साहित्य चक्र

22 September 2025

आज की प्रमुख रचनाएँ- 22 सितंबर 2025









लोग अक्सर मुझसे पूछते है कि
"आप हमेशा दूसरों के लिए क्यों दिन-रात खड़े रहते है" ?

और मैं सिर्फ मुस्करा देता हूं...
पर सच्चाई ये है कि मैंने वो खामोश राते जी है,
जहां मदद की सख्त जरूरत थी लेकिन वहां कोई पास नहीं था।

मैंने सीखा है, जाना है तन्हाई इंसान को तोड़ देती है, वो चुपचाप रोना,
वो तकिए में चेहरा छुपा लेना और सुबह ऐसे उठना जैसे कि कुछ हुआ ही नहीं,
यही वजह है कि जब आज कोई गिरता है, तो मैं हाथ पकड़ लेता हूं,
चाहे वो मुझे भूल जाए, पर मैं उसे अकेला महसूस होने नहीं देता।

क्योंकि मैं जानता हूं कि, जब दर्द चरम सीमा पर हो
और आसपास कोई न हो तो इंसान सिर्फ सांस लेता है, जीता नहीं।
इसलिए मैं, दूसरों के लिए हूं, कभी कोई मेरे लिए नहीं था।

मैं दूसरों का हाथ थाम लेता हूं... क्योंकि मैंने वो रातें देखी है,
जहां मुझे हाथ बढ़ा के पकड़ने वाला कोई नहीं था।


- विकास कुमार शुक्ल


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नव उल्लास

हर रोज सुबह जब भी आती,
छोड़ आलस की चादर,
स्फूर्ति का अहसास दिलाती।

हर अंधेरी रात के बाद उजियारी भोर है आती,
कितना भी भटके हो चाहे उस काली रात में,
जीने की फिर सबको इक नई राह दिखाती।

प्रकृति ओस से नहाकर आती,
बीते पलों की याद बिसार,
नए पलों संग हौंसलों की सौगात लाती।

सूरज की लालिमा नभ में छाती,
सब परिंदों की जीविका की तलाश में,
इक स्फूर्ति भरी उड़ान शुरू हो जाती।

गौरैया चीं चीं कर बतियाती,
बच्चों संग दाना चुगती,
कोयल मीठा राग सुनाती।

सर सर की सरगम पत्तियां सुनाती,
पेड़ों की अद्भुत सुंदरता बढ़ाकर ,
सह हवा की मार नव उल्लास से जीना सिखाती।


- राज कुमार कौंडल


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जीवन है एक समर क्षेत्र
तुम्हें ना झुकना होगा
तुम्हें ना रुकना होगा
जीवन में कभी गहन पीड़ा होगी
कभी असहनीय विषाद होगा
तुम्हें हर पल हँसते हँसते
बस आगे बढ़ते जाना होगा
हर हाल में कर हौंसला बुलंद
असंभव को भी संभव कर दिखाना होगा
जीवन है एक समर क्षेत्र
पाषाणों में प्रसून खिलाने होगें
बंजर भूमि में उगाना होगा अन्न
श्मशानों में उपवन महकाने होंगे
रेगिस्तानों में जल राशि को
करना होगा प्रस्फुटित
आखिर जीवन है एक समर क्षेत्र
हे मानव! विषम परिस्थितियों में
क्यों तू घबराए
तू जो अपनी पर आ जाए
तो ईश्वर भी निज धाम छोड़
धरा पर आने को विवश हो जाए
जीवन है एक समर क्षेत्र


- प्रवीण कुमार


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मेरी कविताएँ

दिमाग़ पर हावी इस क़दर रहेंगी,
छुएँगी दिल को या बेअसर रहेगी!

जज़्बात दिल के कर दिये उजागर,
भावनाएँ मेरी इनके अंदर रहेंगी!

होंगी प्रसारित जग में इक दिन,
पर नामालूम कब - किधर रहेंगी!

आईना भी तन्हाई दूर कर ना पाया,
ये ज़िंदगियाँ सदा तन्हा सफ़र रहेंगी!

समझ नहीं आता और क्या लिखूँ,
मेरे हर लफ़्ज़ पर सबकी नज़र रहेंगी!

धीरे - धीरे पहुँचेंगी मंज़िल की ओर,
बनकर खुशबू संग ताउम्र रहेंगी!

कतरा - कतरा लहू से सींचा है मैंने,
जब मैं नहीं रहूँगा,
मेरी कविताएँ अमर रहेंगी।


- आनन्द कुमार


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समय

पल पल बीतता जाए
ये समय है कभी किसी
के बस में न आए।
 न कोई अपना न कोई पराया
जिसने अपना समझा वही
वश में कर पाया।
दिन रात चलता रहता 
कभी किसी का इंतजार 
नहीं करता।
कब सुबह हुई कब हो गई शाम 
ये समय है इसके नहीं चुका 
पाएंगें दाम।
धनी निर्धन का नहीं 
कोई मलाल 
धनी वही जिसने लिया 
इसे सम्भाल।
कब पैदा हुए कब हुए जवान
कब जवानी ढली 
कब आया बुढ़ापा 
चेत नहीं पाया इंसान।
पछतावे बिन नहीं कोई 
विकल्प 
व्यर्थ न गंवाएं,लें 
आज ही ये संकल्प।


- विनोद वर्मा 


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बो मां बाप होते हैं

झेल जाते हर दुःख हंस कर,
पर दिल से बस दुआएं देते,
एहसान कभी न वो जताते,
आई बला को खुद पर लेते,
होते हैं जो ऐसे दरियादिल,
बस बो मां-बाप होते हैं।
भूख भी सह लेते हंसकर,
औलाद भूखी न रहने देते,
तन-मन से करते मेहनत,
खून पसीना एक कर देते,
खुद की परवाह न करते,
बस बो मां –बाप होते हैं।
सूखे में औलाद को सुलाकर,
खुद गीले में भी सो लेते,
खुद जाग लेते रात भर,
औलाद को जी भर सोने देते,
आराम की परवाह न करते,
बस बो मां-बाप होते हैं।
बेईज्ज़ती, अपमान सहकर,
सिकन जो माथे पर न लाते,
औलाद के मान खातिर,
खुद को कुर्बान कर देते,
अहम् की जो बात न करते,
बस बो मां-बाप होते हैं।


- धरम चंद धीमान


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पिता का अधूरा स्पर्श
ऐसा नहीं है
कि सिर्फ बेटे ही
अपने पिता से गले न लग पाने का मलाल सँजोते हैं।
कुछ बेटियाँ भी होती हैं,
जिन्हें कभी नहीं मिला
पिता की बाँहों का स्नेहिल आश्रय,
न ही वह थपकी
जो नींद को नर्म बना सके।
उनकी आँखें भी तरसती हैं
उस एक बार पुकार पर मिलने वाले
प्यार भरे उत्तर के लिए।
उनके सपनों में भी एक आकृति है-
जो हमेशा अधूरी रह जाती है।
समाज कहता है,
बेटियाँ माँ की गोद की होती हैं,
पर कौन समझाए-
बेटियों का भी एक हिस्सा
पिता के कंधे पर सिर रखकर
निर्भयता से सो जाना चाहता है।
कितनी बेटियाँ हैं
जिन्होंने केवल दूरी देखी है,
सख़्ती देखी है,
पर स्नेह का वह कोमल चेहरा
कभी उनकी किस्मत में नहीं आया।
पिता का प्यार
केवल सुरक्षा नहीं,
वह आत्मविश्वास का स्त्रोत है,
जो बेटियों के जीवन को
पूर्ण बना देता है।
पर जिनके हिस्से वह नहीं आता,
उनकी आँखों का खालीपन
कभी शब्दों में नहीं उतर पाता,
वह चुपचाप
दिल के सबसे कोमल कोने में
एक स्थायी विरह बनकर रह जाता है।


- मधु शुभम पाण्डे


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असां मिली जुली सैर मनाणी

सौज महीना आया रुकया उण अम्बरा ते बरना पाणी,
पक्की गइयां फसलां उण असां मिली जुली सैर मनाणी,
फेरी करनी असां छल्लियाँ, धाना कने घा री कटाई ,
पहले नंदा ने असां सभी मिली जुली सैर लैणी मनाई।

गावें-गावें, घरे-घरे उण गायीं मैसी खूब लगी सुन्दियाँ,
घा, बड्डी, गोये चक्की, गायीं मैसी दुई माणी थक्की जान्दियाँ,
खड्ड, नाल शांत हुई गये उण घटी गया इन्हा रा से पाणी,
घा, धान कने छल्लियाँ बढ्देयाँ असां गंगी सभी गाणी।

ध्यूआँ ध्याणी लैणी सब सद्दी, इन्हां ने फेरी घर भरी जाणा,
सेवईयां री खीर, स्वालुआ ओर भ्ल्लेयाँ रा छडोलू बनाणा,
धाना रिया डालियाँ, छल्ली, खट्टे, धूप, कुंगू, कने सैर पूजणी,
माथा टेकणा सारे टब्बरा, सुख शांति हुई जाओ दूगणी।

खेतां रियाँ फसलां देखी किसाना रा कलेजा फूली जांदा,
दुःख दर्द भूली कने सब कम्म नवें जे जोशा ने कमान्दा,
नवियाँ नुआं काला महिना मायके कट्टी ससुराला आईयां,
इक दूजे जो गले लगाईं कने देंदे सारे बड़ी-बड़ी बधाइयां।


- लता कुमारी धीमान


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पितृसत्तात्मकता

उसने जाना
शायद नहीं होगी
आज पितृसतात्मता
की व्यवस्था कायम,
आज दुनिया बहुत
बदल गई
आज महिलाएँ
बहुत आगे गई,
आज हो गई
शायद महिलाओं
की सत्ता कायम,
पर ये क्या ?
एक दिन जब
उसने स्वयं
नग्न आँखो से देखा,
कहीं कहीं आज भी
महिलाओं की स्थिति
उलटी लटकी है,
आज भी पुरुष
महिलाओं को हुक्म देते
आते है नजर,
आज भी पुरुष
शोषण करते
जब आते है नजर,
आज भी पुरुष
यह कह कर
चुप करवा देते हैं महिला को
'तुम महिला हो'
आज भी ये सोच कि,
'महिला को पीछे रहना'
जब ऐसे ऐसे उदाहरण
महिलाओं ने दिए है
युद्ध के समय भी
काम आई है,
अंतरिक्ष में परचम
फहरा के आई हैं ,
सीमा पर अपनी सता
कायम करके आई है,
जब देश का शासन
चलाती आई है,
समाज में ये प्रश्न
कि 'तुम महिला हो
तुमसे ये नहीं हो सकता'
एक बहुत बड़ा
प्रश्नचिन्ह खडा कर जाता है।


- बबिता कुमावत


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माली

गमले में लगे पौधे
बढ़ते हैं
अनुशासित रूप से
अपने तन को बेमतलब नहीं
बढ़ने देते
उन्हें मालूम है
अनुशासनहीन होकर
बढ़ने का परिणाम
कष्ट उन्हें उनकी टहनियों के
कटने का नहीं
कष्ट पौधों को
इस बात का है कि
माली उन्हें काट कर
दुःखी हो जाएगा
बचे तनो को देखकर
रोएगा,बिलखेगा
कोसेगा उस पल को
जिस पल उसने पौधों के
कोमल डंठलों को
काट कर पौधों से
अलग कर दिया था
माली सींचता है
पौधों को नेह से
बहुत प्यार करता है
उनके सुख-दुःख का
पूरा ख्याल रखता है
उन्हें खिलाता है प्रेम
उन्हें पिलाता है प्रेम
उसके नजदीक आते ही
पौधे उन्हें पहचान लेते हैं
झूमते हैं,गाते हैं
ईश्वर से माली के
सारे दुःख मांग लेते हैं
जब माली उनके बीच नहीं होता
पौधे उदास हो जाते हैं
माली की याद में अनुशासित रहते हुए
धीरे-धीरे सूख जाते हैं।


- अनिल कुमार मिश्र


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आदमी के कर्म ही लगे हैं उसको खाने
हाँ जी मैं हिमाचल हूँ
हमेशा रहता था ठंडा और शांत
कुछ लोग कर रहे मेरे सीने में छेद
कर दिया मुझको बहुत अशांत
नालों को सिकुड़ने पर कर दिया मजबूर
कुछ तो इसका असर दिखेगा जरूर
नाले तो अपना रास्ता फिर से बनाएंगे
रोक कर जिनको तू कर रहा था गरूर
देवी देवताओं का अब हो रहा तिरस्कार
धार्मिक आस्थाओं से कर रहे खिलवाड़
इतनी सजा मिल रही फिर भी नहीं डर रहे
इनके प्रकोप से डरो वरना यह सब कुछ देंगे उजाड़
चोटियों पर रहते हैं देवी देवता
पैदल चलते थे सब जब होती थी उनमें आस्था
आजकल कार से जाते है मौज मस्ती में गंदगी हैं फैलाते
आस्था से नहीं उन का दूर का भी वास्ता
आते हैं यहां सब घूमने कहते हैं मुझे देवोँ का घर
कचरा फैला कर चल देते हैं नहीं रहा है किसी का डर
जानबूझकर कर रहे नुकसान खुद का ही
क्या करोगे जब न धरा रहेगी न रहेगा ज़र
अब तो पहाड़ भी लोगों को लगे हैं डराने
इंद्रदेव भी बरसने पर जोर लगे हैं लगाने
आदमी की धन पिपासा लगातार बढ़ती जा रही
आदमी के कर्म ही लगे हैं अब उसको खाने


- रवींद्र कुमार शर्मा

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हमसे मिल

जरा जरा तू हमसे मिल
तनिक तनिक उतर मेरे दिल
नैना तेरे जो कहते
मुख से कह उसको ना सिल।

जरा जरा तू हमसे मिल
तनिक तनिक उतर मेरे दिल।

अंतस की बुझुँ सब बातें
सपनो में जागी संग रातें
अहसासों को कभी प्रियवर
आकर कानों में कह जाते।
सुनकर बातों को सारी
चेहरे फिर तो जाते खिल
जरा जरा तू हमसे मिल।
.
भरकर प्रिये तू पार्श्व में
हर ले वेदना हिय की
पाट दे अधरों को सखे
अमृत वर्षा कर अमिय की।
तुमसे जो ना मिल पाऊँ
तड़पे दिल फिर तो तिल तिल
जरा जरा तू हमसे मिल।

सुन ले अब इस निलय में
आ बसी बिना दस्तक के
देर न अब किंचित करना
बंध जाएँ बस परिणय में।
डूब गईं इन आँखों में
नयन जैसे तेरी झील।

जरा जरा तू हमसे मिल
तनिक तनिक उतर मेरे दिल
नैना तेरे जो कहते
मुख से कह उसको ना सिल।


- सविता सिंह मीरा


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