साहित्य चक्र

02 September 2025

आज की लोकप्रिय रचनाएँ- 02 सितंबर 2025




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उड़ान इतनी आसान न थी,
न था कोई साथ।
सूखे पत्ते को जीवंत करना,
थी जैसे कोई बात।

अड़चनें थी, फिर भी उम्मीद थी,
अंधियारे में जैसे कोई जलता सा दिया।
तूफान भी था, समुद्र में हलचल भी,
डर भी था, फिर भी एक उम्मीद थी।

मैं चलती रही, राह बनते रहे,
विश्वास बढ़ता गया, मन तीव्र उद्घोष करने लगा।
व्याकुल, वेग लिए, 
नित नए संभावनाएं तलाशने लगा।

मंजिल की और बढ़ते हुए,
ये जीवन नए संघर्षों को झेलता गया।
दिन, सप्ताह, साल और उम्र,
सब तकाजे में बैठे रहें,
और मिली आजादी की उड़ान।


                                                         - पूनम गूंजा



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वो हमारा  दर्द कुछ  इस तरह बाँट लेता है।
एक पौधा लगाकर पूरा जंगल काट लेता है।

माया,मोह, दुनियादारी क्या है, कुछ भी नहीं,
बस यही समझाकर ले पूरा राजपाठ लेता है।

कभी तारीफ कभी ताने क्या क्या नहीं मारता,
अपनी मतलब पर मुँह मीठा,हमारी पर डाट लेता है।

खुद आराम करता खुद सुस्ताता है मजे से,
जब हमारी बारी आती है जड़ से छाँट लेता है।

सिर्फ भाषणों में जन की पीड़ा रोता है रातदिन,
देने की बारी आती है कर खुद बंदरबाँट लेता है।

पहले हाथ फैलाकर झोली भरता है विकास,
पेट भर जाये तब अपना आकार विराट लेता है।


                                               -  राधेश विकास



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ख़्याल आया है

दुःखों   का   ऐसा  भूचाल  आया  है,
जिसने भी सुना उसे मलाल आया है।

घेरा है  हर तरफ़ से  चिंताओं ने मुझे,
क्यों ज़िंदगी में ऐसा  बवाल आया है।

सुख सारे  दरकिनार  हो गये हैं कहीं,
उदासियों में  इतना  उछाल आया है।

हर घड़ी मेरी  तकलीफ़ों में ही गुज़री,
ना जाने कैसा मनहूस साल आया है।

मिटा  दूँगा  अपना  व्यर्थ  सा जीवन,
ख़ून  में  बेतहाशा  उबाल  आया  है।

जीने की चाहत सी  हो  गई है ख़त्म,
मन में खुदकुशी का ख़्याल आया है।

अब   जियूँ   या   मरूँ,  कैसे   करूँ,
बार-बार दिल में यही सवाल आया है।


                                                          - आनन्द कुमार



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एहसास


कैसे बताऊँ कुछ कह ना पाऊं,
वो अजनबी अनकहा एहसास हो तुम।

पूरी हो गई हो जो बिन कहीं मांगे,
मन में दबी वो प्यारी अरदास हो तुम।

भुलाने से भी जो भूल न पाए,
एक ऐसी हसीन मुलाकात हो तुम।

लम्बी उष्णता के बाद जो बरसे,
शीतल बौछारों की वो हल्की बरसात हो तुम।

विराट मरुस्थल पर भी जो उग जाए,
ऐसी सजीली नर्म हरी-हरी घास हो तुम।

तोड़ डाले जो दंभ जिद्दी पाषाण ह्रदय का,
वो अनूठा धीरे-धीरे उठता जज्वात हो तुम।

हल जिनका करना न हो आसान,
विवेकी जन के मष्तिष्क के वो स्वालात हो तुम।

रह-रह कर जो बुझती फिर उठती,
एक ऐसी अशांत चंचल प्यास हो तुम।

हर दिन हर पल दे रही शुभ फल,
मेरे ह्रदय को आ गई अब रास हो तुम।

कभी न जिसका अंत कोई चाहता,
विराट धरा पर छाई वो मधुर चांदनी रात हो तुम।

आँखों ही आँखों में जो पूरी हो जाए,
दो दिलों में इशारों में होती जो मुकम्मल बात हो तुम।

अपनी ही धुन में मस्त किसी शायर के,
ख्याली समंदर में डुबकी लगाते ख्यालात हो तुम।

हर चेहरे पर फैलती मुस्कान तेरे होने से,
पर क्यूँ लगता है जैसे मन ही मन उदास हो तुम।

होंगी किसी के भी लिए आम,
मेरे लिए तो विशिष्ट और खास हो तुम।

कैसे बताऊँ कुछ कह न पाऊं,
एक अजनबी अनकहा एहसास हो तुम।


- धरम चंद धीमान



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बेबस मां

जिसको पाने के लिए,
प्रार्थना में जाने कहाँ-कहाँ करबद्ध हुए ,
दर-दर शीश नवाया,
आज उसी औलाद ने सर मां का है झुकाया।

मां के ही जिस्म के लहू से,
जिसने पाई थी शक्लो-सूरत।

आज उसी के बद्सलूक से,
बन गई है मां पत्थर की मूर्त।

जिसकी तालीम को पूरी करवाने,
उसने बेच डाले अपने सारे गहने।

गिरवी रख दी थी सारी जमीन,
हाय ! उसी ने बनाया आज उसे दीन।

खाँसने पर भी जिसके वो सिहर उठती,
बीमार होने पर ,ठीक होने की मन्नतें मांगती।

उस नामुराद को आज क्या हो गया,
शादी के बाद पूरी तरह बदल गया।

जो सारे जहाँ से पाती थी अदब,
उसकी औलाद ही आज उसके दुःख का है सबब।

सोचने को बो है मजबूर,
क्या औलाद को जन्म देना है कसूर।

जिसकी ख्वाहिशों को पूरी करने की खातिर,
दिन- रात करती थी मेहनत ,भूखे भी रहकर।

सोचती थी कि एक दिन कलेजे का ये टुकड़ा,
दूर कर देगा उसका हरेक दुखड़ा।

खुद भूखे रहकर जिसे पेट भर खिलाया,
उसने ही मां को दो वक्त रोटी के लिए सताया।

जिसको हर दुःख से बचाने को मां ने आँचल में छुपाया,
हाय ! मां के झुर्रियों वाले चेहरे पर भी उसे तरस न आया।


- लता कुमारी धीमान



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बुढ़ापा


सुबह सुबह किसी ने द्वार खटखटाया 
मै लपक कर आया.
दरवाजा खोला तो सामने बुढ़ापा खड़ा था.
भीतर आने के लिए जिद पर अड़ा था .
मैने कहा नहीं भाई अभी नहीं 
अभी तो मेरी उम्र ही क्या है 
वह हंसा और बोला बेकार की कोशिश ना कर.
मुझे रोकना नामुमकिन है.
मैने कहा अभी तो कुछ दिन रहने दे 
अभी तक अपने लिए ही जिया हूं 
अब अकल आयी है तो 
कुछ दिन दूसरों के लिए
और दोस्तों के साथ भी जीने दो.
बुढ़ापा हंस कर बोला 
अगर ऐसी बात है तो चिंता मत कर 
उम्र तेरी भले ही बढ़ेगी 
मगर बुढ़ापा नहीं आएगा.
तूं जब तक दूसरों के लिए जिएगा
खुद को जवान ही पायेगा।
तो दोस्तोः
चलो आज से ही बढ़ती उम्र का लुत्फ उठाएं 
दूसरों और दोस्तों के लिए जीना शुरू करें 
और बुढ़ापे को जवान बनाएं 
जब तक जिंदा रहें जवान रहें।


                                                     - अर्जुन कोहली



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आख़िरी हिम्मत

ऐ मायूस इंसान, 
बस एक आख़िरी हिम्मत जुटा के देख,
खुद की नज़रों में खुदी को, 
खुद का ख़ुदा बना के देख।

तेरा समंदर तू, तेरा आस्माँ तू,
तेरा दरिया तू, तेरा ज़रिया तू।

कर इबादत तू खुद से खुदी की,
होगी हासिल जो भी तेरी मंज़िल थी,
मेहनत कर, और खुद को, 
खुद का ख़ुदा बना के देख।


                                          - रविन कुमार



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नाम उसका कहीं लिखा होगा,
मुझसे बेशक सही  गिला होगा।

बेवजह हम नहीं सताएंगे,
यूं छुपा कर तुझे  रखा होगा।

हसरतें पा रखी उसी की है,
रात को नींद से जगा होगा।

फूल खिलकर गिरा जो शाखों से,
देख कांटा उसे हंसा होगा।

भूल जाऊं उसे भला कैसे,
उसके जैसा न कुछ खरा होगा।


                                                    - कांता शर्मा



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पगडंडी

कोई निर्मित करता नहीं मुझे,
अक्सर स्वयं बन जाती हूँ,
पत्थर, सीमेंट की कोई जरूरत नहीं
कच्ची मिट्टी में बन जाती हूँ,
बोलने को तो मैं रास्ता हूँ ,
पगडंडी कहलाती हूँ...

सड़क जैसी चौड़ाई नहीं मेरी
सरपट दौड़ता कोई वाहन नहीं
प्राकृतिक रूप से बन जाती हूँ,
टेड़ा मेढ़ा, घुमावदार स्वरूप मेरा
पैदल चलने वालों को प्यारी हूँ
बोलने को तो मैं रास्ता हूँ,
पगडंडी कहलाती हूँ...

मनुष्य, पशुओं के पैरों से दब दब कर
निर्माण मेरा हुआ है,
सड़क से महामार्गो तक वजूद मेरा रहा है,
सिर्फ इतिहास की झलक नहीं हूँ मैं,
जाम जब सड़कों पर होता बहुत
परेशान इंसान तब होता देखो,
फरिश्ता बन कर याद आती हूँ
बोलने को तो मैं रास्ता हूँ,
पगडंडी कहलाती हूँ...

सुविधाओं का ढेर लगा है आज सारे
फ़ुर्सत कहां है किसी के पास ,
धूप छांव कहां देखी है मैंने
रुक जाए जहां रफ़्तार वाहनों की
डगर कठिन जब हो जाती
मंजिल तक जाती हूँ
बोलने को तो मैं रास्ता हूँ ,
पगडंडी कहलाती हूँ...


- बाबू राम धीमान



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सितम्बर-अम्बर-चटम्बर

मत बरस अब ओ अम्बर
अब आ गया है सितम्बर।

बादलों को फोड़ कर
पहाड़ों को तोड़ कर
नद-तीर को मरोड़ कर
बे-सहारों को बहा कर
बस्तियों को तबाह कर
दिखा चुका है तू चटम्बर
मत बरस अब ओ अम्बर
रहम कर ओ सितमगर
अब चल रहा है सितम्बर।

पहाड़ देवभूमि है बंदन के लिए
बनी अब जन-क्रन्दन के लिए
थी देव दर्शन -भ्रमण के लिए
नाकि शहरी अवासन के लिए।

जंगल- कटान रोड- चौड़ान
पहाड में कंक्रीट-वन निर्माण
बदल दिया मौसम का ईमान
बोल इन्सां क्या करे भगवान


- डॉ. अनेक राम सांख्यान



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सुबह का संदेश 

सुबह सुबह  की एक 
आदत सी लग गई 
अपनों को संदेश भेजना 
बस यही मन में घर कर गई।
अपना जो समझते
वो जबाब भी देते 
कुशल क्षेम भी पूछ लेते।
कुछ इसे पढ़ना मात्र
औपचारिकता समझते
संदेश पढ़कर चुपचाप बैठ है जाते।
कई तो संदेश रोज पढ़ते
पर जबाब एक दिन नहीं देते।
अगर कोई अपना समझकर रोज 
याद है करता 
उसको याद भरा संदेश
भेजने से कुछ नहीं घटता।
दोस्तों  ज़िन्दग़ी  बड़ी लम्बी नहीं 
अपनों की याद आती-जाती है
गर मन में हो अपनापन कहीं।


- विनोद वर्मा


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अनसुनी कहानियाँ और समय

कुछ कहानियाँ मौन में जन्म लेती हैं,
आत्मा की गहराई में अंकुर बनकर।
वे शब्दों में ढलना चाहती हैं,
पर समय की लहरें उन्हें बहा ले जाती हैं।
हर जीवन एक ग्रंथ है अधूरा,
कुछ पन्ने लिखे जाते हैं,
कुछ सदा कोरे रह जाते हैं।

कोरे पन्नों पर ही अनसुनी कहानियाँ
अपनी छाया अंकित कर जाती हैं।
कभी ये कहानियाँ पिता की
आँखों की थकान में छिपी होती हैं,
कभी माँ की चुप्पियों में,
कभी प्रेम की अधूरी धड़कनों में,
कभी साधक की मौन साधना में।

समय सुनता है सब-
वह साक्षी है हर अनकहे शब्द का।
वह जानता है कि हर मौन भी
एक गूढ़ संवाद है,
जो केवल आत्मा और
अनंत के बीच घटित होता है।
जब शरीर मिट्टी को सौंप दिया जाता है,
तब भी ये कहानियाँ समाप्त नहीं होतीं,
वे आत्मा के साथ अगले जन्मों तक
मौन संदेश बनकर चलती हैं।

अनसुनी कहानियाँ ही
मनुष्य को गहन बनाती हैं,
वे हमें सिखाती हैं-
कि सत्य केवल कहा ही नहीं जाता,
कभी-कभी चुप रहकर भी
युगों तक जिया जाता है।


- मधु शुभम पाण्डे


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