मुझे खलती है
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गुनाह कुबूल
अपनी भूल पर एक भूल और कर लेता है ।।
पहले पहल नहीं करता,बस मौका तलाशता है,
फिर हटाकर सबको पीछे खुद को मक़बूल कर लेता है।।
काम नहीं बस काम की नौटंकी करता है,
कामगार को कुछ नहीं,
तमाचे किसी और के गाल पर लगते हैं,
बहाकर घड़ियाली आँसू सब फिजूल कर लेता है।।
विकास बहुत बदहवास है वो आजकल,
लगता है झूठ के साथ भी उलूल जुलूल कर लेता है।।
- राधेश विकास
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पलकों पे ख्वाब
चांदनी रातों में,अक्सर मैं जागा किया बहुत।
दिल ने तुम्हारी याद का सामान किया बहुत।
पलकों पे ख़्वाब रख के संवरती रही नज़र।
दिल ने मगर विसाल का अरमान किया बहुत।
इम्तेहान ये कैसा था मुहब्बत की राह में यारा।
यादों ने तेरी दिल को मेरे तड़पा दिया बहुत।
हर शाम ढल के दर्द को और बढ़ाती ही रही।
यादों ने दिल के ज़ख़्म को ज़िन्दाँ किया बहुत।
मोहब्बतें के वादे अधूरे ही रह गए मुश्ताक।
तक़दीर ने नसीब से भी झगड़ा किया बहुत।
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यादें बचपन की
छम-छम,छम-छम बरसते मेघा,
टप-टप बूँदें नाचे छत पर,
झमाझम बरस रहा चौमासा,
बर्षा ऋतु है अपने यौवन पर,
ची-ची करती आए गौरेया,
सामने कभी, कभी छुप-छुप कर,
खुल गया यादों का पिटारा,
यादें आ रही थी रह-रह कर,
बरसात की वो छुट्टियाँ स्कूल से,
होती थी मस्ती दोस्तों संग जी भर-भर,
गौरेया को आँगन में डालते दाना,
धोखे से पकड़ने को ताना –बाना बुनकर,
बड़े जतन से दिनभर उनको पकड़ते,
छोड़ते फिर अलग-अलग रंगों से रंगकर,
झूमते नाचते भाग-भाग उन संग,
ये मेरी, वो मेरी, गौरेया कह-कह कर,
बारिश है, छुट्टियाँ हैं, वर्षा की रुत भी,
गौरेया की टोलियाँ बैठ गई कहाँ जाने छुपकर,
इक्का-दुक्का ही आती नजर अब,
बच्चों की टोलियाँ भी अब रहती कहाँ छिपकर,
आ गया याद वो बेफिक्र बचपन,
भूल गया है जो जिन्दगी की
उलझनों से उलझकर।
- धरम चंद धीमान
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हे प्रभु दया करो
अब के वर्षा खुशियों की फुहार लाई नहीं,
ज्यों ज्यों बरसे बादल मन को चैन आई नहीं।
अब के बरसात जीने का सबब बन पाई नहीं,
कई बेघर हो गए,किसी की जान बच पाई नहीं।
रास्ते फ़ना हो गए और सड़कें बच पाई नहीं ,
मौत के सैलाब से कितनी जाने बच पाई नहीं।
सकपकाई आंख़ें बहते आंसू रोक पाई नहीं,
अपनों को खोकर दिलों में ठंडक आई नहीं।
इस तबाही के मंजर में मुसीबतें रुक पाई नहीं,
टूट कर इंसान में जीने की इच्छा रह पाई नहीं।
जग की असीमित भूख अब भी मिट पाई नहीं,
इस से बड़ी सजा शायद अब तक मिल पाई नहीं।
ये जल प्रलय रुकने का नाम अभी ले पाई नहीं,
हे प्रभु दया करो,हममें तुझ जैसी समाई नहीं।
- राज कुमार कौंडल
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वसुधा
वसुधा के आँचल से ही साँसों का दीप जले,
धरा की धूल में ही सपनों के फूल खिले।
जीवन की हर धड़कन उसका ही प्रतिदान है,
धरती है माँ, तो हम उसके अनंत संतान हैं।
धरा के जल बिना तो जीवन का गीत अधूरा है,
हरियाली से ही तो मन का मधुबन पूरा है।
वसुधा का कण–कण हमारे प्राणों का आधार है,
इससे ही तो जीवन का हर क्षण साकार है।
जब धरा मुस्कुराती है, जीवन का राग बजता है,
बूँदों की भाषा से हर पत्ता अमृत रचता है।
वसुधा है तो मन के भीतर आशा का संचार है,
धरती से ही जुड़ा हमारे अस्तित्व का सार है।
धरा को यदि आँसू दें, जीवन भी आर्तनाद करेगा,
पेड़ों को काटोगे तो साँसें भी विफल संवाद करेगा।
वसुधा की रक्षा करना ही मानव का धर्म है,
धरती का अस्तित्व ही जीवन का परम कर्म है।
धरा न हो तो जीवन का कोई अर्थ नहीं बचेगा,
नदियाँ सूखेंगी, तो मानव का स्वर भी थमेगा।
वसुधा की गोद ही जीवन का शाश्वत संगीत है,
इसी आलिंगन में मानव का भविष्य अडिग है।
- शशि धर कुमार
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प्रकृति
हे प्रकृति! तू क्यों बेबश लाचार हो गई
पहाड़ों को रोकने में, क्यों असमर्थ हो गई,
क्यों रोक न सकी, इस प्रलय की जलधारा को
हे प्रकृति ! तू क्यों बेबश लाचार हो गई
पहाड़ों को रोकने में, क्यों असमर्थ हो गई...
वर्षा बरस बरस कर ,क्यों ऐसे बरस गई
क्यों तबाही का मंज़र हर ओर छोड़ गई
देखे नहीं थे जो दृश्य कभी,उनको भी दर्शा गई
तोड़कर रख दिए तूने, अपने ही रिकॉर्ड सारे
घर बार तबाह कर मानव को लाचार कर गई
देखते ही रह गए सारे बाहुबली, पर कुछ कर न सके
ज़रा हमें भी बता ऐसी बेहय्या क्यों हो गई
हे प्रकृति! तू क्यों बेबश लाचार हो गई
पहाड़ों को रोकने में, क्यों असमर्थ हो गई...
कुदरत को भी बता ज़रा,क्यों दया नहीं आई.
सब कुछ तबाह करने पर क्यों आमदा हो गई
कंक्रीट के जंगल खड़े कर मानव,
कर था अपना गुजर बसर
पल भर में ज़रा बता,क्यों मटियामेट कर गई
आलीशान भवनों को क्यों खाली डिब्बों की तरह
आंखों के सामने ही बहा कर ले गई,
हे प्रकृति! तू क्यों बेबश लाचार हो गई
पहाड़ों को रोकने में, क्यों असमर्थ हो गई...
- बाबू राम धीमान
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मेरी बगिया के ये फूल
कंधो पर बस्ते उठाए,
पैरों से ये धूल उड़ाए,
पहुँच जाते ये नन्हें स्कूल,
मेरी बगिया के है ये फूल।
प्रार्थना की जब बजती घंटी,
मासूमों की टोली मैदान को चलती,
जाते ही मैदान में घर की बातें जाते भूल,
मेरी बगिया के है ये फूल।
प्रार्थना सभा में जब ये बतियाते,
कुछ साफ़ तो कुछ हैं तुतलाते,
नहीं बोध इन्हें अभी क्या सूक्ष्म क्या स्थूल,
मेरी बगिया के हैं ये फूल।
नहीं जानते ये अभी भेदभाव,
हैं कोमल भावनाएं और कोमल स्वभाव,
छोटी –छोटी बातों को सुनाते देकर ये तूल,
मेरी बगिया के हैं ये फूल।
चलते हैं जब ये कदम मिलाते,
वर्दी में हैं मन को भाते,
भारत का भविष्य हैं ये समूल,
मेरी बगिया के हैं ये फूल।
आओ इन्हें हम प्यार से सिखाएं,
कोमल –कोमल हृदयों को सहलाएं,
खेल –खेल में बताएं बिषय सम्बन्धी बातें मूल,
मेरी बगिया के है ये फूल।
अपनी संतानों जैसे हैं हमें ये प्यारे,
स्कूल लगते हैं इन संग बड़े न्यारे,
मैत्री भाव से अध्यापक संग जाते हैं ये झूल,
हम सब देश वासियों की बगिया के हैं ये फूल।
ध्यान रहे ये कहीं भी जाएँ,
अपनी महक यूँ ही फैलाएं,
ये बातें कोई जाए न भूल,
हम सब की बगिया के ये हैं सुन्दर फूल।
- लता कुमारी धीमान
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