साहित्य चक्र

06 August 2025

7 अगस्त 2025- आज की दस रचनाएँ







काला बादल

ये जो काला बादल है,
सच में लगता पागल है!
कभी गरजे - कभी बरसे,
दिल मे होती हलचल है,
ये जो काला बादल है!

तन - मन सारा झूम रहा,
अम्बर नीला घूम रहा,
नीर धरा को चूम रहा,
भीगा है कुर्ता बाबा का,
भीगा माँ का आँचल है,
ये जो काला बादल है!

चारों तरफ़ हरियाली है,
ये छटा बड़ी निराली है,
बरसात घनघोर वाली है,
संसार जिसका कायल है,
ये जो काला बादल है!

छप - छप पानी बहता है,
हम सबसे कुछ कहता है,
मेघों के दिल में रहता है,
नैनों का लागे काजल है,
ये जो काला बादल है।

- आनन्द कुमार



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संकल्प

दिवस मे भी जब रात का आभास हो,
तो रात्रि को पूनम बनाना चाहिए।
जीवन मे जब मौत का आगाज़ हो,
तो मौत को सुकून बनाना चाहिए।

सुख यदि हो दुखो के आगोश मे,
तो दुःख को मीत बनाना चाहिए।
क्रन्दन के स्वरों को बदलकर,
हँसी का संगीत बनाना चाहिए।

रेत सा भले ही समय जाए फिसल।
यादों मे उसे बॉध लेना चाहिए।
शून्य न होता जीवन कभी,
मन मे यह आश रखना चाहिए।

प्रार्थना तुम्हारी हो जब अनसुनी,
खुद को ही भगवान बनाना चाहिए।
अन्याय न माने अपनी हार तो
खुद को शैतान बनाना चाहिए।

सिखाती है हमे भी यह हवा
रोग ही बनने लगे जब दवा।
सीधे हाथो से जब न काम हो
तो हाथ टेढ़ी भी कर लेना चाहिए।


- रत्ना बापुली

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भरी बरसात  वो मस्ती भरी बरसात  अब कहां  जिसमें आनंद होता  था बेपनाह। बेफ्रिक हो कर खड्डों में नहाते रास्ते में आए पानी तो कागज की किस्तियां भी बहाते। पानी के डैम बनाना फिर पानी छोड़कर आंनद भी खूब लेना। झूला झूलने पींगे डालते  फिर झूल झूल कर मस्ती भरे गीत गाते। अब न वैसा बचपन रहा न ही वैसी बरसात  जिसमें हर रोज़ दिखती थी कोई नई शरारत। खेतों से छलियां चुराते  छुप छुप कर फिर उन्हें खाते। किसी आंगन में कहीं ककड़ी देखते  उसे चुराकर ही सांस भरते। अब तो पानी की जगह दलदल आता  दिन रात बड़ा है डराता। वो मस्ती भरी बरसात  अब कहां ?

- विनोद वर्मा

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पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा 

पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा
हाल सभी का जाने हैं,
जब तक डाली से जुड़े थे
छाँव सरीखे माने हैं।

अब जो छूटे समय के झोंके
दिशा-बिहीन हुए,
साँझ-सहर की बातें भी तो
हो गये हैं धुएँ ।
मौन खड़ा हर वृन्त बताए
कैसे टूटे ताने हैं।
पत्ता पत्ता बूटा बूटा 
हाल हमारा जाने है।

चलते-चलते राहगीर ने
शाखों को छू देखा,
कुछ बिखरी सी याद समेटी
कुछ मौसम का लेखा।
जिन गलियों से हँसी गुज़री थी
आज वहीं वीराने हैं।

पत्ता पत्ता बूटा बूटा 
हाल हमारा जाने है।

कहीं-कहीं कुछ कोपल फूटी
मन में फिर विश्वास,
शायद कोई और ऋतु आए
दे जाए संन्यास।
फिर से कोई गीत जगेगा
जिसमें हरजाई गाने हैं।

पत्ता पत्ता बूटा बूटा 
हाल हमारा जाने है।


- सविता सिंह मीरा 


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साजिशें

ये बारिशें ये बारिशें
किसकी है ये साजिशें
कभी वो वक्त था
जब होती थी बारिश
चेहरों पर खिल
उठती थी मुस्कान
आनंद में होता था नाच -गान
इस सावन में
हो रहा शिव तांडव
हो रहा जल प्रलय
ये बारिशें ये बारिशें
किसकी हैं ये साजिशें
आखिर क्या-क्या नहीं खाेया
मानव ने इस सावन में
जमीन -जायदाद खोयी
पशु खोये,
खोये अपने आशियाने
ना जाने कितनों ने
अपने परिवारों को खो दिया
आज हालत ये है
हर तरफ चीख है, पुकार है
दर्द है,पीड़ा है,
चीत्कार है
बेघर हो गए हैं लोग
दाने -दाने को मोहताज है
ऐसे में इंसान
किससे करे शिकायत
जब लग रहा है
रूठी है प्रकृति
ईश्वर भी नाराज है
ये बारिशें ये बारिशें
किसकी हैं ये साजिशें
मानव ने विकास के बहाने
किया निरंतर वन कटाव
तभी हो रहा
भयंकर मृदा कटाव
जैव विविधता में भी
हुआ है निरंतर ह्रास
कहीं पड़ा हैं सूखा
कही आयी हैं बाढ़
वैश्विक उष्णन एवं
जलवायु परिवर्तन से
जगह- जगह फटने
लगे हैं बादल
आसमान से बरसा है
ऐसा प्रलय
सब नष्ट -भ्रष्ट हो गया है
लोग त्राहि-माम
त्राहि- माम पुकार रहे हैं
प्रकृति दे रही है
मानव को चेतावनी
कर रही है मानव को सचेत
हे मानव! लौट चलो
प्रकृति की ओर
अन्यथा प्रकृति द्वारा
कर दिये जाओगे नेस्तनाबूत
ये बारिशें ये बारिशें
किसकी है ये साजिशें


- प्रवीण कुमार



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आनंद अनुभूति

मृत्यु योग बनता रहा
पर मेरे महाकाल
काल का भक्षण करते रहे।

शत्रु योग बनता रहा
पर मेरी मां काली
शत्रुओं का रक्त पान करती रही।

भयभीत करने का प्रयास
लोग करते रहे
मगर मेरे कालभैरव
भय के साथ भयाकारक का भी
भयानक विनाश करते रहें।

दुरात्मा योग बनता रहा
पर मेरे सदाशिव
ज्ञानामृत देकर पापयुक्त  करते रहे।

वियोग का योग बनता रहा
पर मेरी मां काली का
ममतामई स्पर्श आनंदमय करता रहा।


- डॉ.राजीव डोगरा


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ना जाने किसकी लगी नजर ?

कहीं डूबता हिमाचल
तो कहीं गिरता हिमाचल
ना जाने किसकी लगी नजर
जो गिर रहे बड़े बड़े पहाड़

कहीं अंधाधुंध विकास तो नहीं,
पहाड़ों के गिरने का कारण,
कुल्लू - मंडी जैसी शांत वादियां,
जिनमें छोटे छोटे नाले,
क्यूं बन गई बड़ी बड़ी नदियां,

कहीं प्रकृति से खिलवाड़ तो नहीं,
तभी उजड़ गये हो बेकसूर लोगों के आशियाने,
पेड़ काट दिए तो कभी पहाड़ समतल कर दिए,
अगर ऐसा ना करते तो शायद ना डूबता हिमाचल
और ना गिरता हिमाचल।


- सुनील शर्मा

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कभी वक्त गुजारा है
वह वक्त भी याद आता है ।
कितना हम बचपन में,
गुड्डा गुड़िया से खेला करते थे ।
ना मोबाइल था हाथ में ,
ना टीवी थी दीवाल में
बस हम बेसुध होकर दौड़े चले जाते थे ।
और लिए हाथ में मिट्टी के गोले से,
बहुत सुंदर घर बनाया करते थे ।
कैसा सुंदर वह जीवन था ,
कितना अनोखा हो बचपन था ।
जब हम बेसुध होकर कोई खबर न रहती थी,
कि हम कैसे दिख रहे हैं ।
अपनी मस्ती में मस्त घर के आंगन में ,
हम दोस्त मिलकर खिला करते थे।
आज कितनी तन्हाई है ,
कितना अकेलापन है ।
सीमेंट सी गई है जिंदगी उन घरों में ,
जो आज एक कोने में बैठकर मोबाइल चलाया करते हैं।
उनका बचपन भी उन्हें याद नहीं,
किस तरह से गुजर रहा है ।
बस उंगली खिसकने पर ही उनका जीवन निकल रहा,
मां को फुर्सत नहीं की बेटे को देख लू,
पिता को गपशप करने से फुर्सत नहीं,
की बच्चों को देख लूं।
सब अपनी अपनी दुनिया में खो गए हैं,
किसी का कोई अता पता नहीं है,
तभी तो आज वह संस्कार भी बच्चों में गायब हो रहे हैं,
नहीं दिख रहे हैं वह हमें संस्कार ,
जो कुछ समय पहले के बच्चों में देखने को मिलते थे।

- रामदेवी करौठिया


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आप याद आते है उस पल
जब-जब छाती है बदरी नभ पर,
आप याद आते हैं उस पल।
ओ भोले ,सादे मेरे पिया,
बिन आपके कहीं लगे न जिया।
आपकी घनी-घनी भौहें,
वो सादगी से भरी निगाहें।
निगाहों में आपकी सूरत आती है जब,
आप याद आते हैं उस पल।
सताती हैं जब सावन की घटाएं,
चलती हैं जब शीतल फिजाएं।
पूछती ये सब, क्यूँ खड़ी हो एकल,
आप याद आते हैं उस पल।
सुनाई देता है जब कही विरह गीत,
याद आती है उस क्षण आपकी प्रीत।
होता है जब कोई स्वपन विफल,
आप याद आते हैं उस पल।
फैलती है धरा पर जब सूरज की किरणें,
चलती हैं जब नदियाँ समंदर से मिलने।
छनकती है जब मेरे पैरों की पायल,
आप याद आते हैं उस पल।
निकलता है जब रात को अम्बर पर चाँद,
मिलता है चांदनी को भी उसका साथ।
उठती हैं जब समंदर में लहरें चंचल,
आप याद आते हैं उस पल।

- लता कुमारी धीमान


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आधुनिक लोकतन्त्र
लोकतन्त्र में
लोकतन्त्र हैरान हैं
लोकतन्त्र में
लोकतन्त्र परेशान है
न्याय मांगता हुआ लोकतन्त्र
अधिकार मांगता हुआ लोकतन्त्र
सम्मान, सुरक्षा और शान्ति चाहता हुआ लोकतन्त्र
स्वतन्त्रता की गारंटी की उम्मीदें पालता हुआ
अभिव्यक्ति की आजादी की आस लिए
विकास की राह देखता हुआ
फांसी के फंदे को निहारता हुआ
संविधान को मरता हुआ देखता है
कि वाह रे लोकतन्त्र!
लोकतान्त्रिक तरीके से घुसा हुआ सामन्त
अपना राजनीतिक कीड़ा घुसेड़ दिया है
लोकतन्त्र के सभी पायों में
और अट्टहास कर रहा है
मध्ययुगीन नाजियों की तरह


- डॉ के एल सोनकर 'सौमित्र'



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