साहित्य चक्र

29 September 2025

संस्मरण- लोकगीत ह‌मारी विरासत हैं!

स्नेह का सच्चा बन्धन तो दादी और नानी के साथ ही होता है। लोग कहते भी हैं- "मूल से ज़्यादा सूद प्यारा होता है।" यह कथन नानी और दादी जी पर सटीक बैठता है। वस्तुतः जो समय बच्चों के परवरिश का है वही समय आर्थिक पक्ष को समृद्ध करने व विभिन्न दायित्वों का भी होता है।





आज के समय जब एकल परिवार अधिक हो गए हैं, तब बच्चों की परवरिश एक समस्या के रूप में उभरकर आयी हैं। संयुक्त परिवार में बच्चा कब बड़ा हो गया, इसका आभास भी नहीं हो पाता था क्योंकि उसमें संस्कार-वपन का कार्य तथा मार्गदर्शन का उत्तरदायित्व घर के लोगों विशेषकर बड़ों का होता है। इस परवरिश में बच्चे अपनी संस्कृति से और लोक परम्पराओं कहीं बातों तो कहीं कहानियों के माध्यम से कब जुड़ जाते थे पता ही नहीं चलता था।

मुझे गर्व है कि मैं ऐसी ही पीढ़ी से आती हूँ जो अपने दादा-दादी और नाना-नानी के स्नेह की छाया-तले पले-बढ़े हैं। गर्मी की छुट्टियाँ अपने साथ ढेर सारी कहानियों, विवाह के समारोह और खेलों का अम्बार लाती थीं। उन विवाह आयोजनों में लोक परम्परागत वैवाहिक गीत भी होते थे।

मुझे अवधी भाषा के गीत पूरी तरह से समझ नहीं आते थे तो एक बार मैंने उत्सुकतावश नानीजी से पूछा कि आप लोग एक ही धुन में धीरे-धीरे ये क्या गाती हैं? देवीगीत के बाद सीधे बन्ना- बन्नी क्यों नहीं गाती हैं? नानी ने बताया, "बेटा, इन पचरों (वैवाहिक गीतों) के माध्यम से हम अपने कुल के लोगों का नाम स्मरण रखते हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाते हैं। आने वाली पीढ़ी को वंशावली से जोड़ते हैं।"

उस दिन नानी की बातों से मुझे अपने बड़े- बुजुर्गो की दूरदर्शिता का संज्ञान हुआ व लोकगीतों के महत्त्व का पता चला।


- डॉ० उपासना पाण्डेय / प्रयागराज, उप्र



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