कलाईयों से परे, चेतना तक ले जाने वाला उत्सव
रक्षाबंधन...
एक ऐसा पर्व जिसे हमने बचपन से जाना है-
जहां बहन, रेशमी धागे में सुरक्षा का वचन बाँधती है,
मिठाइयों में मिठास होती है,
और कलाई पर विश्वास का भार।
पर यह “रक्षा” किसकी होती है ?
किसके लिए होती है ?
अब भी कुछ लोग इन प्रश्नों में उलझे रहते हैं-
"एक ही बेटी है? तो क्या भाई नहीं?"
या- "सिर्फ बहनें हैं ? तो रक्षाबंधन कैसा ?"
और यदि कोई एकमात्र संतान हो-
तो उसकी परवरिश अधूरी मानी जाती है,
उसके बचपन को जैसे कोई कमी महसूस होती है।
“अरे! अकेली है? किसे राखी बाँधती है ?”
“भाई नहीं है? तो त्योहार का क्या अर्थ?”
यही तो सोच है-
जिसके लिए 'पूर्ण परिवार' में
एक बेटा होना अनिवार्य है,
और दो संतानें अनिवार्यता की परिभाषा।
पर कोई यह क्यों नहीं पूछता-
कि उस बेटी ने कभी किसी भाई की कमी महसूस भी की थी?
क्या वह सचमुच अकेली थी? या फिर पूर्ण, अपनी संपूर्णता में?
समाज उसकी चुप संतुष्टि को सुनने के स्थान पर
अपने मापदंडों के तराजू से उसका आकलन करता है।
क्योंकि यह समाज अब भी
बेटों को सिंहासन सौंपता है,
और बेटियों को अपेक्षाओं की बेड़ियाँ।
किन्तु समय बदल चुका है।
अब वे बेटियाँ हैं-
जो माँ की दवाओं की ज़िम्मेदारी उठाती हैं,
पिता की पेंशन समझती हैं,
बहनों के लिए दीवार बनकर खड़ी होती हैं,
और स्वयं के लिए-
एक अभेद्य दुर्ग बन चुकी हैं।
उन्हें अब किसी कलाई की प्रतीक्षा नहीं,
क्योंकि उन्होंने अपने ही हाथों को अपनी शक्ति बना लिया है।
अब राखी एकतरफ़ा भाव नहीं है।
अब यह बाँधी जाती है-
उन सब तक, जो साथ निभाते हैं,
जो मौन में भी रक्षा का आश्वासन बनते हैं,
जिन्हें ‘रिश्ते’ की नहीं, ‘समझ’ की परिभाषा आती है।
कभी वह माँ होती है-
जो हर आघात पर मौन मरहम बन जाती है,
कभी एक सखी-
जो तुम्हारी आँखों की नमी पढ़ लेती है,
और कभी- स्वयं तुम ही।
इसलिए अब जब कोई पूछे-
"किसे राखी बाँधती हो?"
तो उत्तर मौन नहीं होता।
उत्तर होता है-
"उसे, जो मेरे जीवन में संतुलन लाता है।
जो मुझे बाँधता नहीं, समझता है।
जो किसी तूफ़ान में
मेरी ढाल बनकर खड़ा होता है-
भले ही उसका कोई नामित संबंध हो या नहीं।"
क्योंकि कभी-कभी राखी
रिश्तों की सीमाओं से परे होती है।
वह एक विचार है,
एक प्रतीक-
कि “रक्षा” केवल एक वचन नहीं,
बल्कि प्रतिदिन जिया गया प्रेम, आस्था और साथ है
आज बेटियाँ घर ही नहीं, देश संभाल रही हैं।
सिर्फ राखियाँ नहीं बाँध रहीं,
रक्षा कर रही हैं-
परिवार की, मूल्यों की, और आत्म-सम्मान की।
पर कुछ सोचें अब भी बीते युगों में अटकी हैं-
"बेटा तो होना चाहिए",
"एक से कुछ नहीं होता",
"दो बच्चे ज़रूरी हैं"-
जैसे अधूरी परिभाषाओं में उलझी।
उन्हें कहना चाहिए-
कि संसार दो बच्चों की सीमा से कहीं व्यापक है।
रिश्ते केवल रक्त से नहीं, संवेदना से बनते हैं।
और "बेटी" कोई अधूरा वाक्य नहीं,
वह स्वयं एक संपूर्ण कविता है।
"राखी अब परंपरा नहीं-
एक पुनर्परिभाषा है।
जहाँ सुरक्षा का अर्थ लिंग से नहीं,
संवेदनशीलता और सम्मान से जन्म लेता है।"
- शैली मिश्रा, पीएचडी अध्यनरत

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