निर्मल मन
निर्मल मन कोई काग़ज़ का टुकड़ा नहीं,
जो भीगते ही गल जाए,
निर्मल मन कोई पीतल का बरतन नहीं,
जो घिसते ही चमक जाए।
निर्मल मन तो किसान की आँख है,
जो खेत की मेड़ पर बैठा
धूप और धूल से लाल हुआ,
फिर भी सपनों में हरियाली बोता है।
निर्मल मन वह चूल्हे की आँच है,
जिसमें माँ का पसीना घुलता है,
और रोटियों की खुशबू
घर-आँगन में फैलती है।
निर्मल मन वह गली का बच्चा है,
जो टूटी हुई गेंद से भी खेल लेता है,
हँसी में सारा दर्द
गुलाल की तरह उड़ा देता है।
निर्मल मन कोई उपदेश नहीं,
यह तो सहजता है, सादगी है,
एक धड़कन है—
जो हर दुख के बीच भी
प्रेम का गीत गाती रहती है।
- शशि धर कुमार
*****
मेरा शहर
क्या तारीफ करूँ मैं अपने शहर की
मेरे शहर का है अद्बुत नज़ारा
पहाड़ों के बीच बसा शहर घुमारवीं
सीर गंगा का है किनारा
हाइवे बीच में से गुजरता
लोगों के लगे रहते हैं मेले
कोई परिवार दोस्तों संग आता यहां
मौज करता है कोई अकेले
अस्पताल स्कूल कॉलेज सब हैं यहां
यह वो शहर हर चीज़ मिलती जहां
ब्यापारिक गतिविधियां रोजगार से
कईयाँ की जिंदगी की फुलवारी खिलती यहां
सीर गंगा के किनारे यहां लगता है मेला
रौनक लगती है दुकाने हैं सजाते
लोग बहुत आनंद मनाते हैं
शाम ढले लौट कर घर को हैं जाते
हर गली हर रास्ता रौशनी से है नहाया
हमने अपने शहर को बहुत है चमकाया
साफ सफाई का रखा जाता है विशेष ध्यान
हर गली नुक्कड़ पर कूड़ेदान है लगाया
सोहणी देवी बाबा बसदी की होती जय जयकार
कृपा उनकी होती है करते हैं हम पर उपकार
मेले का आनंद लेते है दूर दूर से आकर
प्रहरी बन कर हैं खड़ी सोहणी देवी तियून सरयून छन्जयार की धार
अब तो मनाली किरतपुर फोरलेन भी है बिल्कुल पास
लम्बा सफर होता था पहले हो जाते थे उदास
रेल भी धीरे धीरे पहुंच रही जिला मुख्यालय बिलासपुर
गोविंद सागर में जब पिलरों पर से गुजरेगी बन जाएगी खास
घुमारवीं हिमाचल के केंद्र में है बसता
सभी सुविधाएं यहां हैं भरपूर
मेरा शहर है सच में बहुत सुंदर
कभी आप भी यहां तशरीफ लाएं जरूर
- रवींद्र कुमार शर्मा
*****
जब राख बन जाना है,
मिट्टी में मिल जाना है,
तो फिर क्यों अहंकार है,
जीवन ही तो उपहार है।
छोटी-छोटी बातों में,
मनुष्य क्यों इतराता है,
सच्चा सुख तो वहीं मिलेगा,
जहाँ मनवता बस जाती है।
न अहंकार, न द्वेष रखो,
प्यार से जीवन सजाओ,
क्षणिक है ये संसार सारा,
मिलकर मानव धर्म निभाओ।
- बीना सेमवाल
*****
टूटे हौंसले की व्यथा
वेदना मेरी समझो किससे गुहार लगाऊं,
टूट चुका हूं अंदर से हाल किसे बतलाऊं।
सहने की भी सीमा है मेरी और सहा नहीं जाता,
कमर टूट गई मेरी अब,और बोझ कैसे उठाऊं?
नहीं चाहता था बेघर करूं किसी को घर से,
पर मैं खुद टूट चुका हूँ हाल किसे बतलाऊं।
आधुनिकता के खंजर घुपे हैं छाती पीठ पर,
अपने जख्मों से रिसता लहू किसे दिखाऊं?
तुम्हारी चीर फाड़ से कितना दर्द होता मुझे,
मूक रहकर भी किसे जा अपने जख्म दिखलाऊं?
बोल कर तो समझा नहीं सकता किसी को,
टूट बिखर कर सबको अपना दर्द समझाऊं।
पहाड़ हूँ मैं,आसमान से ऊंचा था हौसला मेरा,
पर अब इस टूटे हौंसले की व्यथा किसे सुनाऊं?
- राज कुमार कौंडल
*****
अनुभूति
जीवन को
बिन अभिभावक जीते-जीते
बहुत थक गया था
राह के रोड़े
बुजुर्ग समझकर
बहुत सताने लगे थे
उम्र भी बहुत कुछ
समझाने लगी थी
अचानक एक खयाल आया
मैंने अपने पिताजी की
एक बड़ी सी तस्वीर घर में लगा दी
पिताजी की आँखों में आँखे मिलाई
रोया भी,खूब हँसा भी,
पर खुश हुआ
मेरी उम्र घट गयी
स्फूर्ति मिली,ताजगी मिली
पिताजी आये
उनके होने की अनुभूति
हृदय में स्थिर हो गयी
मैं बच्चा हो गया।
- अनिल कुमार मिश्र
*****
नारी का अंतर्मन
जी करता है जाने तुझको,
कैसी थी तुम बचपन में।
चञ्चल थी या चुप चुप रहती
सच कह क्या अंतर्मन में।
कितना मुश्किल होता होगा,
तज कर सब कुछ आ जाना,
मन तो करता होगा देखें
उस घर का कोना कोना।
कैसा गुजरा बीता हर पल
माँ पापा के आँगन में,
जी करता है जाने तुमको
कैसी थी तुम बचपन में।
अब भी क्या उस घर में है सब
कहे जो तेरी कहानी,
तुझको जो प्रिय था सबसे
बची है क्या वो निशानी?
ताल-तलैया गली चौराहे
उस माटी के कण -कण में
जी करता है जाने तुझको
कैसी थी तुम बचपन में।
गुड्डे गुड़िये अरु सुन्दर कपड़े
जिसे पाने की थी चाह
नहीं देख अलमारी में वो
क्या हृदय से निकली आह?
परत दर परत खोलूँ तुझको
क्या क्या दफन इस धड़कन में,
जी करता है जाने तुझको
कैसी थी तुम बचपन में
तुझको शीश नवाता हूँ सुन
सखि तुमने बलिदान दिया
हृदय पर रखकर पत्थर तूने
मुझको तो मुस्कान दिया।
तुझको मैं क्या दूँगा प्रियवर
सब फीका है अर्पण में
जी करता है जाने तुझको
कैसी थी तुम बचपन में।
नारी तुझको नमन करूँ मैं
इस घर को अपनाया है
हृदय में धर पीर वो सारे
पर तुमने मुस्काया है।
छिपा रखा है तुमने आँसू
अपने नैनो के अञ्जन में
जी करता है जाने तुझको
तुम कैसी थी बचपन में।
- सविता सिंह मीरा
*****
खर जिउतिया पूजन
एक माँ की स्मृति जीवित होती है
जीवित्पुत्रिका व्रत से
अनंत दुआएँ द्वार पर आती हैं
सभी संतानें साँपों से बच जाती हैं मुश्किल सफ़र में
विषम समय का विख सोख लेता है सूर्य
गाँव दर गाँव गूँजता है तूर्य
जगत पर टिमटिमाते जुगनुओं की रोशनी में
अढ़ाई अक्षरों के प्रेमपत्र को पढ़ती हैं किशोरियाँ
किलकारियों के कचकचाहटी स्वर में गाती हैं कजरियाँ
“सर्वे भवंतु सुखिनः’ सिद्धांत है हवा के होंठों पर
ऐ सखी! सृष्टि में फूल मरता है
पर उसका सौरभ नहीं
कलियाँ कंठों-कंठ कानों-कान सुनती रहती हैं
भ्रमरियों की गुनगुनाहट
और आहत तन-मन की आहट
मसलन ‘जीवन का राग नया अनुराग नया”
बाहर धूल भीतर रेत है
अंधेरी आँधियों में मणियों का मौन चमकना
साँप-साँपिन के संयोग का संकेत है
ओसों से बुझ रही है घास की प्यास
साथ छोड़ रहा है श्वास
पर, पेड़ को पता है
पत्तियों के पेट में जाग रही है भूख
कहीं नहीं है सुख
सूख रहा है ऊख
आश्विन-कृष्णा अष्टमी को
जीमूतवाहन जन्नत का वास छोड़कर पृथ्वी पर आते हैं
गरुड़ गगनगंगा में मलयावती के साथ नौका विहार करते हैं
जहाँ ढेर सारे किसान बादलराग गाते हैं
नयननीर की नदियों में शांति है
पर आँखों में क्रांति है
लालिमा बढ़ रही है
टूट रहा है विश्वास
रोष के रस से लबालब भरा है गिलास
गर्भवती अनुभूतियाँ जन्म दे रही हैं स्मृतियों को
जिन्हें जीउतिया माई अमरता का आशीर्वाद दे रही हैं
स्मृतियों के जीवित रहने से मनुष्यता जीवित रहती है
खैर, यह कोरोना के विरुद्ध छत्तिस घंटों का महासंकल्प है
इस वायरस-वर्ष ने प्रेम में नजदीकियों को नहीं,
दूरियों के तनाव को स्वीकार किया है
स्पर्श से दोस्ती में दरार पड़ रही है
कच्ची उम्र की बुभुक्षा लड़ रही है
पर्व को परवाह नहीं किसी के जीवन से
मृत्यु नहीं रुकती है किसी के रोकने से
नहीं रुकती हैं
कभी-कभी ख़ुद से ख़ुद की दूरियाँ बढ़ने से
दूरियों के बढ़ने से मन खिन्न है
गँवई शब्द मृत्यु की गंध को सूँघ रहे हैं
मरने से पहले एकत्र होकर
एक ही अगरबत्ती के धुएं को फेफड़े तक पहुँचा रहे हैं
डर के विरुद्ध
व्रतधारिन बूढ़ी औरतें
नयी नवेली बहुओं को उपदेश दे रही हैं
कि उज्ज्वल भविष्य की उम्मीद है उपवास
चील्होर था या उल्लू फुसफुसा रही है भीड़
परात का प्रसाद लौट रहा है
चूल्हे के पास
बच्चे हैं
कि गोझिया आज ही खाना चाहते हैं
खर व्रतधारिन समझा रही हैं
जिउतिया माई रात भर खईहन
हम सब सवेरे
(प्रसाद बसियाने पर शीघ्र शक्ति प्रदान करता है, वत्स!)
बच्चे कह रहे हैं माई हमार हिस्सा हमें दे दे
नाहीं त रतिया में जिउतिया माई कुल खा जईहन
आज शायद ही छोटे बच्चे सो पाएंगे ठीक से
व्रत की बात हट रही है लीक से
यह लोकपर्व मातृशक्ति की तपस्या है।
- गोलेन्द्र पटेल
*****
आज का युग
मुँह पर मीठे बोलते, पीठ पे छुरा चुभाय।
मतलब पूरा होते ही, रिश्तों को छल जाय।।
स्वार्थ सजा है आँख में, मन में कपट विशाल।
जिस दिन उनके काम न आए, बदलें अपनी चाल।।
सुख में सब संगी बने, दुख में कोई न साथ।
मतलब वाली भीड़ में, मिले न सच्चा हाथ।।
स्वारथ की खेती में उपजे, रिश्तों की बुनियाद।
काम पड़े तो पूजते, नहीं तो बेबुनियाद।।
नैनों में छलकाव है, होठों पर मुस्कान।
पीठ पीछे वार करे, कहे इसे ईमान।।
हाथ मिलाएँ मित्र बन, मन में पाले द्वेष
स्वार्थ सहेजे हृदय में, छद्म धरे है भेष।।
रिश्तों की भी मंडी है, तौल-तौल कर भाव।
जितना लाभ दिखे उन्हें, बाद में देते घाव।।
सुख में जैसे दीप जले, दुख में बुझें निष्काम।
मतलब वाले लोग हैं, सब झूठे है नाम।।
चेहरा मीठा देखिए, मन की मिले न थाह।
"मधु" घुले वचनों तले, बसी है विष सी आह।।
- मधु शुभम पाण्डे
मुँह पर मीठे बोलते, पीठ पे छुरा चुभाय।
मतलब पूरा होते ही, रिश्तों को छल जाय।।
स्वार्थ सजा है आँख में, मन में कपट विशाल।
जिस दिन उनके काम न आए, बदलें अपनी चाल।।
सुख में सब संगी बने, दुख में कोई न साथ।
मतलब वाली भीड़ में, मिले न सच्चा हाथ।।
स्वारथ की खेती में उपजे, रिश्तों की बुनियाद।
काम पड़े तो पूजते, नहीं तो बेबुनियाद।।
नैनों में छलकाव है, होठों पर मुस्कान।
पीठ पीछे वार करे, कहे इसे ईमान।।
हाथ मिलाएँ मित्र बन, मन में पाले द्वेष
स्वार्थ सहेजे हृदय में, छद्म धरे है भेष।।
रिश्तों की भी मंडी है, तौल-तौल कर भाव।
जितना लाभ दिखे उन्हें, बाद में देते घाव।।
सुख में जैसे दीप जले, दुख में बुझें निष्काम।
मतलब वाले लोग हैं, सब झूठे है नाम।।
चेहरा मीठा देखिए, मन की मिले न थाह।
"मधु" घुले वचनों तले, बसी है विष सी आह।।
- मधु शुभम पाण्डे
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नटखट भी चितचोर भी, हैं जसुदा के लाल।
अपने नन्हे हाथ से, करते खूब कमाल।।
ग्वाल संग क्रीड़ा करें, गोपी से मनुहार।
पावन वृंदाधाम में, बहती यमुना धार।।
राधा मोहन साथ में, करते विपिन विहार।
सजे अधर पर बाॅंसुरी, गर बैजन्ती हार।।
वृंदावन की रज मिले, रखना अपने माथ।
श्री जी हरपल साथ हैं, माधव पकड़े हाथ।।
मुरलीधर तेरी अदा, लेती मन को मोह ।
हिय में मेरे तू बसा, लगे न कोई टोह ।।
कृष्ण राधिका नाम ले, मिट जाते सब पाप।
वृंदावन के संत जन, करते राधा जाप।।
बरसाना में राधिका,रानी की सरकार।
आते है गोविन्द भी, दर्शन को इक बार।।
टेर सुनो हे साँवरे,आई तेरे द्वार।
बंशी धुन मीठी लगे, मिटते कष्ट अपार।।
किर्तन से तो हरि मिले, कहता जग संसार।
जपते हरि का नाम जो, होते भॅंव से पार।।
पाना है गर मोक्ष तो, जप लो हरि का नाम।
मुक्त रहित हों पाप से, मिले परम सुख धाम।।
- रिंकी सिंह
अपने नन्हे हाथ से, करते खूब कमाल।।
ग्वाल संग क्रीड़ा करें, गोपी से मनुहार।
पावन वृंदाधाम में, बहती यमुना धार।।
राधा मोहन साथ में, करते विपिन विहार।
सजे अधर पर बाॅंसुरी, गर बैजन्ती हार।।
वृंदावन की रज मिले, रखना अपने माथ।
श्री जी हरपल साथ हैं, माधव पकड़े हाथ।।
मुरलीधर तेरी अदा, लेती मन को मोह ।
हिय में मेरे तू बसा, लगे न कोई टोह ।।
कृष्ण राधिका नाम ले, मिट जाते सब पाप।
वृंदावन के संत जन, करते राधा जाप।।
बरसाना में राधिका,रानी की सरकार।
आते है गोविन्द भी, दर्शन को इक बार।।
टेर सुनो हे साँवरे,आई तेरे द्वार।
बंशी धुन मीठी लगे, मिटते कष्ट अपार।।
किर्तन से तो हरि मिले, कहता जग संसार।
जपते हरि का नाम जो, होते भॅंव से पार।।
पाना है गर मोक्ष तो, जप लो हरि का नाम।
मुक्त रहित हों पाप से, मिले परम सुख धाम।।
- रिंकी सिंह
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मोहब्बत की राह में दुश्वारियों, सदियों से रही हैं।
मुझे उससे मुहब्बत है, उसे भी इश्क़ हुआ है ।
आंखों आंखों में दिल की बात ये चमकती है ।
नज़रों से नजर जो मिलती, ख्वाब संवर जाता है
धुंआ, धुंआ सा है, या जुल्फें,जैसे शाम ढलती है।
हर पल हर घड़ी तेरे आने का ग़ुमाँ होता है,मुझे।
जाने कैसे ये फिज़ा है, तुझे साथ लेके चलती है,
मोहब्बत की राह में दुश्वारियों, सदियों से रही हैं।
दुख सुख की सभी माला, दुआओं से ही संवरती है
बहुत शातिर हैं,निगाहें ज़माने की सुन ले मुश्ताक़।
इश्क और मुश्क की खुशबू जब बिखरने लगती है।
- डॉ. मुश्ताक़ अहमद शाह सहज़
मुझे उससे मुहब्बत है, उसे भी इश्क़ हुआ है ।
आंखों आंखों में दिल की बात ये चमकती है ।
नज़रों से नजर जो मिलती, ख्वाब संवर जाता है
धुंआ, धुंआ सा है, या जुल्फें,जैसे शाम ढलती है।
हर पल हर घड़ी तेरे आने का ग़ुमाँ होता है,मुझे।
जाने कैसे ये फिज़ा है, तुझे साथ लेके चलती है,
मोहब्बत की राह में दुश्वारियों, सदियों से रही हैं।
दुख सुख की सभी माला, दुआओं से ही संवरती है
बहुत शातिर हैं,निगाहें ज़माने की सुन ले मुश्ताक़।
इश्क और मुश्क की खुशबू जब बिखरने लगती है।
- डॉ. मुश्ताक़ अहमद शाह सहज़
*****
मैं पंजाब हूँ
आपदा ने मुझको नहीं बदला
ब्लकि मैंने आपदा को बदल दिया.
मैं पंजाब हूँ, धरती सदा प्यार की,
आपदा आई,
लेकिन मैंने हार नहीं मानी
मैने आपदा को बदल दिया,
अपनी मेहनत से,
और फिर से खड़ा हो रहा हूँ
अपनी ताकत से।
मेरे किसान, मेरे जवान,
मेरी जनता,सबने मिलकर
आपदा का सामना किया।
हमने संघर्ष किया,
हमने जीत हासिल की,
और पंजाब फिर से
समृद्ध हो जायेगी।
आपदा ने मुझे नहीं बदला,
बल्कि मैंने आपदा को बदल दिया,
अपनी एकता और संघर्ष से।
मैं पंजाब हूँ, धरती सदा प्यार की,
और मैं हमेशा खड़ा रहूंगा,
अपनी जनता के साथ।
- अर्जुन कोहली
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