साहित्य चक्र

27 August 2025

आज की रचनाएँ- 27 अगस्त 2025





सृष्टि और जीवन

आनी जानी इस सृष्टि की,
आओ बताएँ रहस्य गहरा।
पंच तत्व की काया पर,
दे रहा ज्यों सॉस पहरा।

बुद्धि का विवेक निशदिन,
देता है मन को भाषण।
कार्य सफल कर ले प्राणी,
काल कव्लित है यह जीवन।

सृष्टि मध्य जो दिख रहा,
भ्रम है माया का बसेरा,
अदृश्य हृदय से देख तू,
कर्म है जिसका सबेरा।

कर्म को पैरो मे बाँध,
नाचता लट्टू सा जीवन।
क्या बुरा व क्या भला,
हरदम बिधँता मन मे प्रश्न।

प्रहर सा जाता है बीत,
जीवन समय का प्रवाह।
बचपन यौवन व बुढ़ापा का
आवागमन होता अबाध।

चाहे लाख सवारो यहॉ पर,
अपनी कुटिया अपना बसेरा।
तेरा नही कुछ भी यहॉ
मृत्यु का न कोई सबेरा।

जान कर भी अनजान बन,
सब लगे हुए हैं बटोरने।
चाहे इसके खातिर हमको
करने पड़ते झमेले कितने।

प्राणो का प्यारा रत्न,
प्रेम को हम गए भूल।
आपस की बैमन्स्यता मे
बो रहे हैं कंटक शूल।

न इस जग की हो पाई,
न उस जग की सुनी पुकार।
व्यर्थ मे निज जीवन को,
बासना से कर दी बेकार,

स्वच्छ जीवन बचपन का जो
मै लाई थी नियति पार।
उसमे दुनियावी रंग भरकर,
कर दिया बेरंग अपार।

निर्मल निःशछल और कंलकहीन,
हो सकता था मेरा भी जीवन।
पर हाय इस माया मे फंसकर,
मैने कर ली आत्म हनन,

सृष्टि व जीवन के मध्य
चलता रहता अविरल नर्तन।
एक पुरातन जाता है तो
दूसरा आ जाता है नूतन।

सृष्टि का यह रहस्य समझ भी
रहे हमारे हाथ ही रीते।
पल दो पल जब सॉसे बॉकी,
तभी क्यो आया भाव पुनीते।

मैने तो गरल पिया इस जग का
पर तुम न पीना मेरे भाई
जैसा बीज बोया सबने,
वैसा ही फल सबने पाई।


- रत्ना बापुली


*****


हे हज़रत मोहम्मद साहब!
क्या कट्टरता ही इस्लाम है ?
क्या दूसरे धर्मों और पंथों से,
नफरत करना ही इस्लाम है ?
साहब! आप ही बताओ,
आपका बनाया इस्लाम कैसा है ?
इन‌ पाखंडी मौलवियों ने
इस्लाम के नाम पर ना जाने
कितने फतवे जारी कर दिए हैं।
कोई कहता है काफिरों को मारो
कोई कहता है बहत्तर हुर्र मिलेंगे
तो कोई कहता है...
ये हराम है, वो हराम है!
साहब! एक बार सच्चा इस्लाम
इन नमाज़ियों को आकर बताओ।


- दीपक कोहली


*****


मैं चाहती हूँ
धू धू कर स्वाहा हो जाए,
इस दुनिया की समस्त आधी आबादी।
ताकि जहमत न उठानी पड़े
बार-बार, बात-बात पर इन्हें
जलाने की तुम्हें सदियों से।
कभी सती प्रथा के नाम पर,
कभी दहेज की भट्टी में।
कारण हर बार वही
कामना है अर्थ की,
हर धधकती अग्नि के पीछे।
कल्पना करती हूँ उस विश्व की,
जब धन के ढेर पर बैठे
तुम सब बिलखो मृत्यु के भय से।
क्योंकि खत्म होगी तुम्हारे वंश की निरंतरता,
आधी आबादी के खत्म होने के साथ ही।
और विलोप हो जाएगा डायनासोर की तरह,
इस पृथ्वी से मानव का अस्तित्व भी।


- मेधा झा


*****


नज़्म गूंगी हो गई है
गीत चुप्पी साध बैठे
मौन हैं अश’आर सारे
कौन इनको पार तारे
मैं की जिसने दिल की खिड़की
खोल दी दुनिया की जानिब
और उसके रंग देखे ढंग देखे
फूल के बदले में आते संग देखे
और तब से दिल जो पत्थर हो गया है
प्यार मरुथल में नदी सा खो गया है
वो जो भोलापन था मेरी ज़िंदगी था
या कहूँ सादा सी मेरी बंदगी था
इक समझ की उसपे काई जम गई है
ज़िंदगी बहते से जैसे थम गई है
अब अधूरे गीत रह जाते हैं मेरे
शाम हैं होते नहीं जिनके सवेरे
नज़्म भी अपनी रवानी खो चुकी है
जैसे मेरी आँख पानी खो चुकी है


- डॉ. पूनम यादव


*****


ज्ञानी हैं देश में मात्र चार ही
चारों में है एक तरह की निपुणता
उछाल मारती है मेरिट इनमें
ठूस ठूस कर भरा होता है टैलेंट
'राष्ट्रवाद' के हैं सच्चे संपोषक
जुबान पर ही होती है 'संस्कृति'
बैठेते हैं जब कभी एक साथ
तब सुनने लायक होती है इनकी ज्ञान भरी बातें
दरअसल यही हैं गांधीवादी
यही हैं मानववादी
यही हैं राइटिस्ट और यही हैं लेफ्टिस्ट
चारों में है एक और गुण
सत्ता के अनुसार जानते हैं अपने को ढ़ालना
भले विश्वविद्यलायों में नहीं पचते इन्हें बहुजन के बच्चे
पर दलित चेतना पर यही देते हैं भाषण
बोलता है पहला ज्ञानी दूसरे ज्ञानी को
"विश्वप्रसिद्ध ज्ञानी"
तो दूसरा समर्पण भाव से
पहले को कहता है
कम हैं क्या आप भी?
हैं आप पूरे "अंतरिक्ष के जाने माने ज्ञानी"
इतने में बोल पड़ता है तीसरा
हां, सच में हैं पहले वाले "वैश्विक ज्ञानी"
और आप यानि दूसरे वाले कोई कम हैं क्या
आप भी हैं पूरे अंतरिक्ष में प्रसिद्ध
पर आपलोग कम नहीं समझना
मेरे बगल में बैठे चौथे को
है प्रसिद्धि इनकी तीनों लोक में
इसलिए मैंने की घोषित है इनको
"त्रिलोकी ज्ञानी"
सकुचाते हुए बोल पड़ते है चौथे
पीछे पीछे समर्थन में पहले दूसरे वाले
घोषित करते हैं तीसरे ज्ञानी को
पूरे "ब्रह्मांड का सबसे बड़ा ज्ञानी"
ऐसे तय करते है चारों अपने ज्ञानी होने का वर्ग
और डूब जाते हैं चारों आत्ममुग्धता में
और ऐसे कह कह कर अपने को कर लेते हैं कब्जा
देश के समस्त संसाधनों पर।


- संतोष पटेल



*****


जहाँ भी रहना पूरी तरह रहना
उस स्त्री ने ख़ुश रहने का यह मंत्र थमाया था
उसने यह नहीं बताया
कहीं पूरा हो सकने के लिए
कैसे बटोरे जा सकते हैं अपने अवशेष
ख़ुद को कितना तराशना होता है
कि सम्पूर्णता एक छल नहीं लगे
वह जो कभी प्रेम ने नहीं दिया
और ईश्वर ने भी
वह जो जीवन के वश में ही नहीं
उसे मृत्यु से माँगना व्यर्थ है
नहीं, ख़ुशी नहीं
बस पूरी तरह उदास हो सकने का अधिकार
नौकरी पर जाते हुए मैं आत्म सम्मान
घर की दराज़ में बंद कर आती हूँ
घर लौटकर छिपा देती हूँ अपनी बाहर वाली चप्पलें
इस तरह मैं दोनों जगह पूरी हो पाती हूँ
भव्यता के द्वार पर जाते हुए
ठीक से धो लूंगी अपने हाथ-पैर
नहीं, कहीं कोई रक्त नहीं था
इतिहास की थोड़ी धूल थी
अब सब कुछ पूरी तरह साफ़ है
बचपन में मेरे आस पास बहुत कुछ ऐसा था
जिन्हें कह सकने के लिए मेरे पास शब्द पूरे नहीं थे
इन दिनों आपके पूछने पर
ठीक-ठीक कह नहीं सकूंगी अपना हाल
नहीं, शब्द हैं मेरे पास
बस मैं ही कहीं नहीं हूँ, पूरी तरह


- रश्मि भारद्वाज


*****


एक प्रयोग ग़ज़ल के हर शे’र में मुहावरों के इस्तेमाल का
देखिए हर शे’र में न्याय कर पायी हूँ या नहीं।
जिन्हें हम प्यार से दिन रात पलकों पर बिठाते हैं
वही अक्सर हमें क्यूँ ख़ून के आंसू रुलाते हैं
पड़े जब काम तो वो आपको मक्खन लगाते हैं
निकल जाए जब उनका काम तो दामन छुड़ाते हैं
थमा कर हाथ अपना हम जिन्हें चलना सिखाते हैं
वही इक दिन हमें अपने इशारों पर नचाते हैं
हज़ारों आरियाँ चलती हैं सीने पर हमारे जब
हमारी आँख के तारे हमें आँखें दिखाते है
अलग हैं रास्ते सबके अलग हैं मंज़िलें भी फिर
किसी के रास्ते में लोग क्यूँ काँटे बिछाते हैं
जो बचपन में ही पा लेते हैं मंज़िल अपनी मेहनत से
बड़े हो कर वो अक्सर चैन की वंशी बजाते हैं
हवा देते हैं पहले तो ये सब ग़मख़्वार ज़ख़्मों को
बहा कर चार आँसू उनपे फिर मरहम लगाते हैं
हुआ क्या है ये दौर-ए-नौ के इंसानों को या मौला
ये हर इक बात पर क्यूँ आसमाँ सर पर उठाते हैं
ग़ज़ल कहना नहीं है खेल बायें हाथ का 'मधुमन'
इसे कहने में शाइर के पसीने छूट जाते हैं।


- मधु मधुमन



*****


दहेज
कब तक जलेंगी बेटियाँ
उन चूल्हों की आग में,
जहाँ रोटियाँ नहीं,
लालच की लपटें पकाई जाती हैं?
कब तक जलेंगी बेटियाँ
उस सोने-चाँदी के बोझ तले,
जहाँ इंसानियत का तौल
सामान के तराज़ू पर किया जाता है?
कब तक झुकेंगी माएँ
समाज के सामने सिर झुकाकर,
जबकि उन्होंने जन्म दिया है
एक ऐसी संतान को
जो किसी भी घर का गौरव बन सकती है।
दहेज-
ये शब्द नहीं,
एक कलंक है
जो सभ्यता के माथे पर
दिन-प्रतिदिन गहराता जाता है।
क्या बेटी का जन्म
सिर्फ़ इसलिए शाप है
क्योंकि उसकी विदाई
सोने-चाँदी के सिक्कों से तौली जाती है?
नहीं!
बेटी तो धरती की शीतलता है,
चाँदनी की उजास है,
ममता का अमृत है,
संस्कारों की नींव है।
तो फिर क्यों जलाया जाता है
उसके सपनों को,
उसके जीवन को,
उसकी कोमल काया को
दहेज के लालच में?
अब समय है-
इन ज्वालाओं को बुझाने का,
समाज की मानसिकता बदलने का।
बेटी कोई बोझ नहीं,
बेटी हर घर की आस है।


- मधु शुभम पाण्डे


*****

नहीं मालूम किस दिन कौन से किरदार में होंगे,
ये दौलतमंद हिस्सेदार हर सरकार में होंगे।

सड़क फुटपाथ पर होंगे हमेशा की तरह हम तुम,
लुटेरे देश के महंगी, विदेशी कार में होंगे।

हमारी तो कलम की नौंक उनके दिल में चुभती है,
कभी ये सोचिए भी मत कि हम दरबार में होंगे।

किसी राजा से कम हैं क्या, यही उनके ठिकाने हैं,
किसी जलसे में शामिल होंगे या फिर बार में होंगे।

अचानक डाल देंगे सामने आकर वो हैरत में,
किसी को भी नहीं मालूम किस अवतार में होंगे।

हमारे मसअले संसद में कोई क्यों उठाएगा,
किसी चेनल की ख़बरों में न हम अख़बार में होंगे।


- अशोक रावत

*****


जी करता है

बहुत जी करता है

बहुत जी करता है
जी लूँ हर वह क्षण,
जब नटनागर रास रचाते थे,
मधुर बंसी की तान पर
संसार को मोहित कर जाते थे।

बहुत जी करता है
देखूँ वह रात, जब जन्म लिया नागर ने,
कैसे सो गए पहरेदार,
कैसे खुल गईं जंजीरें,
कैसे उमड़ती यमुना का जलस्तर
उनके पग-स्पर्श से धीरे-धीरे थम गया।

बहुत जी करता है
जी लूँ वह पल जब यशोदा मैया
लाल संग खेला करती थीं,
जब बलदाऊ संग गोपाल सखा
गली-गली में विचरते थे।
देखूँ सुदामा का स्नेह,
गोपियों की चहकती हँसी,
और कान्हा की माखन चोरी।

बहुत जी करता है
सुनूँ ब्रज की नारियों की शिकायतें,
देखूँ राधा संग उनका अनन्त प्रेम,
महसूस करूँ वह छेड़खानी,
जहाँ बंसी की धुन पर
हर हृदय स्वयं को भूल जाता था।

कभी-कभी लगता है
यह भाव जो हृदय में उमड़ता है,
शायद उस युग की कोई स्मृति है।
क्या मैं भी कोई गोपी थी?
या ललिता-सी सखी,
वृषभानुजा सम प्रेमिका?
क्या यह पुनर्जन्म उसी का परिणाम है?

नहीं, मैं रुक्मिणी नहीं जीना चाहती,
मैं जीना चाहती हूँ मीरा का विरह,
राधा का अनन्य प्रेम,
गोपियों का उल्लास,
ब्रज की होली का रसमय रंग।

बहुत जी करता है
जी लूँ वह पल जब
नटवर नागर ने गोपियों के वस्त्र छुपाए थे,
जब यमुना किनारे राधिका को बुलाने
बंसी की मधुर तान गूँजती थी।
काश! उस युग में मेरा जन्म हुआ होता,
काश! मैं भी एक गोपी होती,
और कान्हा के चारों ओर
चक्कर काटती रहती।

बहुत जी करता है
देखूँ कंस का वध,
पांडवों की रक्षा,
द्रौपदी की लाज बचाते वे करुणा-मूर्ति।

जीना चाहती हूँ हर वह क्षण,
जहाँ कृष्ण हैं, जहाँ प्रेम है,
जहाँ समर्पण है।
क्योंकि
कृष्ण बनना तो सरल नहीं,
पर कृष्ण में खो जाना
यही सबसे बड़ा सुख है।


- सविता सिंह मीरा


*****


मुनादी द्वारा
रायसीना हिल्स से
विकास के नये माँडल
लागू करने का फरमान जारी हुआ
लोग डिजिटल बने
सुनकर होड़ मच गई
स्मार्टफोन और लैपटॉप के
की-बोर्ड पर करोड़ो उंगलियां थिरकने लगी
लोग सर्च करने लगे नेट पर
जादुई विकास के मॉडल को
बात गुफाओं तक पहुंची
ध्यानलिन संतों के चेहरे खिल उठे
सबों ने साधुवाद कहा
भक्त अब मुफ्त मे
हवाई यात्रा कर सकेंगे
लोग अफवाहों से बचें
क्या फर्क पड़ता है
एम्बुलेंस नहीं मिली
मृत बेटे को पीठ पर बांध
पिता पहुंचा गांव
फंदे से झूलता कर्ज मे डूबा किसान
कुव्यवस्था का मारा
चली गई कई मासूमों की जान
सरकार की मंसा है
गुफाओं मे प्रयोग आनेवाली
कुछ खास बुटियों के साथ
चीलम को भी जीएसटी फ्री रखा जाये
क्योंकि यह
आत्मा औऱ परमात्मा से
मिलन का योग बनाता है
लोग डिजिटल बने
यही मुक्ति का सही मार्ग
दिखाएगा।


- अजय अतीश


*****


मेरे पाठकों
मेरे पाठकों, मुझे माफ करना
मेरी कविताएँ नहीं दे पाएँगी तुम्हें
सुकून,
आनंद,
और हास्य।
मेरी कविताएँ जन्म लेती हैं
सड़क से,
हाशिए से,
या ठाकुर के कुएँ से।
मेरी कविताओं में यक़ीनन मिलेगा तुम्हें
दुःख,
आक्रोश,
और उबाल।
और मिलेगी
अंतर्व्यथाओं की जलती-सुलगती मशाल।
मेरी कविताएँ जला सकती हैं आग,
जगा सकती हैं भूख,
प्यास,
और ललक
तुम्हारे जेहन में।
मैं नहीं देता सुकून-
पर देता हूँ तुम्हें
सच का आईना,
और आत्मा का उद्घोष।
मेरे पाठकों,
मुझे है इसी बात का संतोष।

- नरेन्द्र सोनकर 'कुमार सोनकरन'


*****


सुरीली बांसुरी

नहीं मिले जो गुरु कोई तो,
बांस, बांसुरी न बन पाए।
चट्टान कुरूप ही रह जाए,
रूप मूर्ती का कैसे वो पाए ?
ढेला मिटटी का पड़ा रहे,
कोई रूप न वो ले पाए।
निर्जीव काठ के ठेलों पर,
नक्काशी कैसे उभर कर आये।
कंकर –पत्थर जोड़ सके न,
तो भवन कैसे बन पाए ?
घास फूस से अटी धरा पर,
फल ,फूल ,फसल कैसे उग पाए ?
व्यर्थ बहती समर्थ जलराशि की,
सामर्थ्य का दोहन कैसे हो पाए ?
मूढ़ ही रह जाता वो मानव,
जो गुरु संगत से बच जाए।
हे ईश्वर आपका बस इतना,
रहम मुझ पर हो जाए।
संवर जाए जीवन मेरा,
शरण गुरु की मुझे मिल जाए।
मुझ कुरूप अनगढ़ बांस की,
एक सुरीली बांसुरी बन जाए।


- धरम चंद धीमान


*****


सुनो!
जो तुम्हारी मुस्कान है
वो मेरी ही दी हुई है...

जानती थी
कोई वजह नहीं थी
तुम्हारी मुस्कराहट की
इस महाभारतीय परिदृश्य में...

जानती थी कि
जब तुम मुस्कराओगे
समस्त दैत्य संस्कृति
स्वतः नष्ट हो जाएगी...
पुन: आरूढ़ होगी धर्मसत्ता
बिना तुम्हारे शस्त्र उठाए...

जानती हूं मेरे बिना
कंटकाकीर्ण कर्तव्यपथ पर
तुम्हारी मुस्कान सरल नहीं
इसलिए अपनी मुस्कान
मैंने तुम्हें सौंप दी...


- मीनाक्षी शांकरी


*****


सितमगर

सितमगर तेरे सितम हो रहे बहुत,
रास्तों में काँटे तुम, बो रहे बहुत!

उम्मीद ए वफ़ा उनसे क्या करें हम,
गुमान में जो अपने खो रहे बहुत!

ज़माने को जगाना, कारवाँ है मेरा,
कुछ अंधेरगर्द नींद में सो रहे बहुत!

हर हाल में हँसना, सीखा है हमने,
गिरेबां में झाँक कर वो रो रहे बहुत!

तासीर तुम्हारी वाकई समझ से परे,
तभी गुनाहों को अपने ढो रहे बहुत!
सितमगर तुम सच में, हो रहे बहुत..


- आनन्द कुमार


*****


केहड़ी बरसात

राती जो आजकले घड़िए घड़िए नींद्र खुलदी
काना च बस बरखा री ही छेड़ सुनदी।
ये हल्की हल्की बरखा लगातार लगीरी
चुकणे रा नांव नी लैई करदी।
खड्डा नाले जोरा ने लगीरे बगणे
केते ल्हासे ता केते सड़का लगीरी बंद होणे।
चहुं तरफा बादला रा पईरा घेरा
सूरजा रा नांव नी बस नजर आई कराहं नेहरा।
म्हाणु डरी डरी रा लगी कराहां
पता नियां कधी जिंदगी हुई जाणी स्वाह।
माल पशु जो घा नी ल्याई सकदे
घरा ते बाहर निकलणे जो डरी करदे।
हुई सकां आदमियां रे कर्मा रा ये फल
आपु जो सुधारने पौंणा नहीं ता
खरा नहीं हुणा औणे वाला कल।


- विनोद वर्मा


*****


हर मोड़ पर दग़ा

हर मोड़ पर मिला मुझे बस दग़ा,
चेहरा हँसा, मगर दिल में था दग़ा।

वफ़ा की राह पर रखा मैंने क़दम,
सामने आई तो क्यों निकली दग़ा।

दुआ समझा जिसे, वो बन गई सज़ा,
मेरे मुक़द्दर की किताब में थी दग़ा।

रिश्तों की मेज़ पर सजता है वादा,
लेकिन परोसता है ज़हर-सी दग़ा।

सच की तलाश में निकला जो बशर,
हर मोड़ पर उसे रोकती रही दग़ा।

हर साँस कहती है- "मुझमें है दग़ा"।
‘शशि’ ये दुनिया अजीब है बहुत,


- शशि धर कुमार



*****

हे वासुदेव! आप इतने विद्वान और शक्तिशाली थे।
फिर भी एक परिवार के बीच महाभारत होने दिया!

ठीक है! सामान्य इंसान होने के नाते मैं समझ लेता हूं
कि आपको धर्म और अधर्म इंसानों को समझना था।
मगर हिंसा से धर्म-अधर्म को कैसे समझा जा सकता है ?

जिस युद्ध में अपनों को अपने ही हथियारों से मार रहे हो!
उसमें इंसान धर्म और अधर्म को कैसे समझेगा ?

अगर गलती पर अपनों की हत्या कर देना धर्म है,
तो केशव मुझे आपका हिंसात्मक धर्म नहीं चाहिए।


- दीपक कोहली



*****

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