेरा मजाक बना रहे थे, लेकिन मैं उनकी बातों से बेखबर नहाने का आनंद ले रहा था। बीच-बीच में मां की हिदायतें भी याद आ रही थी, लेकिन खुद को मन ही मन हौंसला देता था कि अभी तो वे शाम तक ही आएँगी।
तब तक तो मैं घर जा कर पढ़ने बैठ जाऊंगा, लेकिन इस परमानंद में समय कब निकल गया पता ही नहीं चला। मां और दादी घर भी आ गई और मुझे घर में न पाकर वो लाल-पीली हो गई थी। उनको किसी ने बता दिया था कि मैं खड्ड में नहाने को लड़कों की टोली संग चला गया था। पता लगते ही मां ने हाथ में एक लम्बी पतली छड़ी ली और खड्ड की ओर रवाना हो गईं।
मैं मस्ती में भूल गया था कि अब तक मां आ गई होंगी। मां को बाकि लड़कों ने देख लिया होगा वे चुपचाप एक-एक करके पानी से बाहर निकलते रहे और इधर-उधर भागते रहे। जब तक मुझे बात समझ आई तब तक मेरी मां वहां पहुँच गई थी, जहाँ से मैंने पानी से बाहर आना था।
बस फिर क्या था कितनी देर तक अंदर रहता जैसे ही बाहर आया मैं कपड़े भी नहीं पहन पाया। शरीर पर बस चड्डी पहनी हुई थी। लम्बी-पतली छड़ी जैसे ही शरीर पर पड़ती वो ऊपर से नीचे तक निशान छोड़ रही थी। कपड़े भी पड़े हुए रह गये और मैं जैसे-तैसे वहां से छूटकर भागा और घर तक नंगा ही दौड़ता हुआ आ गया।
फिर जब मां मेरे पीछे-पीछे घर पहुंची तो खड्ड में नहाने के आनन्द की पूरी कीमत डांट और पिटाई से वसूल की गई। उस दिन के बाद मैं मौका मिलते हुए भी खड्ड में नहाने नहीं गया, लेकिन मुझे आज भी इस बात का दुःख कभी-कभी जरूर होता है कि मैं उस समय पानी में तैरना नहीं सीख पाया और आज भी मुझे तैरना नहीं आता है।
- धर्म चंद धीमान
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