जीवन होता है संग्राम
बुढ़ा, बच्चा और जवान,
जीवन है एक संग्राम।
बचपन में खेला, रोया,
चीज़ों का था संग्राम।
माँ-पिता और परिवार का दुलार,
फिर भी बचपन में चीज़ों का तकरार।
युवा अवस्था की लाचारी,
नौकरी का बोझ था भारी।
समय जब हुआ बलवान,
उसने किया ऐसा काम।
हर तरफ फैली बेगारी,
नौकरी में थी बस लाचारी।
सीटों पर बैठा ईमान,
समस्याओं का चलता रहा कारवां।
एक के बाद एक समस्याओं का रोल,
दूसरी ओर घर का सामान।
बिकता रहा खुद का ईमान,
जीवन था कितना संग्राम।
बुढ़ापा आया तो लाचारी,
आँखों पर छाई थी भारी।
रिश्ते हुए सब बेकार,
लाठी ही बनी सहारा।
रिश्ते अब बस नाम के,
और सब सामान के।
जीवन है एक संग्राम,
बचपन रोया खेल-खेल
जवानी रोई समस्याओं के मेल
बुढ़ापा रोया सारी जवानी।
फिर भी चैन न पाया,
जीवन होता है एक संग्राम।
बच्चा, बुढ़ा और जवान।
- सीमा
बुढ़ा, बच्चा और जवान,
जीवन है एक संग्राम।
बचपन में खेला, रोया,
चीज़ों का था संग्राम।
माँ-पिता और परिवार का दुलार,
फिर भी बचपन में चीज़ों का तकरार।
युवा अवस्था की लाचारी,
नौकरी का बोझ था भारी।
समय जब हुआ बलवान,
उसने किया ऐसा काम।
हर तरफ फैली बेगारी,
नौकरी में थी बस लाचारी।
सीटों पर बैठा ईमान,
समस्याओं का चलता रहा कारवां।
एक के बाद एक समस्याओं का रोल,
दूसरी ओर घर का सामान।
बिकता रहा खुद का ईमान,
जीवन था कितना संग्राम।
बुढ़ापा आया तो लाचारी,
आँखों पर छाई थी भारी।
रिश्ते हुए सब बेकार,
लाठी ही बनी सहारा।
रिश्ते अब बस नाम के,
और सब सामान के।
जीवन है एक संग्राम,
बचपन रोया खेल-खेल
जवानी रोई समस्याओं के मेल
बुढ़ापा रोया सारी जवानी।
फिर भी चैन न पाया,
जीवन होता है एक संग्राम।
बच्चा, बुढ़ा और जवान।
- सीमा
*****
प्रेम
अगर मैं किसी दिन अपना प्रेम
चुन लूंगा
उस लड़की को
जिसे प्रेम के नाम पर छल लिया होगा
किसी लड़के ने
या
छोड़ दिया होगा उसके प्रेमी ने
किसी सुखमय जीवन के लालच में।
बेहतर लड़की को ब्याहने के लिए।
तुम भी जब चुनना अपने प्रेमी को,
तो अपना लेना प्रेम में विरह काटते
उस लड़के को, जिसकी प्रेमीका ने
छोड़ दिया होगा उसे
किसी बेहतर सौंदर्य की लालसा के लिए ,
इसलिए नहीं कि टूटे लोग हृदय से प्रेम करते हैं,
बल्कि इसलिए कि
इससे दुनिया में कम से कम दो
लोगों का दुःख कम हो जाएगा..
- विकास कुमार शुक्ल
*****
दुनिया बड़ी अजीब
है ये दुनिया बड़ी अजीब, है ये दुनिया बड़ी अजीब,
देखने में तो सीधी लगती, पर उलटी यहाँ हर चीज़।
जीते जी कोई साथ न आता, मरने पर गुणगान है गाता ,
आँख न भाता जो जीते जी, मरने पर सब जोड़े नाता ,
देख –देख ये दुनियादारी, मन में उठ जाती है खीझ,
है ये दुनिया बड़ी अजीब, यहाँ पर उलटी है हर चीज़।
जिन्दा इंसान को ठोकरें मार, पत्थर समान ठुकराते,
बेजान पत्थर की बना मूर्ति, नतमस्तक सर झुकाते,
नमक जख्मों पर छिड़क, मन क्यूँ नहीं जाता पसीज,
है ये दुनिया बड़ी अजीब, यहाँ पर उलटी है हर चीज़।
पड़ोसी तड़पता भूख से, मंदिर जाकर भोग लगाये,
बहु मंजिला घर होते भी, वृदाश्रम मां बाप पहुंचाए,
न जाने किस फल के खातिर, बोये जा रहे ये बीज,
है ये दुनिया बड़ी अजीब, यहाँ पर उलटी है हर चीज़।
- धरम चंद धीमान
*****
जन्मदिन
तू सूरज है, मेरे आसमान का,
और है गुलाब मेरे गुलशन का।
मंज़िल है,तू मेरे इस जीवन के सफर का,
किनारा हो तुम, इस गहरे समुंदर का।
तुम मोती हो,में छुपाए रखती हूं सीप हूं,
तुम चिराग़ हो, इस अमावस की रात का।
तू है मेरी सारी खुशी सारी दौलत और जीने की वजह।
खुश रहे तू सदा, न हो जीवन में कोई उदासी की जगह।
हर दर्द, गम,मुश्किल,पीड़ा
और परेशानी रहे तुमसे दूर।
रहो खुश हमेश, मुस्कुराओ और
जीवन का हर पल आनंद लो भरपूर।
- रौशन कुमार झा
*****
नज़र
कभी कभी जिंदगी साईकिल सी नज़र आती है
जब रफ्तार पर आती है तो चेन उतर जाती है
जब आरामों चैन की उम्मीद हो आती है
एक गाड़ी बड़ी सामने रुक जाती है
कभी कभी जिंदगी साईकिल सी नज़र....
सफर ए जिंदगी सरगम सी लहराती है
तेज हॉर्न और हैंडल लड़खड़ा जाती है
कभी कभी जिंदगी साईकिल सी नज़र...
जरूरतों की "नरेन्द्र" पैडल घुमाई जाती है
गड्ढों से पहिए की रफ्तार थम जाती है
कभी कभी जिंदगी साईकिल सी नज़र....
- नरेन्द्र सोनकर बरेली
*****
यही सत्य है
यही सत्य है
ससुराल में
वही औरत सुखी है
जो अपने पति का कहना मानती है
और
सास- ससुर की सेवा करती है।
और जो औरतें
जुबान लड़ाने वाली,
अक्कडू,
घमंडी,
चीखने-चिल्लाने,
गंदे चरित्र वाली
और
गुस्सा करने वाली
औरत कभी खुशी नहीं रहेंगी,
उनकी जिंदगी
ख़ुद अंधेरे में ही रहेंगी।
- राजेश कुमार बौद्ध
*****
नन्हीं चिड़िया
नन्हीं चिड़िया बड़ी प्यासी,
दौड़ के पास वो मेरे आई,
प्यार-प्यार से ऐसे चहचहाई,
बिल्कुल भी मुझसे न घबराई।
गला सूखा था उसका प्यास से,
मुझको देखे प्यारी सी आस से,
दिल मेरा उसको देख पसीजा,
पानी से मैंने उसकी प्यास बुझाई।
प्यास बुझाकर वो मेरे कंधे पर बैठी,
मुझको लगा जैसे हो मेरी बेटी,
थोड़ा सा दिया उसको दाना दुनका,
उसको खाकर उसने अपनी भूख मिटाई।
हर रोज अब वो मेरे घर आती,
सुबह सुबह अपनी चहचहाहट से मुझे जगाती,
तिनके चुगकर वो मेरे घर लाती,
मेरे घर अब वो अपना घर है बनाती।
नन्ही चिड़िया बहुत है प्यारी,
बच्चों से खूब आंख मिचौली खेलती,
हर पेड़ की डाली पर करती वो सवारी,
लुप्त हो रही इस प्रजाति को बचाएं।
- कै. डॉ. जय महलवाल अनजान
*****
गांवा बड़ा प्यारा
असाँ रे गांवा रा जीना बड़ा प्यारा
इथी दिखदा कुदरता रा सोहणा नजारा
साफ सुथरा वातावरण कने
हरे -भरे पेड़ाँ रा नजारा
ईखा -उखा खिली रे सोहणे -सोहणे फूलां
कने इनाँ फूलां पर उड़दे
भौरेंया रा गुंजन बड़ा प्यारा
असाँ रे गांवा रे सोहणे- सोहणे पंछी
कने तिनारा चहचहाना लगदा बड़ा प्यारा
असाँ रे गांवा रा जीना बड़ा प्यारा
इक तां असाँ रे गांवा रे
लोग बड़े भोले-भाले
दूजे इनारे रहने रा ढंग बड़ा प्यारा
गांवा रे लोग होंदे बड़े मिलनसार
कने इनारा आदर- खातर
करने रा तरीका बड़ा प्यारा
गांवा रे लोग दुःख -सुख
चाहे कोई भी हो मौका
हमेशा एक दूजे रा साथ निभाँदे
इनहा वजहां तेही लोग बोलदे
असाँ रे गांवा रा जीना बड़ा प्यारा
आज असां रे गांव नी रहे
शहराँ ते किसी मामले च कम
आज सड़काँ, स्कूलाँ, अस्पतालाँ
कने अलग -अलग ऑफिस
गाँवाँ च खुली गए
आज असां रे गाँवा च
लगयादा तरक्कीया दा लशकारा
आज असां रे गांवा हर जगहा नजर आयादी
तरक्कीया कने खुशहालिया री बहार
आज लोग बड़े गरवा ने बोल्या दे
असां रा गाँव स्वर्गा सा ही सुन्दर
कने स्वर्गा सा ही प्यारा
असाँ रे गांवा रा जीना बड़ा प्यारा
असाँ रे गांवा रा जीना बड़ा प्यारा
स्वरचित एवं अप्रकाशित रचना
- प्रवीण कुमार
*****
अडिग रहो कर्तव्य-पथ पर
अडिग रहो कर्तव्य पथ पर,
भले ही राह कठिन और कांटों से भरी हो,
धैर्य की छाँव तले चलता यात्री
एक दिन मंज़िल तक पहुँच ही जाता है।
तूफ़ान चाहे कितने ही प्रबल हों,
लहरें चाहे कितनी ही उग्र हो उठें,
जो मन स्थिर रखे अपने संकल्प पर,
वही नाव किनारे लगाता है।
सफलता तुरंत नहीं मिलती,
वह तप की भट्टी में तपाकर आती है,
असंख्य विफलताओं की धूल झाड़कर
हृदय में आशा का दीप जलाकर आती है।
कर्तव्य-पथ पर गिरो तो मत रोना,
संघर्ष के पत्थरों को सीढ़ी बनाना,
हिम्मत की डोर थामे रहना,
क्योंकि हार भी एक दिन जीत का पैग़ाम लाती है।
याद रखो—
अडिग चट्टानों से टकराकर ही
नदी अपनी धारा पाती है,
और सूर्य भी अंधकार चीरकर
नव प्रभात जग में फैलाता है।
इसलिए—
अडिग रहो कर्तव्य पथ पर,
कर्म ही जीवन का सच्चा साधन है,
विश्वास रखो, निस्संदेह एक दिन
सफलता तुम्हारे चरण चूमेगी।
- मधु शुभम पाण्डे
*****
रिश्ते
अनभिज्ञ नहीं हूँ मैं
अपने अंदर के अंधकार से
जिसका अहसास मुझे
मेरे जलते रिश्तों ने कराया
खून के अपनों ने
प्रतिपल योजनाबद्ध तरीके से
हृदय में अंधकार कर दिया
रोशनी निगलकर
छटपटाता रहा मैं
गहन अंधकार में
विलाप करते,बिलखते जीवन में,
निश्छल अनुराग लिए
कुछ मित्र आये
आत्मा अपने प्रकाश को समझ पायी
आलोकित आत्मा
सौभाग्य की राह पर
बढ़ सकी
अनभिज्ञ आज भी नहीं हूँ मैं
जानता हूँ
मित्र ही रिश्ते हैं
और रिश्ते
अविजित शत्रु।
- अनिल कुमार मिश्र
*****
पितृ पक्ष
यूँ तो दाना रोज़ बिखराती,
पंछी आकर चुग ही जाती।
गउवें भी देहरी पर आतीं,
निज हाथों से मैं उन्हें खिलाती।
धर्म कहता है,इन पंद्रह दिनों में,
पूर्वज द्वारे पर आते हैं।
आदर, सत्कार पाकर फिर,
आशीष देकर चले जाते हैं।
कर में कुश और तिल लेकर,
मुख दक्षिण की ओर कर,
उल्टे हाथों से जल बहाओ।
जब तिथि अपनों की आए,
दोने में पकवान सजाओ,
काग और श्वान को जा खिलाओ।
माना है ये धर्मकर्म की बातें,
पर कुचले कैसे मन की जज़्बाते?
क्या काग-श्वान ही तुम्हारे रूप?
तुम तो हो इस गृह के भूप।
माना, चले गए दूर कहीं,
पर रहते हो मन में यहीं।
काग-श्वान को पूर्वज मानूँ?
यह मुझसे न होगा नाथ
क्षमा कर देना नाथ।
चाहे जिस लोक में तुम जाओ,
आशीष सदा हमें ही पाओ।
- सविता सिंह मीरा
यूँ तो दाना रोज़ बिखराती,
पंछी आकर चुग ही जाती।
गउवें भी देहरी पर आतीं,
निज हाथों से मैं उन्हें खिलाती।
धर्म कहता है,इन पंद्रह दिनों में,
पूर्वज द्वारे पर आते हैं।
आदर, सत्कार पाकर फिर,
आशीष देकर चले जाते हैं।
कर में कुश और तिल लेकर,
मुख दक्षिण की ओर कर,
उल्टे हाथों से जल बहाओ।
जब तिथि अपनों की आए,
दोने में पकवान सजाओ,
काग और श्वान को जा खिलाओ।
माना है ये धर्मकर्म की बातें,
पर कुचले कैसे मन की जज़्बाते?
क्या काग-श्वान ही तुम्हारे रूप?
तुम तो हो इस गृह के भूप।
माना, चले गए दूर कहीं,
पर रहते हो मन में यहीं।
काग-श्वान को पूर्वज मानूँ?
यह मुझसे न होगा नाथ
क्षमा कर देना नाथ।
चाहे जिस लोक में तुम जाओ,
आशीष सदा हमें ही पाओ।
- सविता सिंह मीरा
*****
No comments:
Post a Comment