साहित्य चक्र

12 August 2025

13 अगस्त 2025- आज की रचनाएँ




पत्थरों का सौदा

कितने ज़ख़्म लगे एक फल के लिए,
ऐसे पत्थर नहीं फेंकना चाहिए।

लाभ हो बूँद-सा, पर नुक़सान समंदर-सा,
ऐसा सौदा नहीं करना चाहिए।

जो दिलों की चाशनी छीन ले हसरत,
वो मिठास नहीं चखना चाहिए।

राह में कोई अगर काँटा भी बने,
उसको फूलों से मनाना चाहिए।

दिल अगर टूटे तो, चुपचाप सँभलने दे,
उसको तानों से न चुभाना चाहिए।

 नफ़रतों की आँच में जलकर भी,
प्यार का दीप नहीं बुझना चाहिए।

"दिल" अगर दर्द में डूबा हो कभी,
उसको चुपचाप ही सुनना चाहिए।


                                                - डॉ. सत्यवान सौरभ


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मेरे इन प्यासी पलकों पर

मेरे इन प्यासी पलकों पर
ख्वाब सुनहरे किसके हैं?
क्या वही हैं, जिनकी ख़ातिर
हम रात-रात भर सिसके हैं?

एक क्षण कभी ऐसा न बीता,
जब ना आए तुम सुधियों में।
तेरी चाहत कुछ और ही थी,
हम न थे उन रतियों में।

इस अहमक की परिधि से
तुम तो कोसों दूर रहे,
फिर भी इस बिरहन के
तुम ही तो नैनों के नूर रहे।

प्रेम, प्रीत, चाहत, अनुरागी 
ये चकोर ही बन सकता है।
उसकी बातें, वो ही जाने 
किसकी क्या विवशता है।

रह गई उस पपीहे की भांति,
पानी के मध्य भी प्यासी।
तृषित उर की प्यास बुझाने,
नहीं बनी किसी की दासी।


                                           - सविता सिंह मीरा

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आखिर क्यों ?

पहले संतान होने के लिए रोते
होने पर उन्हें पाल पोस कर बड़ा करते।
अपना पेट भूखा रख लेते 
संतान की ख्वाहिशें पूरी करते।
संस्कार भी उनमें खूब भरते
पर समय के साथ उन्हें भी वे है हरते।
मां बाप जैसे जैसे बुढ़ापे की ओर चलते 
संतान के तेवर भी हौले हौले हैं बदलते।
कोई अपने को संभाल लेते
मां बाप को अपने साथ है रखते।
कईयों ने खुद को बदला इस क़दर
मां बाप ठोकरें खाने लगे दर दर।
बुढ़ापे से दुखी कोई आत्महत्या कर लेते 
तो कोई वृद्धाश्रम को चले जाते।
पूत कपूत हो गया तो क्या 
लक्ष्मी रुपी बहू ने अपना फर्ज क्यों नहीं  निभाया।
बहू भी तो उन्हें मम्मी पापा है बोलती
फिर उन्हें वृद्धाश्रम जाने से क्यों नहीं रोकती।
मां बाप जीवन में मिलते हैं एक बार 
इनकी सेवा बिन नहीं होगा कभी उद्धार।


                                           - विनोद वर्मा 

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आज की बंगला देश की हालत पर।

शक्ती पुंज विश्व का, रक्तिम सूर्य की प्रभा 
शक्ती श्रोत विकास का,रक्त मनुज श्रेष्ठ का।
क्यों इसे व्यर्थ में तुम,बहा रहे मदांध में 
क्या कोई निर्माण हुआ,लाश के सड़ांध में।

मात्र रंग रुप भेद,न भाव ढंग का प्रभेद।
कर रहे जो संहार तुम,क्या  नही कोई खेद।
मानवता का रक्त क्या हो चुका है स्वेद।
फिर क्यों धर्म भी, आज रहे इस धुंध में।
क्या कोई निर्माण हुआ लाश के सड़ांध में।

साक्षी इतिहास भी, दिग्विजय सम्राट भी,
पूर्ण विश्व विजय कर, आल्हादित हुआ न पर 
रह गया रिक्त हाथ,नाम लिखा अपराध में।
क्या कोई निर्माण हुआ लाश के संड़ाध में।

चाह नयी सृष्टि की,क्या होता हाहाकार में,
शून्य जीवन के संग, रुप क्या हो संसार में 
क्या यह धर्म युद्ध है, बेगुनाह मरे द्वन्द में ,
क्या कोई निर्माण हुआ लाश के संड़ाध में।

ठहरों ज़रा सोच लो, संकल्प क्या तुम्हारा है,
या किसी ने तुमको यूं खामख्वाह बलगारा है।
क्यों न प्रेम से रहो, पुनः उसी आनंद में।
क्या कोई निर्माण हुआ, लाश के संड़ाध में 


                                                       - रत्ना बापुली


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कौन कहता है

कौन कहता है बोझ बड़ा है धरा पर,
एक पिता की जिम्मेदारियां देखीं हैं कभी!

कौन कहता है बेहद गहरा है सागर,
माँ की ममता से गहरा कुछ भी नहीं!

कौन कहता है काफ़ी ऊँचा होगा आसमां,
किसी भाई के रूआब से नापो तो सही!

कौन कहता है अत्यंत मज़बूत है पर्वत,
पर बहनें भी हमेशा बुलंद हौसलों में रहीं!

कौन कहता है ज़्यादा शीतल है हवा,
बाबा-अम्मा का मग़ज़ ठंडा मिलता यहीं!

कौन कहता है बहुत मीठे होते हैं फल,
रिश्तों की मिठास महसूस की हैं कहीं!

किसने कहा कि दौलत है सब कुछ यहाँ,
परिवार से बड़ी दौलत इस जहां में नहीं।

- आनन्द कुमार

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नदी नालों की याददाश्त
इंसान ने जब से तरक्की की राह है पकड़ी
नाले तो दूर की बात नदी की राह भी जकड़ी
अपने जाल में फंसाने की कोशिश की नदी नालों को
जैसे पकड़ने के लिए जाल बुनती है मकड़ी
बुजुर्ग कहते थे हमारे नदी नाले
कभी अपनी राह नहीं भूलते
इंसान की तरह बड़ा नहीं समझते
अहंकार में कभी नहीं झूमते
इंसान चला तरक्की की राह पर
संकरे कर दिए नदी नाले खड़े कर दिए मकान
राह रोक दी नदी नालों की क्या कर रहा इंसान
जब आएगी मुसीबत फिर याद आएगा भगवान
एक दिन नदी नालों में जो आ गया
भयंकर बारिश का बहुत पानी
उड़ा दिया जो भी आया उसके रास्ते में
अपना रास्ता व ज़मीन खाली जो थी करवानी
नहीं झेल पाएगा इंसान कुदरत की यह मार
नहीं उठा पायेगा ज़्यादा देर विकास का यह भार
चुकाना तो पड़ेगा मूर्ख इंसान को आखिर
अपनी जिद से जो लिया कुदरत से उधार
मुझसे बड़ा तू नहीं मत कर इतना अहंकार
दूर हो जा मेरे रास्ते से मत मुझको ललकार
तुम्हारी तरह नहीं बदलती रहती मैं रास्ते
मुझे तो है अपने पुराने रास्ते से बहुत प्यार

- रवींद्र कुमार शर्मा


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सौगात-ऐ-आज़ादी
लम्बी अंधेरी परतंत्रता की रात के बाद,
इक सुहानी भोर उजाला लेकर आई।
गुलामी की तोड़ जंजीरें,
नवभारत ने ली अंगड़ाई।
कितने वीरों ने देश के लिए फांसी को चूमा,
जवां लहू से आज़ादी की धानी चुनर रंगाई।
मातृभूमि के इस निस्वार्थ प्रेम में इन मतवालों ने,
जेल के अंधियारों में अपनी सारी उम्र बिताई।
भारत माँ के वीर सपूतों ने जान की बाज़ी लगाई,
हिंद के नभ पर फिर स्वंतत्रता की लालिमा छाई।
हंसते हंसते असंख्य वीर कुर्बान हो गए वतन पर,
कुर्बानी की आहुति ने फिर आजादी सरल बनाई।
लहरा कर तिरंगा स्वतंत्र हिंद के व्योम पर,
वर्षों की गुलामी से 15 अगस्त को मुक्ति पाई।
जिन वीरों ने हमारे खातिर अपनी जान गंवाई,
क्या अब तक हमने उस शहीदी की कद्र पाई?
आज़ादी की ज्योति जले हर देशवासी के मन में,
ये सौगात-ऐ-आज़ादी बड़ी मुश्किल से है पाई।

- राज कुमार कौंडल


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अरसा बिता दिया

जाना है इक रोज यहाँ से,
जानने में ये अरसा बिता दिया।
रुख्सत है हाथ खाली ही होना,
बटोरने में लेकिन जीवन लगा दिया।
खाक होना है माटी का ये पुतला ,
पोषण में बेशकीमती वक्त गवां दिया।
अपना नहीं जब कोई जहाँ में,
बेबजह जज्बातों का खजाना लुटा दिया।
सुनती नहीं जो किसी के दिल की,
बहरी उस महफ़िल को अफसाना सुना दिया।
विधि - विधान में टाँग अड़ाकर,
जड़ता अपनी का परिचय करा दिया।
पाकर मुक्त अस्तित्व का नजराना,
नकारात्मकता रूपी अदृश्य कारा बना दिया।
असंवेदनशील ,अनुर्वर मानव दिल धरा पर,
नयनजल का निरर्थक मेघपात करा दिया।
साथ लेकर कुछ नहीं हैं जाना,
कहीं भी किसी के आगे फिर क्यूँ दामन फैला दिया।
आतुर जो मिटाने को तेरी हस्ती,
लिखने अपनी किस्मत उन हाथों में कलम थमा दिया।
जान गया जो बात सीधी ये अब भी,
समझो उसने कुछ तो अच्छा कमा लिया।
जाते वक्त फिर नहीं तो सोचेगा यही,
सहज पहेली सुलझाने में क्यूँ इतना अरसा बिता दिया।

- धरम चंद धीमान


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चुपचाप तेरे वार पे हंसते रहा करें
तू बोल तेरे सामने कैसे रहा करें

तुमने फरेबियों की सजाई हैं महफ़िलें
कैसे तुम्हारी बज़्म में सच्चे रहा करें

क्या चाहते हो आप ख्यालों में आपके
पलकों पे अश्क अश्क पिरोते रहा करें

अकसर ये सोंचती हूं हथेली में मेरी भी
ख़ुशक़िस्मती के चंद सितारे रहा करें

बुझता हुआ चराग़ ये कहने लगा मुझे
कब तक किसी के याद में जलते रहा करें

जी चाहता है तुझपे कहें उम्र भर ग़ज़ल
और उम्र भर तुझी को सुनाते रहा करें

हासिल भले जहान की नेमत न कर सकें
लेकिन दुआएं ख़ूब कमाते रहा करें

किरदार मिरा जैसे हैं चन्दन की लकड़ियां
जल कर भी इस चमन में महकते रहा करें

इक रोज़ मिल ही जाएगी मंजिल भी आपको
पैहम किसी सफ़र पे निकलते रहा करें


- प्रिया सिंह


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