साहित्य चक्र

29 September 2025

आज की प्रमुख रचनाएँ- 29 सितंबर 2025








क्या खोया, क्या पाया

जीवन की इस आपाधापी में,
क्या खोया, क्या पाया हमने,
आओ करें आकलन इसका,
थोड़ा मन को टटोलें हमने।

बचपन बीता खेलकूद में,
हंसी-खुशी की छाँव में,
वे सुनहरे दिन लौट न पाए,
स्मृतियाँ रह गईं गाँव में।

जवानी गई मौज-मस्ती में,
सबकी इच्छा पूरी करते-करते,
अपनी चाहत भूल ही बैठे,
ख्वाहिशें दबा दीं मन के धरते।

अब आया है बुढ़ापा यारों,
सोचा भागवत भजन करेंगे,
पर मोह-माया की डोरी में,
फँसकर बस चिंतन ही करेंगे।

क्या खोया और क्या पाया,
सोचा तो बस इतना जाना—
जीवन है पानी का बुलबुला,
क्षण भर में मिट जाना।

जिसने थामकर चलना सिखाया,
उसी का हाथ छोड़ दिया,
जीवन की तंग गलियों में आकर,
अपनों का साथ खो दिया।

जीवन की इस आपाधापी में,
क्या पाया और क्या गंवाया हमने…

      
- गरिमा लखनवी


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बहुत जी करता है

बहुत जी करता है
जी लूँ हर वह क्षण,
जब नटनागर रास रचाते थे,
मधुर बंसी की तान पर
संसार को मोहित कर जाते थे।

बहुत जी करता है
देखूँ वह रात, जब जन्म लिया नागर ने,
कैसे सो गए पहरेदार,
कैसे खुल गईं जंजीरें,
कैसे उमड़ती यमुना का जलस्तर
उनके पग-स्पर्श से धीरे-धीरे थम गया।

बहुत जी करता है
जी लूँ वह पल जब यशोदा मैया
लाल संग खेला करती थीं,
जब बलदाऊ संग गोपाल सखा
गली-गली में विचरते थे।
देखूँ सुदामा का स्नेह,
गोपियों की चहकती हँसी,
और कान्हा की माखन चोरी।

बहुत जी करता है
सुनूँ ब्रज की नारियों की शिकायतें,
देखूँ राधा संग उनका अनन्त प्रेम,
महसूस करूँ वह छेड़खानी,
जहाँ बंसी की धुन पर
हर हृदय स्वयं को भूल जाता था।

कभी-कभी लगता है
यह भाव जो हृदय में उमड़ता है,
शायद उस युग की कोई स्मृति है।
क्या मैं भी कोई गोपी थी?
या ललिता-सी सखी,
वृषभानुजा सम प्रेमिका?
क्या यह पुनर्जन्म उसी का परिणाम है?

नहीं, मैं रुक्मिणी नहीं जीना चाहती,
मैं जीना चाहती हूँ मीरा का विरह,
राधा का अनन्य प्रेम,
गोपियों का उल्लास,
ब्रज की होली का रसमय रंग।

बहुत जी करता है
जी लूँ वह पल जब
नटवर नागर ने गोपियों के वस्त्र छुपाए थे,
जब यमुना किनारे राधिका को बुलाने
बंसी की मधुर तान गूँजती थी।
काश! उस युग में मेरा जन्म हुआ होता,
काश! मैं भी एक गोपी होती,
और कान्हा के चारों ओर
चक्कर काटती रहती।

बहुत जी करता है
देखूँ कंस का वध,
पांडवों की रक्षा,
द्रौपदी की लाज बचाते वे करुणा-मूर्ति।

जीना चाहती हूँ हर वह क्षण,
जहाँ कृष्ण हैं, जहाँ प्रेम है,
जहाँ समर्पण है।

क्योंकि
कृष्ण बनना तो सरल नहीं,
पर कृष्ण में खो जाना
यही सबसे बड़ा सुख है।


- सविता सिंह मीरा



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प्रकृति की देन

ये नदियाँ, पर्वत, झील और झरने,
कीट पतंगे, ये रंगीन मयूर थिरकते।
आए कहाँ से ये सारे के सारे ?
प्रकृति ने ही बनाए ये जीव प्यारे, ये अजब नज़ारे।
बंद कलियाँ , खिले मुस्कुराते से फूल,
फलों से लदी शाखाएं रही झूल।
ये बल खाती पेड़ों पर जाती लताएं,
ये पादपों की शोभा में चार चांद लगाएं।
चहचहाते ,समूहों में उड़ते विहग,
छू लेना चाहे वो गगन।
ये रंग- बिरंगे जीव कहाँ से आये ?
प्रकृति ने ही ये सारे हैं बनाए।
होते शाम निकले ये चाँद खूबसूरत ,
टिमटिमाते तारे ,ग्रह-उपग्रह हैं अमूर्त।
मिटा अँधेरा भोर कर देता है सूर्य देव,
ये सारी प्रक्रियाएं हैं प्रकृति की ही देन।
मानव जाति, वन्य जीव ये जंगल हरे-भरे ,
ये काले-काले बादल समूह ही वर्षा करें।
ये समुद्र अथाह जीवों से भरे हुए,
प्रकृति ने ही ये सब है तैयार किए।
ये वृक्ष जीवन दायिनी आक्सीजन प्रदाता,
सूर्यदेव ही सबका जीवन बनाता।
ये दिन-रात, धूप-छाँव, ऋतुओं का चक्र,
प्रकृति ने ही नवाजे सारे, हैं इसको सबकी फ़िक्र।
समय की है अब ये अहम जरूरत,
प्रकृति को न उजाड़ो, रहने दो इसे खूबसूरत।
इससे करता रहेगा अगर
खिलवाड़ जहाँ,
मिट जाएगा फिर सबका ही नामों निशान।


- लता कुमारी धीमान


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जिंदगी की हकीकत

जिंदगी से सवाल करते हैं ,
और सवाल करते-करते हम ,
उससे जवाब भी मांगते हैं ।
पर कभी कोई हकीकत नहीं समझ पाता ,
और जिसने हकीकत समझ ली ।
अपनी जिंदगी की
वह अपनी जिंदगी को अपने ,
तरीके से जीना सीख जाता।
जिस तरह वक्त के हिसाब से,
पेड़ भी अपने पत्ते बदलता है ।
एक वक्त पतझड़ने का होता है ,
एक वक्त वह होता है ,
जो सारे पेड़ बसंत के
आगमन से हरी भरे हो जाते है।
इस प्रकार से इंसान के जीवन में भी,
एक वक्त दुख और एक वक्त सुख अवश्य ही आता है।
जब वसुंधरा हरी भरी दिखती है,
और वह पूरा श्रृंगार करके सज जाती है।
तो चारों दिशाओं में अपनी एक अलग छवि छोड़ती है,
इसी प्रकार से मनुष्य की अच्छाई भी,
लोगों के दिलों में घर जाती है ।
इसलिए तो कहते हैं अच्छे-अच्छे काम करते रहिए ,
अपने लिए ना सही पर अपनों के लिए तो जीते रहिए।


- रामदेवी करौठिया


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चिड़िया

उड़ती चिड़िया आसमान में
दोनों पंख फैलाए।
छोटी सी अपनी चोंच से
दाना-दाना चुग खाएं।
अपने पंख फैलाए उड़ती
पूर्व से पश्चिम
उत्तर से दक्षिण
हर कोने पर
अपना हक़ जमाती।
डाल-डाल पर
पात-पात पर बैठ
अपना मधुर गीत
सबको सुनाती।

- डॉ. राजीव डोगरा



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अच्छे पड़ोसी
अच्छे पड़ोसी होते हैं
विनम्र और ईमानदार
जरूरत के समय करते हैं मदद
होते हैं बड़े मिलनसार
सुख दुख में देते हैं साथ
अपनों की तरह रखते हैं खयाल
विश्वसनीय,शांतिप्रिय और
होते हैं बड़े जिम्मेदार
अपनी उपस्थिति से हमेशा
सुखद एवं सुरक्षित
महसूस कराते हैं
विपत्ति में, संकट में,
सदा साथ निभाते हैं
कैसे कहें इन्हें बेगाना,
कभी यह अपनों जैसे
तो कभी अपनों से भी बढ़कर
हमारे हित का करते हैं चिंतन
हमें सदैव क्लेशों से
संतापों से बचाते हैं
बड़े भाग्यशाली होते हैं वह
जो अच्छे पड़ोसी पाते हैं।


- प्रवीण कुमार



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निज स्वार्थ

बहती शीतल हवाओं को यूं ना बदनाम करो
उंगली उठाने वालों आईना रखो
और खुद का दीदार करो
पूछो अपने मन से वो तुम्हे सब बताएगा
तुम्हारे समर्पण का सच तुमको दिखाएगा
आसमा से तारा यूं ही जुदा नहीं होता
कुछ तो गलतियां रही होगी साहब
यूं ही कोई बेवफा नहीं होता
षड्यंत्र भरी हवाओं से दीप नहीं बुझा करते
मिट जाता है सब पर नाम नहीं मिटा करते
तर्कहीन दुष्प्रचारों से सच पर दाग नहीं होते
निज स्वार्थ रखने वालों के
कभी मुकम्मल ख्वाब नहीं होते।


- आकाश आरसी शर्मा



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पूछने का हक़ है

मेरी भूख को पूछने का हक है,
पैदा किया जो मैंने वो अन्न सड़ रहा है कहाँ ?
मेरी दरिद्रता को पूछने का हक है,
मेरे पसीने सींचा वो धन है कहाँ ?
मेरे हाथों को पूछने का हक है,
कर सकें जो हम वो काम है कहाँ ?
मेरे बच्चों को पूछने का हक है,
हमारी शिक्षा ,स्वास्थ्य व् मनोरंजन का इंतजाम है कहाँ ?
मेरी बेबसी को पूछने का हक है,
बलिदानों से मिली वो आज़ादी है कहाँ ?
मेरे शरीर को पूछने का हक है,
ढक सके जो मुझे वो खादी है कहाँ ?
मेरी योग्यता को पूछने का हक है,
पूरा कर सके जो सपनों को वो अवसर है कहाँ ?
मेरी बैचनी को पूछने का हक है,
सुकून मिल सके जिसमें मेरा वो घर है कहाँ ?


- धरम चंद धीमान



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प्रश्न

विचारों की
परिधि के भीतर
फँसा हुआ
बेबस सा लाचार प्रश्न
उत्तर की तलाश में
तोड़ देना चाहता है
हर परिधि को
हर दीवार को
लाचार सिगरेट सा
क्षणिक जीवन का
बोझ ढोते हुए
अँगुलियों के बीच
सिसकती साँसों के बीच भी
अपने भविष्य की
संभावनाएं तलाशता है
प्रश्न
वैकल्पिक विचारों के बीच भी
ढूँढता है अपना अस्तित्त्व
उत्तर के नहीं मिलने पर
खुद को उत्तर के सांचे में ढालकर
विचारों के समुद्र में
लहर बनकर
किनारों से टकराता रहता है
अनवरत
पश्चात्ताप की अग्नि में
जलते हुए।


- अनिल कुमार मिश्र



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ठेठ वाले प्रोफेसर...

आज रिटायर्ड होने पर कॉलेज के हर तरफ
आंसू का सैलाब बह रहा था।
प्रोफेसर साहब चुपचाप ऑफिस में बैठकर
अपने रिडायर्ड प्रोग्राम का जायजा ले रहे थे
हर कोई उनके जाने का गम अलाप रहा था।
पूरा ग़मगीन माहौल बन रहा मानो आज समूचा कालेज रो पड़ेगा,

प्रोफेसर साहब के घर पर उनकी पत्नी सुधा
और बेटा आपस में प्रोफेसर साहब के रिडायर्ड होने पर दुःख जता रहे थे,
बेटा बोला"पापा घर पर रहेंगे तो सबका जीना दुश्वार कर देंगे,
हर काम में अपनी टांग घुसेड़ देंगे
अभी तक तो कालेज की ड्यूटी पर रहते थे,
कितना शांति रहता था अब कल से घर पर जिंदगी नर्क सी हो जायेगी।

कालेज की सभागार में मंच पर सभी गणमान्य लोग मौजूद थे,
प्रोफेसर साहब के सम्मान में हर कोई मंच पर
दो बात कह रहा था वही बगल में प्रोफेसर साहब की आंखों से
कब आंसू की बारिश शुरू हो जाये इसकी कोई गारंटी नहीं थी।

प्रोफेसर साहब से सभी आग्रह करने लगे
कि आप कुछ कहो तो प्रोफेसर साहब खड़े होकर
बोले मेरे प्यारे बच्चों और स्टॉप आप सभी लोगों से एक प्रश्न पूछ सकता हूं।
भीड़ से आवाज आने लगी सर एक नहीं दस पूछो..
प्रोफेसर साहब बोले क्या कोई मेरा पूरा नाम बता सकता है?

पूरे सभागार में सन्नाटा छा गया।
मंच पर बैठे गणमान्य लोग एक दूसरे का मुंह देखने लगे।
प्रोफेसर साहब बोले आप सब मुझे
डॉ. एस. के. बोलते हो जबकि मेरा नाम संतोष कुमार हैं,
समाजशास्त्र का प्रोफेसर हूं मगर जिंदगी की
किताब और हकीकत ज्यादा पढ़ाता सिखाता हूं।

आप की नजरों में हीरों हूं
बढ़िया देशी अंदाज में आपको पढ़ाता हूं
आप सभी मेरे शब्दों को अच्छे तरीके से समझ जाते हो,
मेरे गुरुजी ने मुझे बताया था कि
मातृ भाषा के साथ उम्र की भाषा समझना चाहिये,
आप सब मेरे ठेठपन तरीके को बेखूबी समझा बहुत प्यार दिया।

जिस दिन कालेज नहीं आया करता लोग खबर लेने घर पर चले आते,
घर पर महफ़िल जम जाता मुश्किल से लोगों से पीछा छूट पाता।
तो परिवार की नजरों में विलेन बन गया हूं,
जबकि परिवार को सभी सुख सुविधा मेरे कारण नसीब हो रहा हैं।

लेकिन फिर भी परिवार में कोई इज्जत नहीं करता हैं,
आप लोगों में कई ऐसे हो जो अपने मेहनती पिता के संघर्ष को अनदेखा करके उनकी बुराई करते हो,
उनके अच्छे बातों में बुराई नजर आने लगता है
जबकि ये जीवन पिता के खून और
पसीने से सींचा गया एक खूबसूरत पेड़ हैं
जो बड़ा होते सबसे पहले अपने उस
बदसूरत जड़ को त्यागने की कोशिश करता हैं,
जो उसे खूबसूरत बनाने के लिये खुद को कब का भूल जाता है।

शिक्षा का असली महत्व अपने माता-पिता
और बड़ों का सम्मान करना है जो यहां पर
बैठे सभी छात्रों से मैं उम्मीद करता हूं।
प्रोफेसर साहब का भाषण खत्म हो चुका था,
ताली की जगह अब लोग चुपचाप आंखों में आंसू
लिये मूकदर्शक बन बैठे थे।
प्रोफेसर साहब समझ गये इन सभी को
दर्शनशास्त्र का डोज कुछ ज्यादा ही दे दिया हूं,
फिर प्रोफेसर साहब माइक पर जोर देकर बोले अरे मेरे क्लास में सीटी बजाने वालों आखिरी बार मेरे लिये ताली भी बजा दो।

उस दिन ताली तो बजा मगर उस ताली में कोई
उत्साह और उमंग नहीं था,
उस दिन प्रोफेसर साहब के घर से लेकर
कालेज तक सभी दुखी थे सबके अपने अलग दुख थे।

5 साल बाद नोएडा से दोस्त राजेश का फोन आया हालचाल हुआ
वो बोला अरे समाजशास्त्र का प्रोफेसर एस के को जानते थे।
हां क्यों! अरे बहुत बुरी मौत मिला बेचारे को लाश 3 दिन से घर में सड़ रहा था वो अखबार वाले को गंध से पता चला कि प्रोफेसर साहब गुजर चुके हैं,
इकलौता बेटा कनाडा से आने में इनकार कर दिया,
समाजशास्त्र का अंतिम संस्कार पड़ोस के कुछ भले
लोगों ने किया बेचारे को गैरो के कंधा मिला..


- अभिषेक कुमार शर्मा



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चौसर का खेल

भारत माता तेरे टुकड़े तो तेरे अपने ही कर जाते हैं,
मन्दिर, माजिद, चर्च गिरजाघर व गुरुद्वारे पे लड़ जाते हैं।

देखो सत्ता को भी अब चौसर का खेल बनाया है,
अपने मतलब से सब ने अपना दाव लगाया है।
राष्ट्रीय धर्म को भूला चुके सत्ता सब को प्यारी है,
देखो नेता जी ने भी अपना अर्थ धर्म अपनाया है।

नारी तो बेहाल मिली पर अब नर भी तो घबराया है,
काले - नीले रंगों का वह भेद समझ नहीं पाया है।
अब नारी ने भी महाभारत का खेल ही बदल डाला,
दाव पर देखो चौसर में अब युधिष्ठिर को लगाया है।

अब तो सामाजिक ढांचा भी देखो छटपटाया है,
हम दो हमारे दो का नारा घर में जब से आया है।
अब मोसी चाची व चाचा परिवारों से सिमट रहें,
बाप बेटी से रिश्ते की मर्यादा बचा नहीं पाया है।

बीच बाजारों में लूटती नारी जब अंधा राज्य आया है,
घेरों से क्या आस लगाई जब अपनों ने दाव लगाया है।
मन्दिर, मस्जिद, चर्च गिरजाघर व गुरुद्वारे पे लड़ जाते हैं
हैं भारत माता तेरे टुकड़े तो तेरे अपने ही कर जाते हैं।


- अनिल चौबीसा चित्तौड़



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