साहित्य चक्र

12 August 2025

कविता- महुआ के फूल






सुबह-सुबह की गुलाबी ठंड में 
एक आदिवासी बालिका 
मीठे रसीले 
महुओं के फूलों को बीन रही थी।
अपने सपनों के परों को वह खोल रही थी।
एक-एक फूल के जोड़ में टोपली भर गई थी
उसे टोपली में एक मधुर-सी मुस्कान,
एक भविष्य का सपना, 
अपनी झोंपड़ी का आधार,
माँ का दुलार, पिता का प्यार ,
भाई- बहनों का स्नेह का तार।
उन सब में जीवन का अपना विश्वास
 झलक रहा था ।
सुबह की सुनहरी धूप और महुओं से 
भरी टोकरी का मेल यह बता रहा था-
जैसे- चाँदी के सिक्कों से भरी टोपली में खुशियों का भरा अंबार हो ।
जैसे खनकते सिक्कों की खनखनाहट हो।
बस यही रस भरे महुए अब घर के आँगन में सुखाये जा रहे हैं ।
कुछ महुओं से ढोकले  बनाए जाएंगे।
कुछ महुओं को काले तवे पर सेंका जाएगा
और लिया जाएगा एक मीठा स्वाद।
पूरे परिवार-पड़ोसी के साथ।
बहुत से महुओं को अर्थतंत्र में जोड़ा जाएगा।
महुओं की मादकता और 
भीनी-भीनी सौंधी ख़ुशबू के बीच अपने दूसरे रंग और स्वरूप में 
अपनी मिठास के साथ सफेद से लाल रंग में।
मयखाने के व्यापारियों के उत्साह में।
अनेक उत्सवों, त्योहारों में, 
सुख-दु:ख के साथ
अपने रस में,नये रंग में,रस घोलने में ।
मधुशालाओं को सजाने में,
अपने नये अंदाज़ भरे तेवर में, 
हारे हुए का सहारा बनने में ,
और जीत की खुशियों में,
सुकून की छाया में,
उफान और विश्राम में,
मादकता की सुराई में,
घडों में, बोतलों में, गिलासों में भरकर
पियक्कड़ों के होठों पर लगकर,
सोमरस का जादू ,
अपने सिर चढ़कर बोल रहा था।
गले से उतरने के बाद ,
दूसरे के गले लगने का और 
मादकता के जश्न में सराबोर हुआ।
उस मीठे सफेद फूलों का जादू 
सर चढ़कर बोल रहा था ।
काले कारनामों का और झूठे वादों का 
सफेद सच दिल खोलकर बोल रहा था। 
जीवन की तसल्ली की घड़ी का, 
स्वर्ग का एक अटूट आभास,
तेरे -मेरे भ्रम को मिटाया जा रहा था।
एक नये दर्शन को पढ़ाया जा रहा था।
महुआ  की मादकता की धार में
अमृत भरा प्यार उँडेला जा रहा था।
कुछ विशेष लोगों के बीच लुटाया जा रहा था।
जाति-धर्म के चश्मे को उतारा जा रहा था।
हर बीमारी के इलाज के समान 
एक अटूट विश्वास के साथ साझा किया जा रहा था।
दुनिया के भ्रम को मिटाया जा रहा था, 
उनके बीच दुनिया का अर्थ, मर्म और 
ज्ञान का भंडार बताया जा रहा था।
मन को हल्का करने में, तन भारी हो रहा था।
बहुत कुछ भुलाने के चक्कर में ,
दूसरा मुश्किल से याद किया जा रहा था।
चाँद को गिलास में और दुनिया को मुट्ठी में बताकर, 
अपने ग़मों को भूलाकर,
गुमनाम-सी जिंदगी को जिया जा रहा था।
अपना-पराया हाल सुनाकर 
ग़म के आँसुओं को भूलाया जा रहा था 
और उन हसीन पलों के साथ
जियो और पियो के संवादों में
ख़ुद को घुलाकर,
ईश्वर को शामिल किया जा रहा था।
सत्य ही ईश्वर है...
महुओं की महक  दूसरी गंध के साथ।
अर्थात् उसके अस्तित्व के साथ-साथ
साझा किया जा रहा था।


                                         - डॉ० कान्ति लाल यादव


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