नमन जयदीप! सर्व प्रथम तो आपके पटल को स्थापना दिवस की भूरी भूरी बधाई।
"देखी कितने ही पटल, पर आपसा नाहि कोई।"
जैसा की आप सभी सुधि जनों को ज्ञात है कि मेरे दादू नित्यानंद चटर्जी एक स्वदेश प्रेमी थे तो उन्हीं की पत्नी मेरी दादी मृणालिनी चटर्जी का देश के प्रति मौन समर्पण मेरी स्मृतियों में एक दैदीप्यमान चारित्रिक दृढ़ता की भांति छाया हुआ है।
दादू की अपेक्षा मेरी दादी के साथ बिताए गए पल ज्यादा स्पष्ट रुप में परिलक्षित है, क्योंकि उनके समय में मै एम ए कर रही थी, बड़ी थी उन्हीं के मुख से मैं अपनी दादू की कहानी सुनती रहती थी। बैभव की चमक भले ही उनके चेहरों पर दिखाई नहीं देती थी पर चारित्रिक दृढ़ता एवं त्याग की मूरत थी वह। उनके बेटे अर्थात मेरे ताऊ, चाचा,आदि उनको दोषारोपण करते थे, उनके गहनों को देश के प्रति न्यौछावर करने के लिए तो वह मुझे कहतीं थी यह नासपीटे क्या जाने देश प्रेम की ललक क्या होती है।
मेरी दादी डायरी लिखती थी बंगला भाषा में जिसे मै ही पढ़ पाती थी, क्योंकि बंगला भाषा लिखने पढ़ने का ज्ञान मेरे चाचा, ताऊ यहां तक की मेरे पिता जी को भी नहीं था। मैंने बंगला भाषा अपनी मां से ही सीखा था।
मेरी दादी ने बंगला भाषा में पूरा रामायण लिखा था,वह जो लिखती थी उसमे हृदय के उन त्रासदियों का जिक्र होता था जिसमें उनके अभाव के साथ साथ एक दृढ़ इच्छाशक्ति एंव मां की ममता की पीड़ा भी परिलक्षित था,वह भाव उस दर्द ने मेरे सुकोमल मन को इतना प्रभावित किया कि मैं स्वयं लेखनी की संगिनी बन गई।
मेरा मन तो आज भी यह कहता है कि दादू से श्रेष्ठ मेरी दादी थी जिन्होंने दादू के देश प्रेम को अक्षुण्ण रखने के लिए अपनी अभावों की आंच भी उनको अनुभव नहीं करने दिया, वह एक जज की बेटी थी अभाव से उनका कोई नाता नहीं था,पर दादू के देश प्रेम में उन्होंने वह सब कुछ सहा जो किसी भी साधारण स्त्री के लिए संभव नहीं था।
वह बंगला में अपनी डायरी लिखती थी डायरी में एक वाक्या का जिक्र किया था जिसे मैं आप लोगों से साझा करना चाहती हूं। जब तीसरी बार मेरी मां ने मुझको गहने बनवाकर दिए और कहा तुझे मेरी सर की कसम, अब तू ये गहने बेचेंगी नहीं। तब मेरा जवाब था, मेरे घर में चूल्हा न जले और मैं गहना पहन कर घूमूं, यह मुझसे न होगा मां, ले लो तुम अपने गहने मुझे नहीं चाहिए तुम्हारे ये गहने।
भले ही तुम्हें दिखाई न पड़े मां पर मैं सर से पांव तक देश प्रेम की अनमोल गहने से लदी हूं, इसके आगे मुझे और कुछ नहीं चाहिए। उनके अंतिम संस्कार के बाद मैंने बहुत ढूंढा उनकी वह डायरी, पर पता नहीं किसने ली उस समय मैं उतनी बड़ी भी नहीं थी कि उस डायरी के लिए सबसे जिरह करूं। मेरी दादी पान की बहुत शौक़ीन थी अतः जब भी पान की तलब लगती थी मुझे ही कहती थी,रत्ना एक पान लगा दे, मैं पान लगा कर उसे कूट कर देती थी कारण दांत कमजोर होने के कारण वह चबा नहीं पाती थी।
वह अक्सर यह कहती थी पान लगाना भी एक कला है जो अच्छा पान लगाना जानता है समझो वह खाना भी अच्छा बना लेगा। धन्यवाद जयदीप पत्रिका को जिनके कारण मैं अपनी महान दादी की स्मृतियों को संजो सकीं।
- रत्ना बापुली / लखनऊ, उप्र
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