भारत की बुलबुल: सरोजिनी नायडू
भारत की बुलबुल, भारत कोकिला आदि नामों से मशहूर एक महान स्वतंत्रता सेनानी, सुप्रसिद्ध कवयित्री श्रीमती सरोजिनी नायडू जी का जन्म 13 फरवरी,1879 को हैदराबाद नगर (आंध्रप्रदेश)में हुआ था। इनके पिताजी का नाम अघोरनाथ चट्टोपाध्याय था।ये प्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री और वैज्ञानिक थे। इनकी माता जी श्रीमती वरदा सुंदरी देवी थीं। ये प्रसिद्ध कवयित्री थी और बांग्ला भाषा में लिखती थीं।
सरोजिनी जी बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि की थी। इन्होंने मात्र 12 वर्ष की अल्पायु में ही 12वीं कक्षा की परीक्षा पास कर ली थी। 13 वर्ष की आयु में ही इन्होंने 'लेडी आफ लेक ' नामक कविता लिख डाली थी। ये बहुत प्रतिभाशाली थी। शल्य चिकित्सा में क्लोरोफॉर्म की प्रभावकारिता सिद्ध करने हेतु हैदराबाद के निजाम ने इन्हें वजीफे पर इंग्लैंड भेजा था। इन्होंने वहां किंग्स कालेज, गिरटन कालेज तथा कैंब्रिज में पढ़ाई की। 19 वर्ष की आयु में इनकी शादी गोविंदराजुलू से हुई जोकि डाक्टर थे। इनके चार बच्चे हुए।
सरोजिनी जी ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका निभाई। ये गोपाल कृष्ण गोखले जी को अपना राजनीतिक पिता मानती थी। इन्होंने एनी बेसेंट और अय्यर के साथ युवाओं में राष्ट्रीय भावनाओं का जागरण करने के लिए 1915 से 1918 तक भारत भ्रमण किया। 1922 में इन्होंने खादी धारण करने का व्रत लिया। 1925 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन की प्रथम भारतीय महिला अध्यक्ष बनी। इन्होंने असहयोग आंदोलन सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान हुए जेल भी गई। देश की स्वतंत्रता के लिए उन्होंने हर संभव सहयोग दिया।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् वे संयुक्त प्रांत अर्थात उत्तर प्रदेश की पहली महिला राज्यपाल बनीं। 2 मार्च 1949 को लखनऊ में 70 वर्ष की आयु में हृदयघात से उनकी मृत्यु हो गई । आजादी के आंदोलन में सहयोग व इनकी देश प्रेम, प्रकृति संबंधी कविताओं के माध्यम से हर भारतीय के मन में आज भी विद्यमान हैं।
मधुरभाषी, सुर साम्राज्ञी, सशक्त जिनका था व्यक्तित्व,
बहादुरी-देशभक्ति से भरा हृदय, मिट नहीं सकता कभी अस्तित्व।
- लता कुमारी धीमान
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अरुणा आसफ़ अलीः स्वतंत्रता की लौ
अरुणा आसफ़ अली भारत के स्वतंत्रता संग्राम की वह साहसी नायिका थीं जिन्होंने अंग्रेज़ों की आँखों में आँखें डालकर आज़ादी का बिगुल फूंका। 16 जुलाई 1909 को कलकत्ता (अब कोलकाता) में जन्मी अरुणा जी का बचपन से ही स्वभाव निर्भीक और निडर था।
उन्होंने अपने जीवन में समाज की परंपराओं और अन्याय का डटकर सामना किया। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में जब ब्रिटिश सरकार ने नेताओं को गिरफ्तार कर लिया, तब उन्होंने बंबई के गोवालिया टैंक मैदान में कांग्रेस का झंडा फहराकर जनता के दिलों में आज़ादी की आग और तेज़ कर दी। यह कार्य ब्रिटिश शासन के लिए सीधी चुनौती था।
आज़ादी के बाद भी वे सामाजिक कार्यों, महिला सशक्तिकरण और पत्रकारिता में सक्रिय रहीं। 1991 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया। उनका जीवन साहस, त्याग और देशप्रेम का अद्वितीय उदाहरण है l
अरुणा दी, तेरी वह पुकार, आज भी जगाती है हम में हुंकार।
त्याग, तपस्या, बलिदान की रेखा, तू है भारत की सच्ची लेखा।
उन्होंने यह साबित किया कि नारी भी राष्ट्र के संघर्ष में बराबर की भागीदार है। वे न केवल स्वतंत्रता की प्रतीक बनीं, बल्कि आज़ादी के बाद भी महिलाओं के उत्थान, शिक्षा और सामाजिक बदलाव के लिए काम करती रहीं। 1991 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया- जो उनके योगदान का सर्वोच्च प्रमाण है।
अरुणा आसफ़ अली का जीवन हर महिला के लिए यह संदेश है कि दृढ़ संकल्प, शिक्षा और साहस से नारी किसी भी चुनौती को पार कर सकती है और इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ सकती है।
न झुकी तू आँधियों से, न रुकी तू बंधनों से,
तेरे हौसले ने रास्ता बना दिया पत्थरों में।
अरुणा तू वह चिराग है जो बुझा नहीं,
नारी की ताकत का नाम मिटा नहीं।
तेरी मिसाल से हर औरत यह जान पाए,
सपनों के पर फैलाकर आसमान छू आए।
- बीना सेमवाल
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क्रांति की माताः भीकाजी कामा
भीकाजी कामा एक महान स्वतंत्रता सेनानी थीं, जिन्होंने भारत की आजादी के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया। भीकाजी कामा का जन्म 24 सितंबर 1861 को मुंबई में हुआ था। वह एक संपन्न पारसी परिवार से थीं और उनका जीवन सुख और विलासिता से भरा था, लेकिन उन्होंने देश की आजादी के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया।
भीकाजी कामा ने 22 अगस्त 1907 को जर्मनी में आयोजित एक सम्मेलन में भारत का पहला तिरंगा झंडा फहराया, जिसे वीर सावरकर और उनके साथियों ने तैयार किया था। उन्होंने "वंदे मातरम" और "मदन तलवार" नामक दो क्रांतिकारी पत्र प्रकाशित किए, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए बहुत महत्वपूर्ण साबित हुए।
भीकाजी कामा ने विदेश में रहकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और क्रांति के कार्यों के लिए विशेष वातावरण तैयार किया। भीकाजी कामा ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान दिया और देश की आजादी के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। उन्होंने 'पेरिस इंडियन सोसाइटी' की स्थापना की और 'मदन की तलवार' जैसी साहित्यिक कृतियों की स्थापना की।
जर्मनी में स्टटगार्ड में दूसरी सोशलिस्ट कांग्रेस में भाग लेने के दौरान विदेश में भारतीय ध्वज फहराने वाली वह पहले व्यक्ति के रूप में उभरी। उन्होंने इसे 'भारतीय स्वतंत्रता का ध्वज' कहा। इस लेख में भीकाजी कामा के जीवंत - जीवन का उल्लेख किया है। भीकाजी कामा को "भारतीय क्रांति की माता" कहा जाता है।
अंत में भीका जी कामा पेरिस में लंबी बीमारी से ग्रसित हुई और 13 अगस्त 1936 कौन की मृत्यु हो गई। किंतु आज भी उनका नाम स्वतंत्रता सेनानियों की सूची में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाता है ।
धन्य है वह जवनियाँ चुनौतियों के शिखर पर शौर्य की निशानियां,
जब तक रहेंगे सूरज, चांद यह धारा और यह गगन,
समय के पृष्ठ पृष्ठ पर गायी जाएंगी उनकी कहानियाँ।
- रचना चंदेल 'माही'
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पूर्वोत्तर की लक्ष्मीबाईः कनकलता बरूआ
कनकलता बरुआ स्वतंत्रता संग्राम में थीं जिन्हें लोग पूर्वोत्तर भारत की लक्ष्मीबाई भी कहते हैं इनका जन्म असम के एक छोटे से गांव में सन् 22 दिसंबर 1924 ईस्वी में हुआ था। देश प्रेम से पूर्ण कनकलता मृत्यु वाहिनी नामक दल में भर्ती हो गई। इस दल में शामिल होने के बाद मानो देश को आजाद कराने की उनके सपनों को पर लग गए हो। बड़ी ही निष्ठा के साथ इस दल में कार्य करने लगी और देश को आजाद कराने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। वह एक निडर महिला थी।
अंग्रेजों का डट कर सामना करती थी। एक बार 20 सितंबर 1942 ई को गोहपुर थाने पर तिरंगा फहराया जाना था तब उन्होंने मृत्यु वाहिनी दल का नेतृत्व किया तथा तिरंगे को हाथ में पड़कर दल में सबसे आगे चल रही थी। गोहपुर थाने पहुंचकर जब उन्होंने तिरंगे को थाने में फहराना चाहा तब वहां के तैनात पुलिसकर्मी ने उन पर गोलियां चला दी।
परंतु कनक लता एक कदम भी पीछे न हटी और वही अपने प्राण त्याग दिए उनके दल ने थाने पर झंडा फहराया। वह एक निडर और जांबाज़ देशभक्त थी। लोग उन्हें वीर वाला भी कहते हैं। उन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर देश में स्वतंत्रता की ज्योति जलाई। भारत देश कनक लता बरुआ के इस त्याग ,समर्पण और बलिदान को कभी नहीं भूलेगा।
- अनुरोध त्रिपाठी
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महिला गांधीः मातंगिनी हाजरा
आपका जन्म 19 अक्टूबर 1870 को पूर्वी बंगाल के मिदनापुर जिले के हौसला गांव में हुआ था। गरीबी के कारण बारह वर्ष में ही उनका विवाह 63 वर्षीय विधुर के साथ कर दिया गया। छह वर्ष बाद वह विधवा हो गई। इसके बाद अत्यधिक गरीबी एवं कष्टों में जीवन बिताते हुए वह तन मन धन से देश के लिए समर्पित हो गई। तथा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलनों में भाग लेने लगी। इस कार्य में आपने अन्य महिलाओं को भी संगठित कर अपने साथ जोड़ा।
17 जनवरी 1933 में कर वंदी आन्दोलन का नेतृत्व किया। जिस कारण वह गिरफ्तार कर ली गई एवं छह माह का कारावास हुआ। भारत छोड़ो आंदोलन में भी आपकी सहयोगिता रही है। जिसमें 6000 समर्थकों के जुलूस की अगुआई की, जिसमें अधिकतर महिलाएं थीं।
73 वर्ष की उम्र में भारत छोड़ो आन्दोलन में वह घर घर जाकर महिलाओं को तैयार किया और तिरंगा लेकर सरकारी डाक बंगले में पहुंची तो पुलिस ने उन्हें वापस जाने को कहा, पर वह टस से मस नहीं हुईं।
इस बात पर पुलिस ने गोली चला दी। एक गोली मातंगिनी के वाएं हाथ में लगी, तिरंगे को गिरने से पहले ही उसने उसे दाहिने हाथ में पकड़ लिया,जब दूसरी गोली दाहिने हाथ में,एवं तीसरी गोली माथे पर लगी तो वह भारत की माटी पर गिरकर शहीद हो गईं।
इस बलिदान ने क्षेत्र के लोगों में जोश भर दिया,और लोगों ने दस दिनों के अंदर ही अंग्रेजों को वहां से खदेड़ दिया और स्वाधीन सरकार तैयार की, जिसने 21 माह काम किया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पहली महिला सदस्य मातंगिनी हाजरा ही थी।
न केवल वह एक स्वतंत्रता संग्रामी थी वरन् वह एक समाज सेविका भी थी और हजारों निर्धनों की मां बनकर सेवा की, ऐसे विरांगनाओं को आज इतिहास भूल चला है।
जय हिन्द जय भारत।
- रत्ना बापुली
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ज्ञान की ज्योति जलाने वालीः सावित्री बाई फुले
सावित्री बाई फुले का नाम भारतीय समाज के इतिहास में एक अमिट छाप है। उनका जन्म 3 जनवरी, 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले में हुआ था। वह भारत की पहली महिला शिक्षिका, कवयित्री और समाज सुधारक थीं, जिन्होंने अपना पूरा जीवन महिलाओं और दलितों के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया। उस समय समाज में महिलाओं को शिक्षा का अधिकार नहीं था और बाल विवाह जैसी कुरीतियाँ प्रचलित थीं।
सावित्री बाई ने इन सभी सामाजिक बंधनों को तोड़कर शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति ला दी। महज 9 साल की उम्र में उनका विवाह ज्योतिराव फुले से हो गया, जो खुद एक महान समाज सुधारक थे।
ज्योतिराव के सहयोग और प्रेरणा से सावित्री बाई ने घर पर ही पढ़ाई की और बाद में एक शिक्षिका के रूप में प्रशिक्षण लिया। 1848 में उन्होंने पुणे के भिडे वाड़ा में भारत का पहला लड़कियों का स्कूल खोला। इस कार्य में उन्हें और उनके पति को समाज से कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। लोग उन पर पत्थर फेंकते थे और उनका अपमान करते थे, लेकिन इन सब के बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी। वह अपने साथ एक अतिरिक्त साड़ी ले जाती थीं, ताकि स्कूल पहुँचने पर वह गंदी साड़ी बदल सकें।
सावित्री बाई ने केवल शिक्षा ही नहीं, बल्कि विधवा पुनर्विवाह, बाल विवाह का विरोध और छुआछूत जैसी कुरीतियों के खिलाफ भी आवाज उठाई। उन्होंने विधवाओं के लिए एक आश्रय गृह 'बालहत्या प्रतिबंधक गृह' की स्थापना की। उनका जीवन त्याग, समर्पण और साहस का प्रतीक है। उन्होंने अपने कार्यों से यह साबित कर दिया कि शिक्षा ही समाज को बदलने का सबसे शक्तिशाली हथियार है।
आज भी उनका जीवन हमें प्रेरणा देता है कि हमें समाज में व्याप्त बुराइयों के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए और सभी को समान अधिकार दिलाने के लिए संघर्ष करना चाहिए।
"सावित्रीबाई का यही संदेश,
शिक्षा से सशक्त हो देश।"
- डॉ. उपासना पाण्डेय
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क्रांति की ज्वालाः रानी लक्ष्मी बाई
रानी लक्ष्मी बाई जिन्हें झांसी की रानी के नाम से भी जाना है। 1857 की लड़ाई में भारतीय विद्रोह में वह एक प्रमुख हस्ती थी। उनका जन्म 19 नवंबर 1828 को वाराणसी में हुआ था। उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका था , और प्यार से उन्हें मनु के नाम से जाना जाता था।
1853 में अपने पति गंगाधर राव के जो झांसी के राजा थे, निधन के बाद उन्होंने अपने गोद लिए बेटे दामोदर राव को राज गद्दी पर बिठाने की कोशिश की, लेकिन अंग्रेजों ने ये हुक्म नहीं माना और इसे अस्वीकार कर दिया। इसके बाद उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर दिया और 1857 के विद्रोह में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
1857 में ग्वालियर के पास लड़ाई में रानी लक्ष्मी बाई वीरगति को प्राप्त हुई और उन्होंने हिम्मत नहीं हारी, उन्होनें अंग्रेजों के सामने झुकना पसंद नहीं किया भले ही उन्होंने मारना पसंद किया क्योंकि वह ऐसी वीरांगना थी जो छोटी से उम्र में वीरगति को प्राप्त हुई।
उनका विवाह 14 वर्ष की आयु में हुआ था, उन्होंने घर पर शिक्षा दीक्षा प्राप्त की जिसमें घुड़सवारी, तलवारबाज़ी और मलयुद्ध शामिल थी। रानी लक्ष्मी बाई को उनकी बहादुरी , दृढ़ संकल्प और स्वतंत्रता के प्रति देश प्रेम के प्रति जाना जाता है। वह भारतीय इतिहास की एक महान नायिका थी और सारे विश्व की महिलाओं के लिए एक प्रेरणा स्रोत रही है।
रानी लक्ष्मी बाई जैसी वीरांगना का जन्म सदियों में न कभी हुआ न होगा हमें गर्व है कि वह हमारे भारत की धरती पर जन्मी और देश के लिए वीरगति को प्राप्त हुई और रानी लक्ष्मी बाई का भारतीय इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित हो गया।
- सुमन डोभाल काला
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