साहित्य चक्र

20 August 2025

20 अगस्त 2025 की रचनाएँ



बारिश

आसमान में घने काले बादल हैं छाए,
ठंडी-मीठी हवा भी संग है वे लाए।
जैसे ही टपकी पहली बूँद मेरे आंगन में,
मिट्टी की सोंधी खुशबू बस गई मेरे मन में।


बारिश की धुन सुनकर उठी
बस यह उमंग मेरे मन में,
बस फौरन उठूं और डाल दूँ
कागज़ की कश्ती पानी में।
जब जब ये बारिश आए तो
हर तरफ हरियाली मुस्कुराए,
हर दिल में खुशी जगमगाए।


बारिश का मौसम सबको भाए,
हर दिल से यही आवाज़ आए।
आखिर ये बारिश किसे न पसंद आए ?
हर दिल बस यही चाहे कि ऐ खुदा
बस आज बारिश हो जाए।


- तस्मिया


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ये जिन्दगी

जीने की चाह रखोगे ,तो ये जिन्दगी हसीन है,
जीना अगर आ जाये ,तो ये और भी बेहतरीन है।

तुम चाहो तो इसे ग़मों का एक घर बना लो,
चाहो तो इसमें खुशियों का आशियाना बसा लो।

जिन्दगी नेक राह पर ,चलने का दूसरा है नाम,
अच्छे कर्म करोगे तो ,इसमें है बहुत ही आराम।

जिन्दगी है पटरी पर चलती रेलगाड़ी की भांति,
मृत्यु रुपी स्टेशन पर पहुँचते ही मिलती है शांति।

जीत भी मिलती इसी में ,इसी में मिलती हार है,
जिन्दगी मृत्यु द्वारा लिया जाने वाला आहार है।

आते हैं इसमें उतार और इसी में आते चढ़ाव है,
हकीकतें भी है इसी में और इसी में होते ख़्वाब हैं।

जिन्दगी गिराती है , तो सिखाती भी है संभलना,
अमीर या गरीब सबको देती है धरती का पालना।

कभी जिन्दगी में खुशियाँ ,कभी दुखों की है भरमार,
आए चाहे कितने कष्ट , सबको है जिन्दगी से प्यार।

जिन्दगी का दूसरा नाम ही होता है जीवन संघर्ष,
कर्तव्य पथ पर चले रहने से मिलता है खूब हर्ष।


- लता कुमारी धीमान


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क़सूर

क़सूर बस इतना था हमारा,
नाम लिया करते थे तुम्हारा!

हम हो ना जाएं एक दूजे के,
ये दुनिया को नहीं था गवारा!

ज़िंदगी बन गयी ऐसा दरिया,
जिसका नहीं था कोई किनारा!

मैंने जीत लिया दुनिया को,
पर मुहब्बत की जंग को हारा!

खुशियाँ हो गईं सारी रुख़सत,
जग से छिन गया मेरा सहारा!

ये दिल टूट गया था ऐसे,
जैसे टूटा कोई सितारा!

सलामती माँगी रब से उसकी,
यही क़सूर था सिर्फ़ हमारा।


- आनन्द कुमार


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(वज़्न- 221 2121 1221 212)


पहचान बन गई है ग़ज़ल मेरे नाम की।
बूढ़ा हूॅं मेरी अब नहीं तस्वीर काम की।

आए न जो समझ में ग़ज़ल वो ग़ज़ल नहीं।
भाषा सरल हो शेर में अदबी पयाम की।।

वह दानियत के सच का ये जब से चढ़ा नशा।
चाहत नहीं है अब मुझे साक़ी के जाम की।।

मंजिल है क़ब्र मेरी मैं उसके क़रीब हूॅं।
तारीफ़ हो रही मेरे फिर भी कलाम की।।

मेहनत की खाऍंगे वो जो ईमानदार हैं।
मक्कार झूठे खा रहे सारे हराम की।।

ख़ामोश हो गए हैं वो कुर्सी पे बैठ कर।
आवाज पहले जो थे उठते अवाम की।।

 बे-ख़ौफ़ हैं दरिंदे ये जिनकी पनाह में।
हाथों में उनके आ गई चाबी निज़ाम की।।


                                                - निज़ाम फतेहपुरी



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मरता मैं हूँ

गोली चले, बम फटे,
सुखा रहे, मेघ फटे,
लू चले, हिम गिरे,
जल को तरसे, बाढ़ झेले,
भूखा मरे, मंहगाई झेले,
झूठी उमीदों से खेले,
सच से खेले,
तूफ़ान चक्रवात से जूझे,
आगजनी झेले,
भ्रष्टाचार की चाबुक सहे,
अन्याय की बैंत झेले,
हर तरह मरता मैं ही हूँ,
मैं आम जन ठहरा रे...


- धरम चंद धीमान


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मीरा की खुद से वार्तालाप...

तू कहती तेरे गिरधर गोपाल,
यह कैसा मायाजाल?
नागर को तेरा कहाँ है भान,
देख जरा तू अपना हाल।

राणा को कर दिया दरकिनार,
त्याग दिया सारा घर-द्वार,
क्यों जिद पर है तू अड़ी?
यह कैसा अनदेखा प्यार?

राधा है केशव की चाह,
रुक्मिणी संग रचाया ब्याह,
वह तो ठहरे चितचोर,
कैसे पावेगी तू उनकी थाह?

नहीं चाहा कुछ भी पानी,
मैं मोहन की दीवानी,
वो रहते मेरे मन में,
बस मोहन को अपना मानी।

अनुराग था ऐसा मीरा का,
सिर्फ पाना न ध्येय जीवन का,
बसते मीरा के उर में मोहन,
वह करती बस अपने मन का।

सच्चे प्रेम की पराकाष्ठा,
विष पीते ही बन गई सुधा,
निस्वार्थ प्रेम की अमिट मिसाल,
मीरा संग मोहन बसे सदा।


- सविता सिंह मीरा


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वाह रे इंसान तेरे मुंह पर तेरा मेरे मुंह पर मेरा यह कैसा रूप बन गया रे इंसान तेरा । न रही वो परंपरा न रहे संस्कार  बस तूने अपना रुप बदला बारम्बार। मुंह के सामने घटना घटित हो जाए आंखें बंद कर वहां से निकल आए। अपनों को खोने का डर नहीं रहा जो मर्जी मुंह में आया वो कहा । रिश्तों में कड़वाहट नजर आए एक सोचे दूसरा ,दूसरा सोचे वो झुक जाए। ये कैसा अहम तूने पाल लिया  जहां बोलना हो वहां मानों मुंह सिल दिया। भले को भला बुरे को बुरा था तू कहता  आज तो चुपचाप आंखें मूंद तूं है रहता। मैं ही क्यों बुरा बनूं पाल रखा तूने ऐसा अहम बारी जब तेरी आएगी तब कोई नहीं करेगा रहम।
- विनोद वर्मा


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पिता और परिवार

पिता जो हमेशा अपना तन मन धन अपने परिवार पर ही लगाता है,
अपने परिवार के खातिर अपनी अनगिनत इच्छाओं को दबाता है।
बेटा बेटी को नए कपड़े और पत्नी को नई साड़ी दिलाता है,
लेकिन ख़ुद बेटे की पुरानी बनियान से काम चलाता है।
पत्नी जब भी बार बार नई बनियान लाने को कहती है,
मगर पिता की नई बनियान लाने की इच्छा जाती रहती है।
एक दिन बेटा माता पिता के बीच की बातों को सुन लेता है,
पिता के लिए नई बनियान न लाने पर माँ को झिड़कियां देने लगता है।
माँ तू अपने लिए तो दो हजार की साड़ी ले आई,
पर तू पिताजी के लिए सौ रूपये की बनियान तक न लाई।
माँ बेटे को बीच में ही टोककर गुस्से से बोलती है,
वह आगे कुछ कहता इससे पहले उसे कुछ कहने से रोकती है।
बेटा तेरे पिताजी नहीं चाहते कि उनके लिए कुछ नया लाया जाए,
उनकी इच्छा है कि पुरानी चीजों से ही काम चलाया जाए।
तेरे व तेरी बहिन के लिए भी तो नई ड्रेस आई है,
तेरे पिताजी ने तुझे नई बाइक भी तो दिलाई है।
बच्चों अब तुम्हारे पिताजी बूढ़े हो गए है,
उम्र के साथ उनके सब शौक भी खत्म हो गए हैं।
उनको अब उनके हिसाब से जीने दिया जाए,
उनके लिए अपनी जिन्दगी में तनाव क्यों लिया जाए।
लेकिन परिवार का कोई सदस्य इस बात पर विचार नहीं करता है,
कि उनका पिता ऑटो के बीस रूपये बचाने को पैदल क्यों चलता है।


- भुवनेश मालव



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मेरी पहचान

रुतबे को पहचान बनाकर रखा है मैंने,
हर कदम को इमानदारी से रखा है मैंने.
लोग हैसियत से नहीं
मेरे नाम से जानते हैं,
मेरे कर्मों की रोशनी में
मुझे पहचानते हैं.

धन-दौलत का दिखावा
कभी मेरा न था,
मेरी सादगी में ही छिपा
मेरा असली वजूद था.
झुका नहीं किसी
शोर-शराबे की भीड़ में,
अपनी राह बनाई मैंने
अपनी ही ज़मीन पर.

हर संघर्ष को
अवसर बनाकर जीया है,
हर हार में भी
जीत का सपना पिया है.
लोग पूछते हैं,
"तेरा राज़ क्या है?"
मैं मुस्कुराकर कहता हूँ,
"मेरे कर्मों का साया है."

हैसियत का सौदा
कभी किया नहीं,
सच और मेहनत का दाम
कभी लिया नहीं.
लोग मेरे नाम से
मुझे याद करते हैं,
क्योंकि हम खुद को
अपने कर्मों से गढ़ते हैं.

रुतबा मेरा झूठी दीवार नहीं,
यह मेरे संघर्ष की
सच्ची पुकार सही.
जो भी देखे कहे यही बात,
यह इंसान है जो रखता है
खुद पर विश्वास.


- अर्जुन कोहली


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