किस्मत
माना की जुगनू के बराबर ही है उजाला तेरे पास,
अंधेरों से डरना फितरत बिल्कुल भी नहीं है तेरी।
वक्त के स्याह अंधेरे बेशक कितना भी दहला लें,
इनसे डरकर पीछे हटने की आदत नहीं है तेरी।
बेशक मंजिल खड़ी है पहाड़ सा सीना तान कर,
जिद्दी है तू भी ये जिद्द ही तो पहचान है तेरी।
रास्ते जिंदगी में बेशक संकरे या हों मुश्किल भरे,
पर इन नन्हें कदमों में जान अब भी है बहुतेरी।
बेशक हवाओं ने मोड़ रखे हैं रुख कश्तियों के,
पतवार चलाने के लिए बाहें हिम्मत रखती हैं तेरी।
मंजिल की राहों में कोई साथ देता नहीं ,
ये राहें सिर्फ और सिर्फ हिम्मत देखती हैं तेरी।
थकना रुकना पसंद नहीं मंजिल के मतवालों को,
फिर कुदरत भी किस्मत बदलना चाहती है तेरी।
- राज कुमार कौंडल
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भोर की वेला
चाँदनी से नहाई, ये धरा कितनी शांत,
स्वर्ग का पर्याय लग रही है।
कौन कहता है,
यहाँ पर जमीन के टुकड़े की खातिर,
या फिर चंद सिक्कों के लिए ,
मात्र अपने हिस्सों के नाम पर ,
सरे बाजार खून की होली खेली जाती है।
कहाँ दिखता है,
कि पशु,पक्षी,पेड़ और मानव,
सब अपनी-अपनी बोली में खुद को,
सरदार बनाने में लगे हैं,
एक दूजे को धन, बल,
या फिर छल से,
दबाने में लगे हैं।
ऐसी चिर शांति देख,
मन प्रफुल्लित हो जाता है,
स्वर्ग कहीं और नहीं,
बस इसी धरा पर है,
विश्वास सा होने लग जाता है,
तभी एक पंछी की चहचाहट,
एक आदमी की आहट,
गूँजती है,
देखते ही देखते,
हर घर, गली मोहल्ला,
शोरगुल, भीड़, जद्दोजहद,
से भरे नजर आते हैं।
चिर शांति का भ्रम टूट गया ,
खुद को भी उसी भीड़ का हिस्सा पाते हैं।
ये तो बस चंद घड़ियाँ थीं,
जो उस संघर्षरत थकावट,
व एक नए सघर्ष के बीच आती हैं,
पर सच में धरा पर ऐसी शांति चाहिए,
ये हर मन को भाती है।
- धरम चंद धीमान
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किताबों के जंगल में एक खिड़की
जहाँ एक बूढ़ा कवि
हाथ जोड़े खड़ा है
मुख्यमंत्री के सिंहासन पर बैठे
फ़ासीवादी पुरोहित के आगे।
तीस लाख का चेक,
छत्तीसगढ़ की मिट्टी से रिसता रक्त,
सलवा जुडुम की राख में
आदिवासी गाँवों की हड्डियाँ,
और बीच में
साहित्य का उत्सव-भोज।
कितनी सहजता से
पुस्तकों की गिनती
लाशों की गिनती पर भारी पड़ जाती है।
छियासी हज़ार प्रतियाँ बिकना
इतिहास का चमत्कार है,
पर छियासी हज़ार आत्माएँ
जंगलों में भटकती रही हों
तो उसका ज़िक्र क्यों हो?
हिंदी को कहा गया-
‘दुहाजू की बीबी’।
गरीबी, फटेहालपन,
निराला की उदासी उसका श्रृंगार।
लेखक वही
जो भूख से पीड़ित मरियल-सा दिखे,
जिन्हें मंच पर बुलाकर
सम्मानित करने से पहले
भोजन खिलाना न पड़े।
पर आज-
जब एक लेखक
रॉयल्टी के पर्वत पर खड़ा है,
उसकी किताब
गोदान से, राग दरबारी से,
गुनाहों के देवता से
तेज़ दौड़ रही है,
तब हिंदी की आँखें चौंधिया गई हैं।
बिक चुकी प्रतियों का हिसाब
बाज़ार की तकनीक है
या समाज का चमत्कार?
कौन-से पाठक हैं
जो रोज़ पाँच सौ किताबें खरीदते हैं ?
क्या सचमुच
इतनी भूखी है यह ज़ुबान
कि शब्दों की थालियाँ
इस वेग से खाली होती जा रही हैं ?
सवाल दर सवाल
आरोप दर आरोप।
ईर्ष्या की बिच्छू-दुनिया
डंक मारने को तैयार।
जैसे साहित्य
कोई तपस्वी गुफ़ा हो
जहाँ भूख पवित्र है
और लोकप्रियता अपवित्र।
लेकिन-
यह दृश्य भी अद्भुत है-
एक हिंदी लेखक
धन, पुरस्कार और पाठकों से
उत्सवमूर्ति बनता हुआ।
यह क्षण
सिर्फ़ आलोचना का नहीं,
उत्सव का भी होना चाहिए।
पर हिंदी की परंपरा
ईर्ष्या के शिलालेख में लिखी गई है-
यहाँ ख़ुशी को
हमेशा संदेह से देखा जाता है।
किताबों के जंगल में
एक खिड़की खुली है-
उस खिड़की से झाँक रहा है
बाज़ार,
प्रकाशक,
और पाठक का नया चेहरा।
क्या यह खिड़की
आदिवासियों की जली हुई झोपड़ियों तक खुलती है?
क्या यह खिड़की
उन खेतों तक जाती है
जहाँ कॉर्पोरेट का बुलडोज़र चलता है?
या यह खिड़की
सिर्फ़ दिल्ली के ड्राइंगरूमों तक सीमित है,
जहाँ किताबें
सजावट का हिस्सा हैं?
मैं विनोद कुमार शुक्ल को
असाधारण कहूँ या साधारण,
यह मेरा अधिकार है।
पर छियासी हज़ार प्रतियाँ बिकना-
यह घटना
इतिहास में दर्ज हो चुकी है।
यहाँ तक कि आलोचना भी
अब बाज़ार का हिस्सा हो गई है।
सवाल बचा रह जाता है-
क्या साहित्य
पाठकों की गिनती में है
या आदिवासियों की चीख़ में?
क्या हिंदी का उत्सव
लेखक की रॉयल्टी है
या जनता की भागीदारी ?
खिड़की खुल चुकी है-
अब देखना है
कि हवा कहाँ से आती है:
जंगल की राख से
या राजधानी की छत से।
- गोलेन्द्र पटेल
*****
कब सबेरा हुआ है।
सवेरा कब हुआ है,
इंसान कब सोया है।
कब जागा है,
उसे आज तक पता नहीं चला है।
बस खो गया है,
वह अपने आप में ही।
कभी किसी को उसने,
जागाने की कोशिश नहीं की है।
खुद भी सो गया है,
और दूसरों को भी सोता देखकर।
वह भी आलसी होता जा रहा है,
कितना बदल गया है,
वह इंसान कुछ भी सच कहने,
को तैयार नहीं होता।
क्या कुछ बातें झूठ पर ही,
अपना हक जमा लेती है।
ऐसा नहीं है सच भी थोड़ा परेशान होता है,
पर जब सबके सामने आकर खड़ा होता है।
यह सब की चुप्पी साध देता है,
जिंदगी कब खेल खिलाती है।
कब मायूस हो जाती है।
देखते ही देखते लोग कितना बदल जाते हैं,
ना अपने को समझ पाते हैं।
ना खुद को उसमें ढाल पाते हैं,
बस सोचते रहते हैं।
जमाना किस ओर जा रहा है।
वह पुरानी यादें,
वह बीते लम्हें,
यादों में ही याद बनकर रह गए हैं।
अब होठों की हंसी भी ,
गायब सी होती जा रही है।
बस दुखों का झमेला,
हमारे जीवन में कुछ क्षण के लिए आ तो गया है।
पर दिल में एक जगह सी बना रहा है,
कोशिश तो बहुत करती हूं।
कि इससे दूर हो जाऊ,
पर लोगों ने जो घाव दिए हैं,
उन्हें कैसे दूर किए जाएं।
- रामदेवी करौठिया
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इतिहास के पन्नों के वो पाप हम फिर नहीं दोहराएंगे।
दुनिया को नवभारत का यशगान सुनना जरूरी था,
मात्र सिंदूर नहीं है वह अभिमान है हमारा,
यह एहसास कराना जरूरी था,
समरभूमि में करके सिंह सवारी उतरी
जब व्योमिका और सोफिया जैसी नारी,
नारी अबला नहीं है बेचारी, यह फरमान सुनना जरूरी था,
इतिहास के पन्नों के वह पाप हम फिर नहीं दोहराएंगे ,
रणविजय के बाद भी हम अपना फर्ज निभाएंगे,
क्या मजाल है जो दे- दे अब के भगत सिंह को फांसी,
47 के बंटवारे का वह काला इतिहास हम फिर नहीं दोहराएंगे,
इस भारत भूमि में अब के साधु भेष में कोई रावण नहीं पाला जाएगा,
और ना ही कलाम की इस माटी पर अब कोई अफजल नहीं पाल जाएगा,
तोड़ना सीखो तुम जातियों और धर्मों के इस चक्रव्यूह को,
पापी यदि कोई दुर्योधन है तो उसकी जँघा को भी मरोड़ा जाएगा,
बेशक का हिंसा पथ पर चलने वाले बापू की नीतियों को हम नहीं तोडेंगे,
किंतु धर्म पूछ कर मारने वालों को हम हरगिज नहीं छोड़ेंगे,
Lमत भूलो हम बच्चे हैं विषपान करने वाले उसे महाकाल के,
इतना पीतल भर देंगे नापाक- पाक तेरी छाती में,
कि तुझे कहीं का नहीं छोड़ेंगे ,
लाज़मी है बसंत ,सावन, बहार में 'माही' गीत प्रेम,
मिलन और विरह के गुगुनायेगी,
महफिलों को खुशनुमा कर कभी हँसायेगी तो कभी रुलाएगी।
किंतु जब भी बात आएगी समर भूमि के दर्द की,
तब-तब मेरी कलम तलवार बनकर इस फ़िज़ा में लहराएगी।
- रचना चंदेल 'माही'
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मूल्य
दिनों-दिन पतली होती
सूखती सी
संबंध के मूल्यों की लकीरें
अब निराश हो चुकी हैं
इतना आसान नहीं है
इन्हें पूर्ववत सा
स्वस्थ बनाये रखना
मामूली जुकाम होने पर भी
चेहरे सूखते हैं
हाँ पीलिया होने पर भी
थोड़े ज्यादा
पीले होकर सूखते हैं
अलग-अलग रोगों से
प्रभावित होकर
सूखने लगती है
आत्मा
संबंध के मूल्यों की लकीरें भी
ग्रसित हैं भिन्न रोगों से
टूटने की ओर
पतली होती हुई
सूखती हुई
बढ़ रही हैं।
- अनिल कुमार मिश्र
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माता हरती हर संताप
शैलपुत्री आदिशक्ति मात,
स्वीकार हो ये भक्ति आज।
दया करूणार्द्र अभिशाप,
माता हरती हर संताप।।
पूजत जन नौ दिन नौ देवि
घड़ी घंटा चौंसठ सेवी।
छत्र छॉव माँ शीतल नीम,
शुरुआत संवत्सर देवी ।।
पूज्य कन्या जगा भाग्य,
मिले माँ सुहागन सौभाग।
चढाऊँ चुनर बिन्दी लाल ,
भजन करूँ दिवस रात जाग।।
जगराता बजाती ढोल,
तन मन में भक्ति भाव घोल ।
पद्मासना देती वरदान,
माँ बिन 'प्रतिभा' का क्या मोल ।।
- प्रतिभा पाण्डेय "प्रति"
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कुछ करना हैं, तो डटकर चल
कुछ करना हैं, तो डटकर चल
थोड़ी दुनिया से हटकर चल,
लीक पर तो सभी लेते हैं चल
कभी इतिहास को पलटकर चल।
बिना काम के, मुकाम कैसा?
बिना मेहनत के, दाम कैसा?
जब तक न हासिल हो मंजिल,
तो राह में, आराम कैसा?
अर्जुन सा, निशाना रख
न कोई बहाना रख,
जो लक्ष्य सामने हैं
बस उसी पे अपना निशाना रख।
सोच मत साकार कर
अपने कर्मों से प्यार कर,
मिलेगा आपके मेहनत का फल
किसी और का, न इंतजार कर।
- आभा मौर्या
*****
ईर्ष्या के साए
जो जलते हैं मेरे उजालों से,
उनके दिल में क्यों है अंधेरों का बसेरा?
मेरी उड़ान से जो घबराते हैं,
उनके पंखों में क्यों है ठहराव का घेरा?
ईर्ष्या की आग में जलते हैं जो,
खुद की रोशनी को क्यों बुझाते हैं वो?
मुझे गिराने की चालें चलकर,
खुद की राहों से भटक जाते हैं वो।
उनकी नफरत मेरा हौसला बढ़ाए,
उनकी बातें मेरे कदम बढ़ाए।
हर ताना बने मेरे इरादों की सीढ़ी,
उनकी ईर्ष्या ही मेरी जीत को सजाए।
जो जलते हैं, जलते रहें,
मैं तो अपनी राह चलूंगा।
उनके नफरत के अंधेरों में,
मैं प्यार का दीप जलाऊंगा।
क्योंकि ईर्ष्या तो उनकी कमजोरी है,
मेरी मेहनत ही मेरी ताकत है।
वो गिराने की कोशिश में डूब जाएंगे,
और मैं अपनी ऊंचाई पर चमकूंगा।
तो जलते रहो, मैं मुस्कुराता रहूंगा,
तुम गिराने की सोचो, मैं उठता रहूंगा।
नकारात्मकता का जवाब यही है,
मैं हर हाल में जीतता रहूंगा।
- अर्जुन कोहली
*****
कोहली जी नमन है आपको
नई सोच लेकर चलते हो,
कुछ नया कर गुजरने को,
ऐसी शख्शियत कहां मिलती है,
इस मतलबी दौर में,
परख जवाहरी को होती है
हीरे जवाहरात की,
लोहे को जो सोना बना दे
दरकार होती है उस पारस की,
जिन्दगी तलाश करवाती रहती है
हमेशा नए अन्वेषण का,
नया दर्श दिखाती हैं,
हर मोड़और पड़ाव पर
सोच की गर्त में डूबा रहता है इंसान
शेष फिर भी रह जाता है
कुछ न कुछ,
और तलाश रहती है
नया कुछ कर गुजरने की
बार-बार बन्दन भी है आपको,
सलाम भी है आपको।
जय हिन्द!
- बाबू राम धीमान
*****
रफ़्ता रफ़्ता सभी वापस लौटते रहे,
ज़िंदगी आई थी, एक सवाल बनकर,
हर रोज़ इसका जवाब हम ढूंढते रहे,
कभी प्यार, कभी छल, कभी ध्यान में,
पल पल हर पल हम बस यूं ही टूटते रहे,
मौत कोई डर नहीं, डरो नहीं तू भी,
ज़िंदगी थकान है, मौत सुकून है,
एक दिन मंज़िल से जा मिलेंगे हम,
ता ज़िंदगी बस हम ये ही सोचते रहे,
फिर ये अहम किस काम का अपने,
रफ़्ता रफ़्ता सभी वापस लौटते रहे,
तो बस जी लो हर पल को खुशी से,
ज़रूरत से ज़्यादा तुम क्यों सोचते रहे।
- डॉ. मुश्ताक़ अहमद शाह
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