साहित्य चक्र

23 August 2025

आज की नौ रचनाएँ- 23 अगस्त 2025





व्हाट्सएप के साइड इफेक्ट्स

अगर व्हाट्स एप नहीं होता तो क्या होता,
होता क्या हर व्यक्ति चैन की नींद सोता।

इसने ही तो  सबकी नींद चुराई है,
सबको अपनी बुरी लत इसने ही तो लगाई है।

 उन सबके स्वास्थ्य पर इसने  नकारात्मक प्रभाव डाला है,
जिसने भी शौक इसका अपने जीवन में पाला है।

इसके  प्रयोग से युवा वर्ग अलग थलग पड़ने लगा है,
इसी में मस्त रहकर अपने घर की चारदीवारी में सड़ने लगा है।

इसके अत्यधिक प्रयोग ने लोगों को चिंताग्रस्त ही किया है,
लोगों की रातों की नींद छीनकर इसने मानसिक तनाव ही दिया है।

इसकी बुरी लत ने छात्रों को पढ़ाई से दूर कर दिया,
कई लोगों के रिश्ते तोड़कर उनके जीवन में ग़मों को भर दिया।

जब से सभी विभागों के आदेश इस पर डलने लगे हैं,
तब से नौकरशाही के दिमाग में भी ख़ौफ पलने लगे हैं।

जब जब भी कोई ख़बर या आदेश इस पर डलता है,
सभी को गहन सतर्कता के साथ उन पर नज़र रखना पड़ता है।

 अगर व्हाट्स एप नहीं होता तो क्या होता,
होता क्या हर व्यक्ति चैन की नींद सोता।

इसने ही तो  सबकी नींद चुराई है,
सबको अपनी बुरी लत इसने ही तो लगाई है।


                                                 - भुवनेश मालव 


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फिर से जगा दिया

सुप्त हो गई थी कब से मेरी कल्पना,
भूल गई थी कलम भी लिखना,
तुमसे मिलने की चाह ने काम कर दिया,
कलम चलाने का फिर से जज्बा जगा दिया।

बंद पड़े थे कब से मेरी वीणा के तार,
छूकर तुमने, कर दी पैदा फिर से झंकार,
सुर से सुर मिला संगीत नया बना दिया,
गुनगुनाने का फिर से शौक जगा दिया।

अधखिली सी थी मन की कलियाँ खड़ी,
तुम आकर यूँ इन पर, भानु रश्मि सी पड़ी,
बेरुखी की ओस का आवरण इनसे हटा दिया,
पुष्प में बदल कर, मन को खिलखिला दिया।

सजने, संवरने और पोशाक का भी न था ध्यान,
तारीफ मनभावन शब्दों से कर दिया स्नेह, मान,
सजने ,संवरने ,महकने का सलीका सिखा दिया,
तन संग मन की सुन्दरता का भाव जगा दिया।

बिखरी-बिखरी और उलझी सी थी जिन्दगी ,
तुमने शीतल पवन के झोंके जैसे दस्तक दी,
हर लम्हा जीवन का इस कदर समेट लिया,
मुझमें सुलझे आकर्षक व्यक्तित्व को जगा दिया।

न थी कोई मंजिल, न रास्ता था मालूम,
थे हम बेखबर दुनियादारी से, थे मासूम,
आकर तूने जीवन में, जीने का तरीका बता दिया,
खुशनुमा जिन्दगी जीने का अहसास जगा दिया।


- लता कुमारी धीमान


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ये जो दिख रहे है


ये जो दिख रहे है
इच्छाधारी लोग है
जो लगातार अपनी कविताओं में
पूंजीवाद का पुतला फूंक रहे है
शाम होते ही
अपने खेमे में लौटकर
पलायन का शोकगीत गुनगुनाते है
हर एक आत्महत्या के बाद
समाचार पत्रों का हवाई सर्वेक्षण
कर लेते है

ये जो दिख रहे है
बहुरूपिया है
इनके ड्राइंग रूम में सजकर बैठा गांव
शहर को अतीत में अतीत को
पराजित कर चुका है

जुमले मौजूद है
बैनर लटके है
डायरी के हर पन्ने में नारेबाजी है
अजीबोगरीब भाषा मौजूद है
प्रेम का चिंतन है
पिकनिक मौजूद है
उनके गरीब खाने में
यातनाएं, हत्याएं और करुणा
समेट कर डस्टबिन में फेंक दी गई है।


- अनिता भारती


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बेटियाँ

आज मेरे देश की रो रहीं बेटियाँ।
देश का कलंक ये ढो रहीं बेटियाँ।।

न्याय कैसे मिलेगा इन बेटियों को।
नोंच रहे दुष्ट सब मिल बेटियों को।
बेटी बचाने का तो झूठा यह नारा है।
सच में तो तुमने ही बेटियों को मारा है।

रोज अपमानित अब हो रहीं बेटियाँ।
देश का कलंक ये ढो रहीं बेटियाँ।।

कैसे बेटियाँ ये अब पढ़ पाएंगी।
गोली बेटियों पे जब चल जाएंगी।
पहलवान हों या कामगार बेटियाँ।
दरिंदों का हैं अब शिकार बेटियाँ।

रोज़ अपनी इज्ज़त खो रहीं बेटियाँ।
देश का कलंक ये ढो रहीं बेटियाँ।

जातियों से बेटियों की इज्ज़त है।
इज्ज़त उसी की जिस पे दौलत है।
भेदभाव का शिकार हो रहीं बेटियाँ।
देश का कलंक ये ढो रहीं बेटियाँ।

गरीबों की शिक्षा बदहाल हो गई।
अमीरों की तिज़ोरी का माल हो गई।
जागने का समय है सो रहीं बेटियाँ।
देश का कलंक ये ढो रहीं बेटियाँ।।


- सिद्धार्थ प्रकाश


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एकांत


कभी एकांत में कहाँ रह पाती हूँ,
जैसे गर्भ में शिशु पलता है
माँ की साँसों के सहारे,
वैसे ही तुम धड़कते रहते हो
मेरे अंतर में निरंतर।

इसका समय केवल नौ माह का नहीं,
यह तो ताउम्र का है
अविरल, अनवरत, अनन्त।


                                     - सविता सिंह मीरा



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मोबाइल ने ऐसा चक्कर चलाया

समय का चक्र चला यह कैसा
हर तरफ फैला है उसका जाल
मोबाइल हो गया बहुत स्मार्ट
और आदमी का दिमाग कंगाल

समय देखना घड़ी को भूले
अलार्म जब चाहें बज जाता
दिमाग पर बोझ क्यों डालें जब
जमा घटाना गुना भाग झट से हो जाता

उंगलियों का कमाल है जितना चाहे चलाओ
टाइपराइटर को भूल मन में जो आये लिखते जाओ
कापी पर लिखने की जरूरत नहीं रही अब
जो लिखा है जब चाहे दोबारा पाओ

अब तो उंगली की भी नहीं रही जरूरत
मुंह से बोलकर सब कुछ है लिख जाता
खुशी हो या दुख का हो संदेश
कुछ पल में दुनियां भर में पहुंचाता

फोन नम्बर किसी को याद नहीं
सब यही रखता है अब याद
मोबाइल ने ऐसा चक्कर चलाया
सब रहना चाहते हैं अब आज़ाद

सुबह उठते ही पहले फोन देखना बन गया जरूरी
भगवान को भी अब बाद में करते हैं याद
रिश्ते नातों को भी कहीं का नहीं छोड़ा इसने
सदियों पुराने संस्कार भी कर दिए बर्बाद


- रवींद्र कुमार शर्मा



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बेरहम

सिफारिश-ऐ-दौर चला है
अपनों की जगह
कोई ओर चला है।

खुदगर्ज-ऐ-दौर चला है
निस्वार्थी मनुज की जगह
मतलबखोरों का क्षण चला है।

बेवफ़ा-ऐ-दौर चला है
महोब्बत की जगह
रूप सम्मोहन का काल चला है।

मलाल-ऐ-दौर चला है
हमदर्द की जगह
बेदर्द इंसा का वक़्त चला है।

जहालत-ऐ-दौर चला है
संज्ञान की जगह
अविद्या का अंधकार का चला है।



                                        - डॉ. राजीव डोगरा



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हौले हौले


सफर जिंदगी का चल रहा है हौले हौले,
हर सांस साथ छोड़ रही है हौले हौले।

किसी से प्यार किसी से तल्खी,
खट्टी मिट्ठी यादों से जिंदगी चल रही हौले हौले।

जिंदगी की उज्ज्वल चादर मिली थी किस्मत से,
पर अब ये चादर मैली हो रही हौले हौले।

पहले लगता था सारा जहाँ है ये अपना,
जिस्म भी अपना नहीं है ये पता लगा हौले हौले।

पहले सोचते थे ये कर लेंगे वो कर लेंगे,
पर जो प्रभु कर रहा है वो हो रहा है हौले हौले।

दुनिया को अपनी जेब में समझने वाले,
दुनियादारी सीख रहे हैं अब हौले हौले।

सारी उम्र दौलत के पीछे भागे, कुछ नहीं मिला,
सच्ची दौलत तो प्रेम है,समझ आया हौले हौले।


- राज कुमार कौंडल



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ये हवाएँ कुछ कहती हैं

ये हवाएँ कुछ कहती हैं,
मानो वृक्षों की शाखों पर बैठी हों
अनगिनत अनकही कथाएँ,
जो पत्तों की सरसराहट में
धीरे-धीरे सुनाई देती हैं।

कभी ये हवाएँ गीत गाती हैं,
फूलों की सुगंध समेटकर
मन की थकान हर लेती हैं।
तो कभी आँधी बनकर
झकझोर देती हैं जीवन की नींव,
मानो याद दिला रही हों कि
स्थिरता और परिवर्तन साथ-साथ चलते हैं।

ये हवाएँ कहीं से आती हैं,
पर हर जगह अपना संदेश छोड़ जाती हैं
कि संसार क्षणभंगुर है,
फिर भी हर क्षण जीने लायक है।

कभी ये हवाएँ शिशु की हँसी जैसी लगती हैं,
कभी बिछुड़े प्रिय की याद जैसी,
और कभी साधक के ध्यान में
ईश्वर का अदृश्य स्पर्श बन जाती हैं।

ये हवाएँ केवल बहती नहीं,
ये सिखाती हैं, समझाती हैं, जगाती हैं।
मानो कह रही हों-
“मत रुको, मत थको,
चलते रहो,
क्योंकि जीवन भी
एक हवा की तरह
निरंतर गति है।”


- मधु शुभम पाण्डे



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छुपे कहाँ है

स्कूल में है बरसात की छुट्टियाँ ,
नजर नहीं आते आजकल,
बंटू ,बबलू छुपे कहाँ है ?
घर में नहीं है हल्ला-गुल्ला,
न है कोई भागम-भाग,
न कोई उछल कूद यहाँ हैं।

लुकाछिपी खेले नहीं कोई ,
पकड़म- पकड़ाई कोई खेले,
इतना भला वक्त कहाँ है ?
उदास हैं वो दरबाजे, वो पर्दे,
उनके पीछे छुपने कोई,
अब भला आता कहाँ है ?
गुल्ली-डंडा ,कंचे अब भूले,
कागज़ की वो कश्ती भी अब,
बरसात में कोई चलाता कहाँ है ?

आँखों पर मोटा सा चश्मा,
हाथ में है मोबाइल अटका ,
किसी और की सुनते कहाँ हैं ?
मोबाइल पर ही होती सब खेलें,
गृहकार्य भी गूगल है करता,
खुद को इन्हें वक्त कहाँ है ?
बरसात, गर्मी या सर्दी की,
कोई भी छुट्टियाँ हो, मोबाइल जहाँ है,
बंटू , बबलू भी बस वहां है।



- धरम चंद धीमान



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