जल- जमीन- जंगल के रखवाले हैं।
हम अपनी मर्जी के राजा हैं
हमारी संस्कृति बस्ती है रगों में
हम प्रकृति के वासी हैं।
लोग हक हमारा छीन रहे हैं
और हमसे ही कर रहे हैं
बे बुनियाद सवालों पर सवाल।
सरकारें कहां है ? किसकी है ?
भोले हैं सीधे हैं पर
क्या हम नहीं जानते असलियत क्या है ?
मत उड़ाओ हमारा मजाक
हम हैं इस धरती के राजा।
क्योंकि हम हैं धरतीपुत्र।
सच में यहां पसीना कौन बहाता है ?
और सुख कौन भोग रहा है ?
यहां तो सब पहुंचना चाहते हैं चांद पर
पर पहले धरती पुत्रों के साथ भी
न्याय की लकीर को खींचे तो सही।
अब तुझे ही अपनी संस्कृति का
अमर इतिहास रचना होगा।
अपने गीतों में नया राग लाना होगा।
तुझे अपने अधिकारों के हित
तीर- कमान धनुष उठाना होगा।
अपनी भाषा का नूतन इतिहास गढ़ना होगा।
तुझे तो अपनी पहचान को जिंदा रखना होगा।
जिसने तुझे असभ्य,अविकसित समझा,
यह केवल उसका भ्रम था क्योंकि
तूने अपने जीवन में खुशियां पैदा की है
और खुशियों को स्वयं ने जन्म दिया है
उनके जीवन में तो केवल एक बहाना है।
तूने समूह में रहकर जीवन आसान किया है।
तूने मातृशक्ति को समता का हार
पहनाकर जीवन रथ को प्यार से खींचा है।
तू नहीं जानता दहेज क्या है?
तूने नहीं किया कभी आदमी-औरत में भेद।
तूने आदिकाल से चलकर लिखा अपना अमर इतिहास-
जिसमें झूलती हुई संस्कृति ने पहना अपना हीरो का हार।
तूने एकता की मशाल को हमेशा पैदा किया है
इसीलिए तूने सबको अपना माना है।
तूने अपनी बंसी से धरती मां के गुण गाए हैं ।
तूने सदा अपने अधरों पर प्रकृति के गीत गाए हैं
तेरी एकता और समुहता में हर समस्या का समाधान है।
तेरी मेहनत में उम्मीद की खुशबू है ।
तू ही आदमी-आदमी को जोड़ सकता है।
अब तू अपने अधिकारों के लिए बेबाक बोल सकता है।
तेरा आशियाना जंगल -जमीन है।
तेरा संसार प्रकृति का प्यार है ।
तेरी भाषा, संगीत ,नृत्य में अद्भुत पहचान है।
तेरा जीवन सदा सहज, सरल और
गजब का तेरा विज्ञान है।
तेरा लोक साहित्य अमृत के समान
और संस्कृत तेरी महान् है।
तुमने जब-जब भी किया व्यवधान
तब ऐसे विकट दौर में
हमने मिलकर निकला समाधान।
सच में तू प्रकृति के करीब है इसलिए अमीर है।
जो कृत्रिमता के करीब हैं वे सच में गरीब हैं।
स्वतंत्रता में रहना हमने बचपन से सीखा है।
सरकारों के शासन को नहीं,
हमने बचपन से पहाड़ों व जंगलों को देखा है।
आज हमारे विकास की नदी अपना मुख मोड़ने लगी है।
आजादी के बाद आज भी योजनाएं दम तोड़ने लगी है।
पहले हमारे साथ हमारा जमकर खिलवाड़ आपने किया।
अब नक्सली और माओवादी का करार तुमने दिया।
जल- जमीन- जंगल और ये पहाड़ हमारे लिए सदियों से खड़े हैं।
भाई साहब!हम इन्हें बचाने के लिए हीं तो जी जान से लड़े हैं।
इस प्रकृति ने हम सबको बनाया
और हमने यहां प्रकृति प्रेमी बनकर
सदा अपना प्यार लुटाया।
यही तो गुनाह हुआ है हमसे, सरकारों ने हमें ठुकराया।
स्वार्थी लोगों ने क्या गजब को ढहाया,
जंगलों को तो छोड़ो पहाड़ो तक को नहीं छोड़ा और उन्हें काटा।
हमारी जमीनों को कौड़ियों के भाव प्लाटों में बांटा।
अंदर से हमारा दिल कई-कई टुकड़ों-टुकड़ों में टूटा है।
समझ लेना! हम ही नहीं हमारे ईश्वर तुम पर भी
बहुत रुठा है।
- डॉ. कान्ति लाल यादव

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